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  लेख  मूल सिध्दांतों की वापसी की ओर बढ़ते कदम
लेख

मूल सिध्दांतों की वापसी की ओर बढ़ते कदम

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 17, 2008 1:47 AM IST
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शनिवार को समाप्त हुई जी-20 समूह की बैठक के बाद जो दस्तावेज जारी किया गया उससे सदस्य देशों की इस मंशा का आभास मिलता है कि वर्तमान संकट के कारणों से निपटने तथा ज्यादा नियमन के साथ व्यवस्था में परिवर्तन किए जाने में संतुलन स्थापित करने की जरूरत है।


समूह ने जिन कदमों का उल्लेख किया है वे पांच सिध्दांतों पर आधारित हैं जिसे ज्यादातर लोग मानेंगे कि ये अपवाद नहीं हैं। समूह विवशताओं की उस हकीकत के प्रति बहुत सचेत है, जिस जटिल पहल पर काम किया जाना है। ये सिफारिशें मामूली बदलावों के लिए हैं, जो संकट के सीमित समय के लिए की गई है।

यह समूह और इसके बाहर के देशों जिन्हें उसने हाल के सप्ताहों में सक्रिय किया है, के लिए इस मायने में एक आशावादी माहौल तैयार करता है, कि इन देशों में जो तमाम मौद्रिक और राजकोषीय कदम उठाए गए हैं, उनसे गिरावट का दौर रुकेगा और अगले साल तक मंदी की भरपाई हो सकेगी।

अगर इस सुधार योजना कारगर हो जाती है, तो खासकर बहुपक्षीय समन्वय से संबद्ध सुधारों के प्रति वचनबद्धता अंतत: कमजोर पड़ जाएगी। दस्तावेज में इस संभावना को अस्पष्ट रूप से स्कीकार करने के साथ साथ अगले छह महीने में किए जाने वाले कामों की प्राथमिकता बताई गई है जो इनमें से हरेक सिध्दांत से जुड़े हुए हैं।

दस्तावेज में मध्यावधि के लिए एक एजेंडा का भी उल्लेख किया गया है, जो इस बात पर निर्भर करेगा कि प्राथमिकता के तौर पर कितना काम हुआ है। पहले तीन सिध्दांतों में वित्तीय नियमन के मूल सिध्दांतों को दोहराया गया है। अत्यधिक पारदर्शिता, विवेकशीलता और सत्यनिष्ठा ऐसे उद्देश्य हैं जिनके लिए वित्तीय तंत्र को प्रयास करने चाहिए। इसका संकट से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए।

दस्तावेज में इन उद्देश्यों का उल्लेख करने और इसके साथ कार्ययोजना की प्राथमिकताएं तय करने से संकेत मिलता है कि वर्तमान कदम अपर्याप्त और दिशाहीन थे। अगर ऐसा है तो दस्तावेज से स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव का पता चलता है। इसमें जो संस्तुतियां की गई हैं उससे कम से कम दो मोर्चों पर सुधार की गुंजाइश नजर आती है।

पहला यह है कि सभी तरह के वित्तीय इंस्ट्रूमेंटों और सौदों के लिए  अकाउंटिंग के सिध्दांतों और मानकों के मानकीकरण और उनमें सुधार करने की मंशा जाहिर की गई है। दरअसल इनकी वर्तमान वित्तीय संकट में अहम भूमिका रही थी।

यह कहना कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी होगा कि समझौता छह महीने में ही हो जाएगा, लेकिन अगर इतना ही हो जाए कि बाहर के विश्लेषक इन परिसंपत्तियों का वाजिब आकलन कर सकें और विभिन्न देशों के वित्तीय संस्थानों में तुलना कर सकें तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। 

वास्तविक अर्थव्यवस्था में वित्तीय अपारदर्शिता की सबसे बड़ी वजह यह है कि हर कोई अपने को सुरक्षित स्थिति में रखना चाहता है, जब वह किसी दूसरे सहयोगी से कोई डील करता है। विश्वसनीय और मानकीकृत खुलासों का महत्त्व आज की स्थिति में उभरकर सामने आया है।

दूसरी बात यह है कि मध्यावधि में जोखिम प्रबंधन प्रणाली में मजबूती का आह्वान किया गया है। साथ ही तरलता की जरूरतें पूरी करने और जोखिम का आकलन करने तथा वित्तीय संस्थानों में क्षतिपूर्ति फॉर्मूले को नये सिरे से तय करने पर भी बल दिया गया है ताकि वे बहुत ज्यादा जोखिम लेने के लिए उत्साहित न हो सकें।

इस बात को लेकर हमेशा भ्रम की स्थिति रहती है कि जोखिम प्रबंधन करते समय अधिक से अधिक ध्यान बरता जाए क्योंकि प्रत्यक्ष कारोबार के समय लाभ ही ज्यादा प्रभावी होता है। यह भी बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं है वर्तमान मानक में से ज्यादातर अपर्याप्त हैं।

यह भी देखना जरूरी है कि जोखिम प्रबंधन के सभी तरीके समग्र रूप से और जितनी जानकारी में हैं, जितने मजबूत हैं उतनी ही उनमें कमजोरियां भी हैं। इस समय की जरूरत है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि इसमें शामिल सभी तत्वों में स्थायित्व लाया जाए, जिससे सामूहिक रूप से प्रभावी तरीके से काम किया जा सके और कोई भी व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न हो। यह कोशिश करने और गलतियां करने जैसा होगा, लेकिन कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी।

अंतिम दो सिध्दांत थोडे और कठिन हो सकते हैं, जिससे कि बेहतरीन परिणाम आ सकें। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग और समन्वय की जरूरत महसूस की गई है। यह आदर्श रूप और क्रियान्वयन, दोनों स्तरों पर होना चाहिए, जो राष्ट्रीय वित्तीय तंत्र से गहराई से जुड़ा हुआ हो। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं को बहुराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाना चाहिए, यहां केवल सवाय यही है कि इस पर अलग अलग ढंग से काम किया जाए या मिल-जुल कर।

लेकिन जैसा कि हमने अन्य बहुपक्षीय मसलों में देखा है, समन्वय के बारे में बात करना तो आसान है, लेकिन अमल करना कठिन। इस समय विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को देखें तो उनके वित्तीय तंत्र, अन्य अर्थव्यवस्थाओं से जुड़े होने की मात्रा और और उनकी नियामक क्षमता अलग अलग है। दूसरे वित्तीय व्यवस्थाओं उनके द्वारा प्रयुक्त तौर तरीकों और और विकास के एजेंडे और वित्तीय नियमन के परम्परागत तरीकों में भी अंतर है।

इसके साथ ही महत्त्वपूर्ण यह भी है कि दोहा दौर में आए निष्कर्ष, जिसमें बहुआयामी व्यापार और बातचीत को जारी रखने की इच्छा को भी इस मसौदे में शामिल किया गया है। इसमें व्यापार के स्तर पर किसी भी संरक्षणात्मक कदमों को खारिज किया गया है, जबकि दुनिया की अर्थव्यवस्था संकट के समय में अपने ढंग से काम करती है। लेकिन व्यापार संबंधित बातचीत में सार्वभौमिक हितों और सामूहिक लक्ष्यों को लेकर विरोधाभास है। वहीं नियमन के स्तर पर भी समन्वय की व्यवस्था की संरचना पर भी तनाव की स्थिति है।

अंतिम सिध्दांत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं को लेकर है, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। ये अतिरिक्त संसाधन और नियमन के विभिन्न ढांचे भी तैयार करने में मदद करेंगी। इसमें तभी से ही आर्थिक गतिविधियों में भिन्नता नजर आती है, जब वे छह दशक पहले गठित की गईं थीं।

यहां पर भी सिध्दांत को लेकर कोई मतभेद नहीं है, शक्तिशाली उभरती अर्थव्यवस्थाएं इन संस्थाओं में अपनी बड़ी भूमिका की ओर देख रही हैं। यह दो कारणों से बहुत ही दयनीय लगता है। पहला, समस्या के लिए डिजाइन किया गया और लागू किया गया सामूहिक समाधान, व्यक्तिगत समाधान से ज्यादा प्रभावी होगा।

दूसरे, खासकर विश्व बैंक के परिप्रेक्ष्य में देखें तो निजी पूंजी प्रवाह में मंदी का दौर है, जो इस संस्था से ज्यादा जुड़ा मामला नहीं है, वह तमाम परियोजनाओं- खासकर बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं को उभरती अर्थव्यवस्थाओं में लागू करने में भूमिका निभा सकता है।

कुल मिलाकर जी-20 के मसौदे में सामूहिक रूप से यह विश्वास जाहिर किया गया है कि प्रभावी वित्तीय नियमन के मूल सिध्दांतों को कायम रखा जाना चाहिए। कार्यान्वयन किस तरीके से किया जा रहा है, तेजी से बदल रहे बाजारों के अनुरूप किस तरह से खुद को ढाला जाए , इससे ही अच्छा और खराब नियमन तय होता है।

इसमें यही उभरकर सामने आता है कि भारी बदलाव के बजाय मूल सिध्दांतों की ओर वापस जाने की जरूरत महसूस की गई है। इससे कुछ लोगों को निराशा हो सकती है, लेकिन उन लोगों की चिंता भी दूर होती है जो जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया को लेकर खासे चिंतित हैं। वैसे आने वाला समय ही बताएगा कि इसमें की गई सिफारिशें बहुत कम हैं या पर्याप्त हैं।
(लेखक स्टैंडर्ड ऐंड पूअर्स एशिया पैसिफिक के मुख्य अर्थशास्त्री हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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