इस वर्ष जनवरी तक भारत में ऊर्जा पर परिचर्चा के दौरान हाइड्रोजन का खास जिक्र नहीं होता था। मगर फरवरी में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट भाषण के बाद ऊर्जा के स्रोत के रूप में हाइड्रोजन पर काफी चर्चा होने लगी है। बजट भाषण में वित्त मंत्री ने ‘हाइड्रोजन मिशन’ के लिए 800 करोड़ रुपये के कोष का प्रावधान करने की घोषणा की थी।
जून में रिलायंस इंडस्ट्रीज की सालाना आम बैठक में मुकेश अंबानी ने कहा था कि उनका समूह अपनी ऊर्जा नीति की दिशा में पहल करते हुए हाइड्रोजन पर बड़ा दांव खेलेगा और हरित (ग्रीन) हाइड्रोजन का उत्पादन करने के लिए फ्यूल सेल और विद्युत अपघटन संयंत्र (इलेक्ट्रोलाइजर फैक्टरी) की स्थापना करेगा। इन दोनों घोषणाओं से बाजार हाइड्रोजन को लेकर अचानक उत्साहित हो गया। प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से कहा, ‘अब भविष्य ग्रीन हाइड्रोजन का है। मैं आज ‘राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन’ की स्थापना की घोषणा करता हूं। हमें हाइड्रोजन उत्पादन एवं इसके निर्यात के लिए भारत को वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा।’ सितंबर मध्य में अदाणी समूह ने दुनिया की सबसे बड़ा हरित हाइड्रोजन परियोजना स्थापित करने की घोषणा कर डाली। इंडियन ऑयल ने मथुरा रिफाइनरी में देश का पहला हाइड्रोजन संयंत्र स्थापित करने की बात कही। एनटीपीसी ने भी लद्दाख में हरित हाइड्रोजन ईंधन स्टेशन स्थापित करने की योजना का खुलासा किया।
वायुमंडल में हाइड्रोजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है मगर वायु से हल्का होने के कारण एक गैस के रूप में इसका इस्तेमाल नहीं हो सकता है। इसे पहले जल जैसे दूसरे यौगिकों से अलग करना पड़ता है। यह प्रक्रिया पूरी करने के दो तरीके हैं जिनमें एक प्रक्रिया स्टीम मीथेन रिफॉर्मिंग (एसएमआर) और दूसरी विद्युत अपघटन (इलेक्ट्रोलिसिस) है। विद्युत अपघटन में बिजली की अधिक खपत होती है। एक किलोग्राम हाइड्रोजन पैदा करने के लिए करीब 50 यूनिट बिजली की जरूरत होती है। इसमें पूरे संयंत्र को चलाने और भंडारण एवं परिवहन पर आने वाली बिजली खपत इसमें शामिल नहीं है। अगर हाइड्रोजन पैदा करने के लिए बिजली का उत्पादन जीवाश्म ईंधन के जरिये होता है तो इसमें फिर नई बात क्या है? जब जरूरी बिजली की मात्रा का उत्पादन अक्षय ऊर्जा स्रोतों से किया जाता है तो इसे ग्रीन हाइड्रोजन कहते हैं। इसमें सह-उत्पाद जल होता है और इस तरह पूरी प्रक्रिया वातावरण के अनुकूल ईंधन की मदद से संपन्न होती है। लिहाजा हाइड्रोजन गैस के कई रूप होते हैं जो इसकी उत्पादन विधि पर निर्भर करते हैं। अगर इसका उत्पादन जीवाश्म ईंधन के जरिये होता है तो इसे ‘ग्रे हाइड्रोजन’ कहा जाता है जबकि जीवाश्म ईंधन के साथ मगर कार्बन कैप्चर तकनीक (वायुमंडल में कार्बनडाईऑक्साइड गैस प्रसारित होने से रोकने की प्रक्रिया) के साथ उत्पादन होता है तो इसे ‘ब्लू हाइड्रोजन’ कहा जाता है। नाभिकीय ऊर्जा का इस्तेमाल कर जब हाइड्रोजन उत्पादन होता है तो उसे ‘पिंक हाइड्रोजन’ कहते हैं।
इसी तरह, उत्पादन के आधार पर हाइड्रोजन को ब्राउन, ब्लैक, टरक्वाइज और पीला हाइड्रोजन आदि श्रेणियों में बांटा जा सकता है। ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन सभी दृष्टिकोण से उचित है मगर इस राह में उत्पादन लागत और परिवहन खर्च दो प्रमुख चुनौतियां हैं। जीवाश्म ईंधन से ग्रे हाइड्रोजन उत्पादन पर 1 से 2 डॉलर खर्च आता है, जबकि ग्रीन हाइड्रोजन की उत्पादन लागत 4 से 6 डॉलर प्रति किलोग्राम है। ऐसा अनुमान है कि ग्रीन हाइड्रोजन 2030 तक ईंधन आधारित हाइड्रोजन के विकल्प के रूप में तैयार हो जाएगा। अंबानी ने सालाना आम बैठक में उम्मीद जताई थी कि एक दशक में ग्रीन हाइड्रोजन की लागत कम होकर 1 डॉलर प्रति किलोग्राम रह जाएगी। परिवहन में हाइड्रोजन के इस्तेमाल के विकल्प पर गंभीरतापूर्वक विचार किए जाने की जरूरत है क्योंकि इसमें भी काफी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बिजली को हाइड्रोजन में तब्दील करने के बाद इसके परिवहन, भंडारण और फिर इसे बिजली में बदलने के बाद शेष बची ऊर्जा शुरुआती बिजली उत्पादन का 30 प्रतिशत से भी कम रह जाएगी। कुल मिलाकर यहां मुद्दा यह है कि हरित हाइड्रोजन के तेजी से उत्पादन के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन की जरूरत होगी।
हाइड्रोजन का इस्तेमाल उद्योग, परिवहन और बिजली से जुड़े कार्यों मेंं होगा। परिवहन के झमेले से बचने के लिए कुल उत्पादन में करीब 85 प्रतिशत हरित हाइड्रोजन का इस्तेमाल तत्काल स्थानीय स्तर पर ही हो जाता है। औद्योगिक क्षेत्र में धातु, अमोनिया और रिफाइनरियों में इस गैस का इस्तेमाल होता है। हाइड्रोजन की लागत तेजी से कम करना एक सराहनीय राष्ट्रीय लक्ष्य है और सरकार को भी इसमें मदद के लिए आगे आना चाहिए। सरकार उर्वरक, धातु और पेट्रोलियम परिष्करण में ग्रीन हाइड्रोजन कंजम्पशन ऑब्लिगेशन लागू करना चाहती है और यह ठीक उसी तरह होगा जैसे रीन्यूएबल पर्चेज ऑब्लिगेशन (आरपीओ) के मामले में हुआ था। शुरू में यह 10 प्रतिशत के स्तर पर शुरू हो सकता है और बाद के वर्षों में बढ़ाकर 20-25 प्रतिशत तक किया जा सकता है। भारी परिवहन में ग्रीन हाइड्रोजन के लिए मदद के रूप में अतिरिक्त रकम मुहैया करने पर विचार हो रहा है और संभवत: इसके उत्पादन के लिए उत्पादन संबद्ध योजना (पीएलआई) भी शुरू की जा सकती है। मसौदा बिजली नियम, 2021 में आरपीओ की आश्यकता पूरी करने के लिए ग्रीन हाइड्रोजन की खरीदारी की अनुमति दी गई है। भारत हाइड्रोजन का महत्त्व और इसके अधिक से अधिक उपयोग की दिशा में समय रहते पहल कर चुका है। दुनिया में सालाना 12 करोड़ टन हाइड्रोजन उत्पादन होता है और इसमें केवल 1 प्रतिशत ही ग्रीन होता है। भारत में इस समय हाइड्रोजन की मांग करीब 60 लाख टन है। शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए इसमें 10 गुना बढ़ोतरी की जरूरत है। उद्योग, बिजली और परिवहन में यह क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है और कार्बन युक्त ईंधन पर निर्भरता कम करने के लक्ष्य में भी मददगार साबित होगा।
