आर्थिक मंदी की खबरों के बीच पिछले सप्ताह एक छोटी सी खबर आई, लेकिन उसने पेंशनभोगियों और कानून से जुड़े लोगों को खुश कर दिया।
आप शायद ही इस बात पर यकीन करेंगे कि कर्मचारी भविष्य निधि अपील न्यायाधिकरण अब तक अम्बेसडर कार से अपना काम करता था। अब उसे राजधानी में एक पक्की बिल्डिंग मिल गई है। इस शीर्ष राष्ट्रीय निकाय की हालत से इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि बजट में सरकारें न्यायपालिका की कितनी उपेक्षा करती हैं।
ठीक उसी दिन सर्वोच्च न्यायालय, सेलम एडवोकेट्स बार एसोसिएशन बनाम यूनियन आफ इंडिया मामले में न्यायपालिका के लिए और अधिक फंड दिए जाने के आग्रह को लेकर दाखिल की गई याचिका पर सुनवाई कर रहा था।इस मामले की सुनवाई 6 साल से चल रही थी। इतने लंबे समय से चली आ रही सुनवाई का नतीजा यह निकला कि इस दौरानं 2 रिपोटर् सामने आईं। इसका मसौदा सर्वोच्च न्यायालय के एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश और कानून के कुछ प्रतिष्ठित जानकारों ने तैयार किया था।
उन्होंने कुछ अनूठी सिफारिशें प्रस्तुत कीं। इनसे न्यायिक क्षेत्र की कार्यप्रणाली में नई क्रांति आ सकती थी। इस समय न्यायालयों के लिए बजट प्रस्ताव उदासीन तरीके से तैयार किए जाते हैं, तथा केंद्र और राज्यों में बजट निर्माता भी उन्हें बहुत हल्के ढंग से लेते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि न्यायपालिका के लिए नवीं, दसवीं और ग्यारहवीं योजना में बजट आबंटन कुल योजना परिव्यय का क्रमश: 0.071 प्रतिशत, 0..078 प्रतिशत और 0.07 प्रतिशत रहा।
इसका परिणाम यह हुआ कि लंबित मामलों में 3 करोड़ मामले जुड़ गए और न्यायाधिकरण अंबेसडर कारों या पुराने राजा-महाराजाओं के जीर्ण-शीर्ण ढांचों से काम करने लगे। विकसित देशों में जहां 10 लाख की जनसंख्या पर 100 से 150 न्यायालय हैं, उसकी तुलना में भारत में यह संख्या करीब 14 ठहरती है। यह बहुत ही भद्दी और बेतुकी स्थिति है, खासकर ऐसी हालत में जब देश में कानूनों का भंडार है और जहां कानून निर्माता हर एक सामाजिक या आर्थिक संकट पर एक नया कानून तैयार कर देते हैं।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय और कानून मंत्रालय को सौंपी गई एक रिपोर्ट में इन सभी स्थितियों में परिवर्तन की उम्मीद की गई है। उनमें से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिफारिश यह है कि किसी भी नए विधेयक को संसद या राज्य की विधायिका में पेश किए जाने से पहले न्यायिक प्रभाव का आकलन किए जाने की जरूरत है।
मान्यतया बिल पेश करते समय उसमें नए कानून को लागू करने से होने वाले अनुमानित खर्च से संबंधित वित्तीय ज्ञापन ही होता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायिक प्रभाव का आकलन निश्चित रूप से किया जाना चाहिए। इसकी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए कि नए कानून के लागू होने से न्यायालयों पर कितना अतिरिक्त भार बढ़ेगा।
इस अतिरिक्त कानून के माध्यम से कानूनी समाधान दिए जाने का खर्च का आकलन सरकार को जरूर करना चाहिए और उसके लिए उचित बजट का प्रावधान करना चाहिए। यह काम राज्य और केंद्र दोनो सरकारों को करना चाहिए। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो किसी भी विकसित लोकतांत्रिक देश में लागू है।
संविधान की समवर्ती सूची के कानून 11-ए में इसे अनिवार्य बताया गया है कि अतिरिक्त मामलों के वित्तीय भार को केंद्र सरकार को वहन करना होगा, जो भार नए कानून बनाने से अधीनस्थ न्यायालयों पर पड़ता है। बहरहाल व्यावहारिक रूप से राज्य सरकारों को भी इस वित्तीय बोझ में हिस्सेदारी करने का काम सौंपा गया है।
करीब 340 केंद्रीय कानून संघीय सूची और समवर्ती सूची में शामिल हैं। ये कानून अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा संचालित होते हैं, जिसके लिए वित्त का प्रबंधन राज्य सरकारें करती हैं। इसका दायित्व योजना आयोग और वित्त आयोग का होता है कि वे भारत के मुख्य न्यायधीश से राय लेकर उचित प्रावधान करें, जिससे न्याय पाने के उदात्त आदर्शों और त्वरित न्याय के लक्ष्य को हासिल किया जा सके।
न्यायपालिका को भी निश्चित रूप से आंकड़े तैयार करने को सीखना चाहिए, जिससे वे फंड के बारे में सवाल कर सकें। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी लंबित मामलों और उनके निपटान की दरों के आंकड़े का खुलासा करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की थी।
जहां स्वास्थ्य और शिक्षा से संबंधित आंकड़े आसानी से उपलब्ध हैं, वहीं न्याय संबंधी आंकड़े अभी भी अंधेरे में हैं और वे न्यायालय के रजिस्टरों में पड़े हुए हैं। कानूनों के बढ़ने और नए कानूनों के आने से लंबित मामलों के सांख्यिकीय आंकड़े न होने की वजह से न्यायपालिका और उसके समर्थक भी इस बात का दबाव नहीं डाल सकते कि इसके निपटारे के लिए अतिरिक्त आवंटन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
उच्च न्यायालय भी इन तकनीकों के मामले में बहुत कमजोर हैं। यही कारण है कि अप्रैल में आयोजित मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में कहा गया कि वे बजट का अनुमान तैयार करने के लिए बाहर के जानकार पेशेवरों की मदद लें।
इस क्षेत्र में विशेषज्ञता की कमी और आंकड़ों की गैरमौजूदगी की वजह से फंडों की मांग निरस्त कर दी जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि अधीनस्थ न्यायालयों में आधारभूत ढांचे और प्रदर्शन में कमी आती है। नागरिकों का सामना सबसे पहले इन्हीं अधीनस्थ न्यायालयों से होता है।
इस रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि दिल्ली में एक ‘जुडीशियल इंपैक्ट ऑफिस’ बनाया जाना चाहिए जो हर एक नए संसदीय कानून के आने पर पड़ने वाले खर्च का लेखा जोखा तैयार करे। इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय में कार्यरत न्यायाधीश को करनी चाहिए। इस तरह की संस्थाएं राज्यों में भी बनाई जानी चाहिए। इसमें कानून के जानकार, सांख्यिकीविद और वित्त के जानकार शामिल होने चाहिए।
राज्य सरकारों को इन संस्तुतियों का समर्थन करना चाहिए क्योंकि वित्तीय भार केंद्र और राज्य दोनो सरकारों पर लगभग बराबर आएगा, लेकिन वे इस रिपोर्ट को पढ़ने में पर्याप्त उत्साह नहीं दिखा रही हैं। वास्तव में उनमें से बहुत कम ने सर्वोच्च न्यायालय से रिपोर्ट की प्रति ली है। इस तरह से जो मामला 2002 से चल रहा है, इस तंत्र का प्रदर्शन मात्र बनकर रह जा रहा है और इस मामले में स्थगन पर स्थगन हो रहा है।