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  लेख  घी के दीये जलाना छोड़ ओबामा पर रखें नजर
लेख

घी के दीये जलाना छोड़ ओबामा पर रखें नजर

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 7, 2008 9:01 PM IST
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बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति क्या बने, भारत खुशी से नाच उठा। बच्चे उनके कटआउट को चूम रहे हैं, महिलाएं उनकी पत्नी के ड्रेस सेंस पर लट्टू हैं।


कुल मिलाकर कुछ वैसा ही मौसम है, जैसा भगवान राम के राज्याभिषेक के समय अयोध्या में रहा होगा- वैसे तो हम उसकी एनिवर्सरी तो मना ही चुके हैं। और वह दिन दूर नहीं जब दीपावली की बजाय अमावस का वह दिन, फादर्स डे और मदर्स डे की तर्ज पर किंग राम्स डे के नाम से जाना जाने लगेगा।

हां, वैचारिक स्तर पर सभी प्रगतिवादी सोच के लोगों को एक अश्वेत नागरिक का अमेरिका का राष्ट्रपति बनना, मार्टिन लूथर किंग जैसे नेताओं का स्वप्न पूरा होना और विश्व के सबसे शक्तिशाली देश की बागडोर एक ऐसी कौम के हाथों लगना, जो सदियों से पद दलित, तिरस्कृत और उत्पीड़ित थी, कोई छोटी बात नहीं लगती। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ओबामा डेमोक्रेटिक नेता हैं और डेमोक्रेट दल की भारत के  प्रति कृ पादृष्टि कम ही रही है।

एक एक कर इतिहास पर नजर डालिए। अमेरिका में डेमोक्रेट राष्ट्रपति बिल क्लिंटन जैसे लोग भी रहे हैं, जिन्होंने करगिल युध्द के दौरान भारत के प्रति अपनी भूमिका से दिल्ली का दिल जीत लिया। क्लिंटन के कहने पर नवाज शरीफ 7 जुलाई 1999 को उनसे ब्लेयर हाउस में मिले, जहां उन्होंने अमेरिका से वादा किया कि पाकिस्तानी सेना भारत की सीमा को छोड़कर वापस चली जाएगी। (इसी मुद्दे पर परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान पर कब्जा किया- कि नेताओं ने विदेश में पाकिस्तान को बेआबरू कर दिया।)

क्लिंटन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे जो कई दशकों बाद भारत आए। उनके कार्यकाल में भारत-अमेरिका दोस्ती अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची। लेकिन उनके पहले शायद ही कोई डेमोक्रेट राष्ट्रपति था, जो भारत को विशेष प्रेम, आदर या स्नेह की निगाहों से देखता रहा हो।

सच्चाई तो यह है कि डेमोक्रेट शुरू से ही वैचारिक शुध्दता पर विश्वास करते हैं, जबकि रिपब्लिकन बाजार को सर्वव्यापी और सर्वोपरि मानते हैं। वैचारिक निर्मलता को पाने की दुर्गम राह को आसान किया ऐसे दर्जनों थिंक टैंक या बुध्दिजीवी संस्थाओं ने, जिनका चाय पानी डेमोक्रेटिक पार्टी  या उससे संबध्द उद्योगपति देते थे।

इन संस्थाओं का पार्टी पर हावी होने का अर्थ था कि जो मत डेमोक्रेट विचारधारा से मेल नहीं खाते थे या उनकी कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे, उनपर समय व्यर्थ करने की जरूरत नहीं थी। लिंडन जॉनसन (1963-69) और जिमी कार्टर (1977-81) दो ऐसे डेमोक्रेट राष्ट्रपति थे, जिनके कार्यकाल में भारत अमेरिका की तरफ खिंचने के बजाय रूस के आलिंगन में और कसकर बंध गया।

कारण भारत को रूस का मित्र मानकर अमेरिका उनके साथ वही व्यवहार करता था। हालांकि भारत लोकतंत्र था और रूस… पता नहीं क्या था। तो जब लोकतांत्रिक और वाम व्यवस्था के बीच चुनने की बात आती थी तो डेमोक्रेट अपना रवैया वही रखते थे, जो रिपब्लिकन का होता था।

तब यहां लगता था कि अमेरिका में वैचारिक शुध्दता नाममात्र के लिए थी और भीरु और आत्मनिर्भर होना ही भारत के हित में था। उदाहरण के तौर पर जब 1969-75 में भारत में गेहूं की किल्लत हो गई तो अमेरिका में डेमोक्रेट यह अपेक्षा करते थे कि भारत घुटनों के बल रेंगता आएगा भीख मांगने। क्यों भाई? आखिर ऐसा क्यों करेगा भारत?

लेकिन डेमोक्रेट दल को अपनी धारणाएं बदलनी पड़ीं, क्योंकि सोवियत संघ बंट गया और खाड़ी देशों से दबाव आने लगा। भारत ने बदलना शुरू किया 1989 से और चंद्रशेखर सरकार ने जब खाड़ी युध्द के दौरान अमेरिकी हवाई जहाजों को भारतीय हवाई अड्डों पर तेल भरने की अनुमति दे दी। तब भारत अमेरिका रिश्तों का पूरा परिवेश बदल गया। धीरे-धीरे नरसिंह राव के कार्यकाल में दोनो सरकारों की दूरियां पटती रहीं और अंतत: क्लिंटन की भारत यात्रा एक अभूतपूर्व कूटनीतिक उपलब्धि के रूप में देखी गई।

अब अंतरराष्ट्रीय वातावरण कुछ ऐसा है कि भारत की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। लेकिन उसे परेशान करने के कई तरीके हैं। यदि अल्पसंख्यकों पर उसी तरह हमले होते रहे जैसे हमने कंधमाल और गुजरात में देखे हैं, तो डेमोक्रेट इसकी भर्त्सना करने से हिचकिचाएंगे नहीं। लेकिन यह साधुवाद वहां लागू नहीं होगा, जहां अमेरिकी हितों को कोई खतरा हो।

उधर नाभिकीय अस्त्रों पर भी वैचारिक विरोधाभास है, जो डेमोक्रेट के सामूहिक चेतन मन में उभरता ही नहीं। ओबामा वही ओबामा हैं, जिन्होंने भारत अमेरिका असैन्य आणविक करार की कड़ी आलोचना की थी और ‘किलर अमेंडमेंट’ (जिनके चलते करार दबकर मर जाता) जारी किए थे।

यही नहीं, डेमोक्रेट विचारधारा यह मानती है कि दुनिया के सभी उत्पीड़ित लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने का दायित्व उनका है। वे यह भी मानते हैं कि कश्मीर में भारतीयों का उत्पीड़न हो रहा है, सेना के हाथों। जब पाकिस्तान बार बार कह रहा है कि कश्मीरियों की लड़ाई हक की लड़ाई है और यदि कश्मीर उन्हें मिल गया तो अफगानिस्तान भी तालिबान से मुक्त हो जाएगा, तो क्या गलत कह रहा है।

यह एक बहुत ही खतरनाक धारणा है। और एक बखेड़े से मुक्ति पाने के लिए दूसरा खड़ा करना किसी के हित में नहीं है, यह अमेरिका को समझना बहुत जरूरी है। जब कश्मीर की बात होती है तो विश्व के उस समूह की बात होती है जो भारत में सबसे ज्यादा संख्या में है। और एक ऐसे देश की बात होती है जो धर्म के आधार पर बना है। तो कश्मीर में हस्तक्षेप करके, अमेरिका किस सिध्दांत को सर्वोपरि मानेगा?

लेकिन नए मुल्ले सबसे खतरनाक होते हैं। घी के दीये जलाने के बजाय भारत के हित में है कि वह अमेरिका के नए राष्ट्रपति पर पैनी निगाह रखे।

insteas keep him under scannerstop favouring obama
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