भारत के अकेले वामपंथी स्पीकर सोमनाथ चटर्जी का कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही संसदीय इतिहास के एक युग की समाप्ति हो गई है।
सोमनाथ दादा स्पीकर के पद के साथ वो विरासत भी छोड़ गये हैं जो पिछले 39 सालों की रात-दिन की राजनैतिक मेहनत के दौरान उन्होंने हासिल की। संसदीय इतिहास में उनके साथ यह विचित्र बात जुड़ी हुई है कि वे स्पीकर रहते हुए अपनी ही पार्टी सीपीआई (एम)से निष्कासन का दंश झेल चुके हैं।
पार्टी का कहना था कि भले ही चटर्जी स्पीकर हैं, लेकिन उन्हें पार्टी के नियम कायदों के प्रति पूरी आस्था रखनी होगी। स्पीकर रहते हुए चटर्जी ने कई बार सीपीआई (एम) के नियमों को तोड़ा और तयशुदा तौर पर उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
अब जब उनका निर्वाचन क्षेत्र बोलपुर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गया है, भविष्य में उनके इस क्षेत्र से सीपीआई (एम) के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने की संभावना भी समाप्त हो गई है। खास बात यह है कि स्पीकर रहते हुए चटर्जी का कार्यकाल अच्छे-बुरे, दोनों तरह के अनुभवों से भरा हुआ रहा है।
जब उनके कार्यकाल का केवल एक वर्ष ही बचा था तब उन्होंने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए सदन का अनुशासन भंग करने के चलते 32 लोकसभा सांसदों के नाम संसद की विशेषाधिकार समिति को सौंप दिए थे। इन 32 सांसदों में से एक विशेषाधिकार समिति का सदस्य भी था।
इन 32 सांसदों में से ज्यादातर भाजपा के थे। इस पर भाजपा सांसदों ने उन्हें चुन-चुन कर निशाना बनाने का आरोप लगाते हुए सोमनाथ के खिलाफ अभियान भी चलाया था। लेकिन वे लोग इस बात को उस समय भूल गये थे कि यह वही स्पीकर है जिसने सुषमा स्वराज को सर्वश्रेष्ठ सांसद घोषित किया था।
साथ ही एक समय ऐसा भी आया था जब सोमनाथ ने अनुशासन भंग (कोलकाता में सामुद्रिक विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर पारित होने वाले बिल पर, जिसे बाद में चेन्नई में ले जाया गया ) होने के कारण अपनी पार्टी सीपीआई (एम)को भी नहीं बख्शा था।
उन्होंने सीपीआई (एम) से इस संदर्भ में माफीनामा देने की बात कही थी। हुआ यह था कि टी आर बालू मेरिटाइम विश्वविद्यालय से संबधित बिल सदन के सामने रख रहे थे।
लेकिन सीपीआई एम के सांसदों ने इस बिल का विरोध करते हुए सदन में जोरदार हो-हल्ला मचाया था। एक सांसद ने तो बालू से बिल से संबधित कागजातों को छीनने की कोशिश भी की थी।
सोमनाथ ने इस घटना पर तुंरत कार्यवाही करते हुए सीपीआई (एम)के नेता वासुदेव भट्टाचार्या को सबसे माफीनामा देने वरना गंभीर परिणामों को भुगतने की चेतावनी दी थी।
इसके अगले ही दिन सीपीआई एम ने माफीनामा दे दिया था। सोमनाथ ने अपने कार्यकाल में रहते हुए सदन को भंग होने से बचाने के लिए वे सभी प्रयास किये जो वे कर सक ते थे। लेकिन 24 मई को कुछ ऐसा हुआ जो संसदीय इतिहास में स्वर्णअक्षरों में अंकित हो गया।
लोकसभा के नियमों के मुताबिक सांसदों को सदन में अपनी मांगों को लेकर नारेबाजी करने की मनाही है। यह नियम सभी सांसदों की जानकारी में रहता है और इस संदर्भ में पहली चेतावनी सत्र के दौरान स्पीकर महोदय ने 15 अप्रैल को दी भी थी। इस घटना को पूरी तरह से जानने के लिए अब हमें थोड़ा और पीछे जाना होगा।
गौरतलब है कि बजट सत्र के दौरान आर्थिक मुद्दों पर बहस के लिए अलग से विचार या बहस करने का प्रावधान नहीं है। लेकिन जब सीपीआई एम के सांसदों ने सत्रावसान के चलते पिछले साल से लटके बढ़ती कीमतों के मुद्दे पर बहस करनी चाहिए तो स्पीकर महोदय ने उन्हें छोटी अवधि में बहस को पूरा करने की अनुमति दे दी।
वैसे तो बहस में सभी दलों के सांसद भाग लेते हैं, लेकिन ऐसा होने पर भाजपा सांसदों ने इस बहस में किसी तरह की रुचि नहीं दिखाई। यही नहीं बहस के दौरान भाजपा सांसद नारेबाजी करते हुए सदन के बीचोबीच आ गए।
ऐसे में सदन की कार्यवाही अगले दिन तक के लिए स्थगित करना पड़ी। अगले दिन भाजपा सांसदों ने बहस में हिस्सा तो लिया लेकिन उनकी उपस्थित सामान्य स्तर से काफी कम थी।
जब कृषि मंत्री शरद पवार शाम को 7 बजे सवालों का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो सदन में भाजपा के दर्जन भर सांसद ही उपस्थित थे। उन्होंने भी कृषि मंत्री से किसी तरह का न तो जवाब-तलब किया और न ही किसी जवाब का स्पष्टीकरण मांगा।
इसके बाद ग्रामीण विकास से संबधित मांगों को सदन के सामने रखा गया था। लेकिन इस मुद्दे पर बहस के दौरान भी केवल तीन ही भाजपा सांसद उपस्थित थे।
बढ़ती कीमतों पर बहस के सात दिनों के बाद भाजपा ने बढ़ती मंहगाई के मुद्दे को फिर से हवा दी थी। लेकिन सदन के नियमों के मुताबिक एक ही मुद्दे पर दोबारा बहस संभव न होने से एक नया पचड़ा तैयार हो रहा था।
भाजपा ने इस बात को लक्ष्य करते हुए प्रश्नकाल का बहिष्कार कर दिया और भाजपा सांसद नारेबाजी करते हुए सदन के बीचोबीच आ गये थे।
सोमनाथ के सामने संसदीय युद्ध एक बार फिर कुलांचे भर रहा था। सोमनाथ ने सदन के नियमों की अवहेलना के चलते सांसदों को पहले से ही चेतावनी दे दी थी।
ऐसे में उन्होंने एक बार और चेतावनी दी लेकिन मामला न संभलते हुए सदन को दोपहर तक के लिए स्थगित कर दिया। इसके बाद इस मामले को विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया गया। इसमें ब्रजेश पाठक के मामले को पूरे जोर के साथ उठाया गया था।
ब्रजेश पाठक ने स्टील मंत्री रामविलास पासवान से एक सवाल पूछा था। लेकिन जब पासवान सवाल का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो पाठक उनके जवाब देने में हस्तक्षेप करने लगे थे। अंत में पाठक नारेबाजी करते हुए सदन के बीचोबीच भी आ गये थे। ऐसे में सोमनाथ ने इन दोनों घटनाओं को विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया था।
इनमें उन 32 सांसदों के नाम का भी उल्लेख किया गया था, जिन्होंने सदन की मर्यादा को भंग किया था। इन सांसदों में ब्रजेश पाठक भी थे जो विशेषाधिकार समिति के सदस्य भी थे। लोकसभा के अध्यक्ष के इस कदम से पक्ष और विपक्ष दोनों सकते में आ गये थे।
अगले ही दिन दोनों ही पक्ष के नेताओं ने उनसे मुलाकात कर अगली कार्यवाही में शांति पूर्वक भाग लेने का आश्वासन दिया था। ऐसे में सोमनाथ ने पूरे विवाद को तुरंत ही समाप्त कर दिया था। लोकसभा के इतिहास के लिए यह एक ऐतिहासिक घटना थी।
लोकसभा अध्यक्ष पद पर रहते हुए सोमनाथ ने सदन की कार्यवाही भंग करने वाले सांसदों पर लगाम कस कर इस पद की गरिमा कायम रखी, साथ ही सदन की कार्यवाही में लोकतंत्र की आत्मा को भी जीवित रखा। याद रहेंगे सोमनाथ दा।