भारत में शेयर बाजार चढ़ रहा है जबकि देश की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती जा रही है। इसका क्या कारण हो सकता है? यद्यपि शेयरों को कंपनियों के भविष्य के लाभ का वर्तमान मूल्य दर्शाना चाहिए मगर ऐसा लगातार देखा गया है कि मौजूदा और निकट भविष्य के अनुमानित लाभ पर अधिक जोर दिया जाता है। इस समय ऐसे लाभ उच्च स्तर पर हैं। यह एक सरल प्रक्रिया है जो चलती रहती है मगर इसका दूसरा हिस्सा भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
वर्ष 2019 में कंपनी कर (कॉर्पोरेट) दरों में भारी कटौती की गई थी। कोविड-19 महामारी की वजह से 2020 में इस कटौती का कोई असर नहीं दिखा मगर 2021 में कंपनियों का मुनाफा जरूर बढ़ा है। पिछले एक वर्ष के दौरान उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना की शुरुआत की गई है। इस योजना से कुछ उद्योगों को लाभ मिल रहा है। कोविड महामारी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और रियल एस्टेट (नियमन एवं विकास) अधिनियम से जुड़े शुरूआती नीतियों की वजह से कारोबार में कंपनी क्षेत्र की बाजार हिस्सेदारी बढ़ी है। इसका नतीजा यह हुआ कि पूरे कारोबार के हित के लिए शुरू की गई कुछ नीतिगत घोषणाओं का कंपनी क्षेत्र पर आवश्यकता से अधिक असर हो गया। ये नीतिगत घोषणाएं निम्रलिखित थीं।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) वास्तविक ब्याज दरें कम से कम 3 प्रतिशत अंक कम करने की पहल कर चुका है। इसका कंपनियों के मुनाफे पर खासा असर हुआ है। आरबीआई ने महंगाई दर भी अधिकतर सहज स्तर 6 प्रतिशत पर या इसके इर्द-गिर्द रहना स्वीकार कर लिया। महंगाई दर में बड़ी उछाल कम से कम शुरू में तो कारोबार जगत को लाभ पहुंचा सकती है। इसके अलावा सीमा शुल्कों में भी धीरे-धीरे कम से कम 5 प्रतिशत अंकों की बढ़ोतरी कर दी गई। सीमा शुल्क में बढ़ोतरी से घरेलू कारोबारों का मुनाफा बढ़ता है। आरबीआई विदेशी मुद्रा भंडार भी बढ़ा रहा है जिससे डॉलर मजबूत हुआ है। इससे निर्यातकों को लाभ मिला है। अलग-अलग देखें तो इन नीतियों का कोई खास असर नहीं दिखता मगर इनका सामूहिक प्रभाव काफी महत्त्वपूर्ण है। कंपनियों के मुनाफे में तेजी (लागत में कमी का दायरा अधिक और मात्र कम है) की यह एक अहम वजह है।
अब कंपनी क्षेत्र से इतर पूरी अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करते है। यह दिलचस्प बात है कि इनमें कई नीतियों ने ज्यादातर अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। कंपनी करों में कमी जरूर की गई और पीएलआई योजना की भी घोषणा हुई मगर सरकार ने इससे राजस्व को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए तेल पर कर बढ़ा दिया। पिछली तारीख से लागू होने वाली कर व्यवस्था से अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है। जीएसटी, रेरा आदि से छोटे कारोबारों को पहले ही बहुत नुकसान पहुंच चुके हैं। ब्याज दरें एकदम निचले स्तर पर पहुंचने से बचतकर्ताओं के लिए वास्तविक ब्याज दरें ऋणात्मक हो गई हैं। आयात शुल्क बढऩे और डॉलर महंगा होने से भारतीय उपभोक्ताओं को झटका लगा है, वहीं महंगाई बढऩे से आम लोगों का बजट बिगड़ गया है।
कंपनियों के मुनाफे में बढ़ोतरी और शेयर कीमतें ऊंचे स्तरों पर पहुंचने के बाद भारत की अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। यह सच है कि कंपनियों के मुनाफे में वृद्धि के अलावा शेयर बाजार में तेजी की दूसरे महत्त्वपूर्ण कारक भी हैं।
पहली बात तो ब्याज दरें काफी निचले स्तरों पर हैं जिससे शेयर निवेश के लिए काफी आकर्षक हो गए हैं। दूसरी बात यह है कि गैर-वाजिब उत्साह से भी बाजार लगातार चढ़ता जा रहा है। अब थोड़े नजदीक से नजर डालते हैं।
ब्याज दरों में कमी नीतिगत फैसले का नतीजा होती है और बाजार को ध्यान में रखकर यह तय नहीं की जाती है। आवश्यकता से अधिक उत्साह पूरी तरह बाहरी कारणों से नहीं दिख रहा है बल्कि यह मुनाफे में बढ़ोतरी के मात्रात्मक प्रभाव का जरूरत से अधिक असर है। इससे हम दोबारा उसी प्रश्न पर पहुंच जाते हैं कि मुनाफा इतना अधिक क्यों है। हम देख चुके हैं कि विभिन्न सरकारी नीतियों की वजह से ऐसा हुआ है। आखिर, सरकार ने ये नीतियां तैयार ही क्यों की?
इसके पीछे यह सोच लग रही है कि विकसित देशों में कंपनी क्षेत्र अहम होता है और इसलिए भारत को भी अपने यहां यह नीति लागू करनी चाहिए। लिहाजा इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि भारत में भी कंपनी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। यह भी तर्क दिया गया कि ऐसा इसलिए भी करना चाहिए क्योंकि भारत में कंपनियों पर करों का बोझ जरूरत से अधिक है। इस पूरे तर्क के पीछे कहां चूक हुई है?
भारत में कंपनियां ही केवल प्रतिकूल स्थितियों का सामाना नहीं कर रही हैं। दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बड़ा एवं मजबूत निगमित क्षेत्र एक लंबी प्रक्रिया और बाजार की शक्तियों का नतीजा है। प्रतिस्पद्र्धा और सकारात्मक व्यावसायिक उथलपुथल सभी ने इसमें योगदान दिया है। प्रतिस्पद्र्धा अब केवल कुछ खास क्षेत्रों तक ही नहीं बल्कि कारोबार के सभी खंडों में देखी जा रही है। विकसित देशों की सरकारों ने वहां कारोबार को प्रोत्साहन दिया है मगर ‘पूंजीवादियों से पूंजीवाद को बचाने’ (बाजार को पूंजीपतियों के प्रभाव से मुक्त रखने) के प्रयास भी किए हैं। इससे उन देशों में कर-सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुपात में वृद्धि होती गई। भारत में अब तक ऐसा कुछ नहीं दिखा है। यह अच्छी बात है कि सरकार आर्थिक विकास में दिलचस्पी ले रही है मगर रवैया बदलने की जरूरत है।
रवैया बदलता है तो कमजोर पड़ती अर्थव्यवस्था और तेजी से बढ़ते शेयर बाजार की पहेली में उलझने की जरूरत नहीं रहेगी।
(लेखक भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं।)
