वर्ष 2022 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के तीन अर्थशास्त्रियों बेन बर्नान्के, डगलस डायमंड और फिलिप डायबविग को दिया गया है। पुरस्कार की घोषणा के साथ प्रस्तुत उद्धरण पत्र में कहा गया कि तीनों अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक संकटों को लेकर वित्तीय तंत्र की केंद्रीयता को लेकर काम किया है और यह भी कि कैसे सरकारों को ऐसे वित्तीय संकटों को रोकने या हालात को सुधारने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। बर्नान्के के बारे में कहा जाता है कि वह ‘सही समय पर सही जगह पर सही व्यक्ति’ थे।
वह 2008 के वित्तीय संकट के समय अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन थे और उन्होंने सन 1930 के दशक की महामंदी को लेकर जताई गई सफल और असफल प्रतिक्रियाओं को लेकर जो अध्ययन किया था वह संकट के समय काम आया। इस समय विश्व अर्थव्यवस्था तमाम मुश्किलों से गुजर रही है। उनमें से कुछ के तो पूर्ण संकट में बदल जाने का भी खतरा नजर आ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि पुरस्कार समिति यह बताने का प्रयास कर रही थी कि आर्थिक संकट को लेकर कहीं अधिक सूचित प्रतिक्रिया की जरूरत होती है और अक्सर वित्तीय तंत्र समस्या और उसके हल दोनों के मूल में होता है।
बर्नान्के की बात करें तो उन्हें चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ा है। लैरी समर्स के अलावा शायद ही कोई अन्य जीवित अर्थशास्त्री होगा जिसे इतनी अधिक आलोचना का सामना करना होगा। वाम धड़ा उन पर आरोप लगाता है कि उन्होंने बैंकों को उबारा जबकि दक्षिणपंथी धड़े का आरोप है कि उन्होंने लीमन ब्रदर्स को बचाने का प्रयास नहीं किया और शिथिल राजकोषीय नीति की सराहना की।
उनके प्रदर्शन की अधिक तार्किक आलोचना यह हो सकती है कि उन्होंने संकट के दौर में जो अपारंपरिक तौर तरीके अपनाए उन्हें वापस लेने में बहुत कठिनाई हुई। एक दशक तक कम रोजगार वृद्धि, बढ़ती असमानता और संकट के बाद बढ़ते कर्ज के स्तर के लिए भी उनको कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसके बावजूद शायद यह 1930 के संकट को लेकर उनकी समझ ही थी जिसके चलते उन्होंने बैंकिंग और वित्तीय तंत्र को बचाने के लिए अतिरिक्त प्रयास किए। शायद पुरस्कार समिति किसी खास कदम के बजाय इसी बात की सराहना करने का प्रयास कर रही है।
डायमंड-डायबविग मॉडल करीब चार दशक पुराना है लेकिन वह इस बात को समझने में केंद्रीय भूमिका निभाता है कि अर्थव्यवस्था में बैंक किस प्रकार भूमिका निभाते हैं, बैंकों के संचालन को किस प्रकार समझा जाना चाहिए और उन्हें कैसे बचाया जाना चाहिए। अनिवार्य तौर पर देखा जाए तो इस मॉडल से यह स्पष्ट हो गया कि बैंकिंग तंत्र में विश्वसनीयता कायम करने का काम उच्चतम स्तर से होना चाहिए न कि खाते बंद करने या निकासी रोकने जैसे कदमों से।
भारतीय नीति निर्माण प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि वित्तीय संकट के दौर में जब एक बड़े निजी बैंक के संचालन को लेकर तमाम तरह की अटकलें थीं तब उसने इस सलाह को अपनाया तथा ऐसे कई कदम उठाए जिनकी मदद से आम जनता के विश्वास को मजबूत करने की कोशिश की गई। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की मजबूती को देखते हुए संदर्भ अलग हो सकता है लेकिन बैंकिंग स्थिरता की बुनियादी महत्ता बरकरार है।
उदाहरण के लिए भारत में किसी एक बैंक का संकट बहुत जल्दी राजकोषीय संकट में बदल सकता है। ऐसे में इन तीनों पुरस्कारों को सुरक्षित और मजबूत बैंकिंग नियमन से लेकर वृहद आर्थिक स्थिरता तक की केंद्रीयता की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
बैंकिंग तंत्र के कामकाज को बचाने की जरूरत और किसी बड़े संकट से निपटने के लिए व्यापक राजकोषीय कदमों की आवश्यकता को साफ तौर पर समझा जा सकता है। यह पुरस्कार एक तरह से इन तीनों विद्वानों के काम को शुक्रिया कहना भी है कि उन्होंने किस प्रकार पारंपरिक बुद्धिमता को आकार दिया।
