‘घेराव’ और ‘हड़ताल’ का विरोध कर बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सही किया है। घेराव जिसमें किसी प्रबंधक को कैद कर रखा जाता है और उसे जीने की बुनियादी सेवाएं तक नहीं मुहैया कराई जाती हैं(यहां तक कि उन्हें शौचालय की सुविधा भी नहीं होती), निश्चित तौर पर अवैध है।
व्यक्तिगत हिंसा और सीधे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाने के बाद भी यह घोर निंदनीय है। कई बार तो घेराव में प्रबंधकों को इतनी अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं कि हृदयाघात से ही उनकी मौत हो जाती है। अब अगर हड़ताल की बात करें तो इससे भी शहर का सामान्य जनजीवन बुरी तरह प्रभावित होता है और अदालत ने तो इसे गैरकानूनी भी घोषित कर दिया है।
शायद यही वजह है कि मार्क्सवादियों ने अब हड़ताल के लिए नया शब्द ढूंढ निकाला है। दोनों ही निंदा के पात्र हैं और अगर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने इस मुद्दे पर कानून को बनाए रखने की बात कही है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पर समस्या यह है कि उन्होंने घेराव और हड़ताल की भर्त्सना करते वक्त यह कहा कि इस बारे में वह जो विचार रख रहे हैं वे उनके व्यक्तिगत हैं।
आम लोगों को तो इस बात से सरोकार है कि वह कैसे इन दोनों गतिविधियों पर रोक लगा सकें। तो ऐसे में उनके निजी विचारों से क्या फायदा होने वाला है, जब तक वह कोई सख्त कदम नहीं उठाते। वहीं मुख्यमंत्री ने इस बार औद्योगिक हड़तालों के विषय में भी अपनी प्रतिक्रिया दी है, पर यहां वह पूरी तरह से गलत हैं। आप मोल तोल करने के लिए कारोबारी संगठनों से हड़ताल करने का हक नहीं छीन सकते।
भारत में 1947 के औद्योगिक विवाद कानून में पहली बार हड़ताल को मंजूरी दी गई, पर इस स्वतंत्रता को उद्योगों तक ही सीमित रखा गया। एक समय था जब अदालत ने विश्वविद्यालयों और अस्पतालों को भी हड़ताल की छूट दे दी थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर नहीं जा सकते।
भारत के साथ समस्या यह है कि यहां काम के लिए उपयुक्त माहौल नहीं है। हड़ताल की वजह से हद से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है। उद्योग जगत में अक्सर सरकारी और आर्थिक नीतियों का विरोध करने की वजह से काम का नुकसान होता है। इनमें भी अगर गौर करें तो सबसे ज्यादा हड़ताल सार्वजनिक क्षेत्र में होती है। अब सवाल यह है कि क्या इन मुद्दों को लेकर हड़ताल करना जायज है।
आखिरी बार किसी गंभीर मुद्दे को लेकर बंबई कपड़ा मिल में 1982 में हड़ताल हुई थी। दत्ता सामंत ने लंबे समय तक मिलों को बंद कराए रखा था और उनमें से कई पर तो हमेशा के लिए ताला लग गया था। मजदूरों ने भी अब यह समझ लिया है कि उनका हित इसी में है कि वे पेशेवर कारोबारी संगठन नेताओं के बदले नियोक्ताओं के साथ रहें।
जब मजदूरों के आर्थिक हित की बात आती है तो कारोबारी संगठनों की ये हड़तालें किसी काम नहीं आती। अगर यह कहें कि हड़ताल अब सामूहिक रूप से अपनी मांगों को रखने का जरिया न रह कर राजनीतिक खेल बन गया है तो यह गलत नहीं होगा।