राजधानी के बाहरी इलाकों में किसानों के विरोध प्रदर्शन की शुरुआत हुए करीब एक महीना हो चुका है लेकिन कोई हल नजर नहीं आ रहा। किसानों की मांग है कि तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाए। केंद्र सरकार ने कुछ संशोधनों का प्रस्ताव भी रखा जिनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रणाली को जारी रखने का लिखित आश्वासन देने की बात शामिल है, परंतु किसानों ने इन्हें ठुकरा दिया। प्रदर्शनकारी किसानों की मांग है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए। यह गतिरोध ऐसा कड़ा रुख रखने से समाप्त नहीं होगा। उधर सरकार ने किसानों को एक बार फिर चर्चा के लिए आमंत्रित किया है।
किसानों की चिंताएं दूर करने के तरीके हैं, बशर्ते किसान भी बातचीत के लिए तैयार हों। चाहे जो भी हो, निजी मंडियों के लिए कारोबार शुरू हो जाने के बाद भी सरकार एमएसपी की व्यवस्था खत्म नहीं कर सकेगी। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे 5.5 करोड़ टन अनाज खरीदने की आवश्यकता होगी। सरकार देश की 67 फीसदी आबादी को सब्सिडी वाला खाद्यान्न मुहैया कराती है और अधिकांश सरकारी खरीद पंजाब और हरियाणा में की जाती है। यकीनन सरकार को कृषि कानून पारित करने में इतनी जल्दबाजी नहीं करनी थी। परंतु अब जबकि वह ऐसा कर चुकी है तो कानून वापस लेना समस्या का हल नहीं है। केंद्र सरकार को उन राज्यों से भी बात करनी चाहिए जो उसके साथ नहीं हैं। ऐसे राज्यों को यह विकल्प दिया जाना चाहिए कि वे चाहें तो फिलहाल इन कानूनों को लागू न करें। केवल कुछ ही राज्य हैं जो इसका विरोध कर रहे हैं। यह भी संभव है कि आगे चलकर वे इन कानूनों को लागू करें क्योंकि सरकारी खरीद उन राज्यों में स्थानांतरित हो जाएगी जहां लेनदेन की लागत कम है। इसके अलावा ऐसी कोई वजह नहीं है जिसके चलते राज्य किसानों को अनुबंधित कृषि के विकल्प से वंचित करें। राजनीतिक रूप से देखा जाए तो राज्य सरकारें खेती के मुद्दों को लेकर अधिक संवेदनशील हैं और एक बार इन कानूनों का नफा नुकसान स्पष्ट हो जाने के बाद वे अपना रुख बदल सकती हैं। राज्य सरकारें किसानों की मदद के लिए खाद्यान्न खरीद कर उन्हें कमी वाले राज्यों को बेच भी सकती हैं।
बुनियादी मुद्दा कृषि से होने वाली आय का है और समर्थन मूल्य किसानों को कुछ हद तक निश्चितता प्रदान करता है। हालांकि सरकार एमएसपी नीति जारी रखेगी लेकिन यह स्पष्ट है कि वह खुली खरीद हमेशा जारी नहीं रख सकती। साथ ही पंजाब और हरियाणा के किसान हमेशा गेहूं और चावल नहीं उपजा सकते। यह चक्र व्यवहार्य नहीं है, भले ही इसे किसी नजरिये से देखा जाए। बहरहाल, विविधता लाने की अलग कीमत है और इसमें जोखिम भी हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को सहायता उपलब्ध कराने के क्षेत्र में अधिक पहल करनी होगी। चूंकि कृषि राज्य का विषय है इसलिए उन्हें इसे स्थायी बनाने की राह तलाशनी होगी। यह क्षेत्र पूरी तरह केंद्र सरकार की खरीद पर निर्भर नहीं रह सकता। हरियाणा सरकार ने धान की जगह दूसरी फसल की खेती पर नकद पुरस्कार घोषित कर सही किया है। किसानों की मदद के लिए राज्य सरकार एमएसपी पर दालों की खरीद भी शुरू करेगी। ऐसी योजनाएं पंजाब जैसे पानी की कमी वाले राज्यों में भी शुरू की जानी चाहिए। केंद्र ऐसी योजनाओं के व्यापक क्रियान्वयन में राज्यों की मदद कर सकता है। यदि वह ऐसा न करे तो भी राज्यों को किसानों की जरूरतों पर ध्यान देना होगा। उत्तर प्रदेश गन्ना खरीदने वालों पर जो कीमत लागू करता है वह इसका उदाहरण है। ये कीमतें हमेशा केंद्र की अनुशंसा से अधिक रहती हैं। राज्य सरकारें किसानों की अनदेखी नहीं कर सकतीं, और वह एक अप्रत्यक्ष सुरक्षा ढांचा है।
