कोविड-19 के प्रसार को थामने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में दोबारा लॉकडाउन लगाने का आर्थिक गतिविधियों के सामान्य होने पर बुरा असर होगा और इससे अनिश्चितता बढ़ेगी। चरणबद्ध सुधार प्रक्रिया कर्जदारों की कर्ज चुकाने की क्षमता को निश्चित तौर पर प्रभावित करेगी। इसके परिणामस्वरूप आने वाली तिमाहियों में बैंकिंग क्षेत्र का फंसा हुआ कर्ज (एनपीए) बढ़ेगा। जनवरी से मार्च तिमाही के वित्तीय नतीजों के अनुसार बैंकिंग क्षेत्र की हालत कुछ हद तक सुधरी है। परंतु इसके बावजूद सरकारी बैंकों में तनाव देखने को मिल रहा था। उदाहरण के लिए सरकारी बैंकों ने बतौर समूह गत तिमाही में फंसे कर्ज से निपटने के लिए 50,000 करोड़ रुपये की राशि की प्रोविजनिंग की और उन्हें 7,700 करोड़ रुपये का शुद्ध नुकसान हुआ। निजी क्षेत्र के बैंकों ने इस तिमाही में 32,000 करोड़ रुपये की प्रोविजनिंग की जो दिसंबर तिमाही से कम थी। उन्होंने 12,000 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा भी कमाया। अधिकांश सरकारी बैंकों का सकल एनपीए दो अंकों में था। चूंकि आने वाली तिमाहियों में परिसंपत्ति गुणवत्ता पर और असर पडऩे की आशंका है इसलिए बैंकों को अतिरिक्त पूंजी जुटानी होगी ताकि वे किसी तरह के झटके से बच सकें। खासतौर पर उस समय जब ऋण स्थगन की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी।
हालांकि इस मुद्दे से निपटने के निजी और सरकारी बैंकों के तरीकों में स्पष्ट अंतर है। निजी बैंक जहां पूंजी जुटाने में व्यस्त हैं, वहीं सरकारी बैंक पिछड़ रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह राजकोषीय बाधा और सरकार द्वारा इन बैंकों को बजट से पूंजी नहीं उपलब्ध करा पाना है। सरकार के पास पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड का विकल्प है। उनसे राजकोषीय घाटा नहीं बढ़ेगा लेकिन कुल कर्ज में इजाफा होगा। चूंकि आने वाली तिमाहियों में बहुत अधिक पूंजी की आवश्यकता होगी इसलिए यह देखना होगा कि सरकार इन बैंकों में कितनी अधिक पूंजी डालती है। परंतु सरकार के पास बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं। इसके अलावा समावेशन से भी काम नहीं बनने वाला। विलय में दिक्कत है क्योंकि बैंक अगले कुछ वर्षों तक आंतरिक विलय की समस्या में उलझे रहेंगे और ऋण बाजार में स्थिति खराब होगी। मौजूदा हालात में सरकार इन बैंकों का निजीकरण भी नहीं कर सकती। राजनीतिक विरोध के अलावा निजीकरण इसलिए भी कम होगा क्योंकि मूल्यांकन कम होगा और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाएगा। औसतन देखें तो सरकारी बैंक अपने सकल मूल्य के 0.6 गुना पर कारोबार कर रहे हैं। सरकारी बैंकों के ज्यादा खरीदार भी शायद ही हों।
इसके अलावा इस बात पर भी नए सिरे से चर्चा हो रही है कि औद्योगिक घरानों को बैंकों का स्वामित्व प्रदान किया जाए। ऐसा करने से बचना चाहिए। औद्योगिक और वित्तीय पूंजी का विलय बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। देश में कारोबारी संचालन के मानकों को देखते हुए इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। ऐसे में सरकार के पास सरकारी बैंकों के लिए बहुत अधिक उपाय नजर नहीं आ रहे हैं। हालांकि महामारी के कारण आगामी तिमाहियों में दिक्कतें बढऩे वाली हैं लेकिन सरकारी बैंकों की समस्याएं अधिक बुनियादी और काफी हद तक सरकार की पैदा की हुई हैं। सरकार ने कभी जरूरी सुधारों को बढ़ावा नहीं दिया ताकि उनकी परिचालन क्षमता सुधर सके। इसके परिणामस्वरूप सरकारी बैंकों का प्रदर्शन कमजोर बना हुआ है और उनकी हिस्सेदारी तेजी से निजी बैंकों के पास जा रही है। चूंकि अभी भी सरकारी बैंकों का दबदबा है इसलिए उनकी बैलेंस शीट का तनाव अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को ऋण की उपलब्धता पर असर डालेगा। इसका असर महामारी के झटके से निपटने की कोशिशों पर भी होगा।
