इससे पहले कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नए कर प्रस्तावों को सुनकर भारत में कोई आगबबूला हो जाए, क्योंकि इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि इनमें बेंगलुरु में रोजगार के नए अवसरों को निशाना बनाया गया है, हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि उन्होंने क्या करने की कोशिश की है।
तर्क की किसी भी कसौटी पर इन फैसलों का महत्त्वपूर्ण साबित होना मुश्किल है। विदेश में निवेश करने वाली अमेरिकी कंपनियों को उनके मुनाफे पर कर की छूट मिलती है, बशर्ते कि वे अपना मुनाफा वापस अमेरिका में ले आएं।
हालांकि उन्हें ऐसे निवेश पर किए गए खर्च पर छूट का दावा करने की अनुमति है। इससे विदेशों में निवेश करने और देशी बाजार में निवेश नहीं करने की खुली छूट मिल जाती है। खासकर अगर धन को कर के लिहाज से स्वर्ग कहे जाने वाले देशों (टैक्स हैवेन्स) के जरिए ले जाया जाता है तो फर्म को अपने मुनाफे पर कहीं भी कर नहीं देना पड़ता है।
ओबामा ने इसे एक ‘घोटाला’ बताया है। आंकड़ों के मुताबिक निवेश के ऐसे मामलों में कर की प्रभावी दर 2 से 3 प्रतिशत के बीच ही बैठती है। इससे राष्ट्रपति की इस कवायद को समर्थन मिलता है कि ऐसी कार्पोरेट गतिविधियों पर कर को प्रभावी स्तर तक बढ़ाया जाए।
खासकर एक ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था घाटे से जूझ रही है और दूसरे कार्यक्रमों के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। वास्तव में भारत को भी ऐसा ही करना चाहिए (ऐसी कंपनियां जो विदेशों में निवेश करने के लिए कर्ज लेती हैं, और कर्ज पर लगने वाले ब्याज के बराबर कर राहत का दावा करती हैं, उन्हें तब तक कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए जब तक कि वे मुनाफा वापस नहीं लाती हैं और उस पर कर का भुगतान नहीं कर देती हैं)।
दूसरे शब्दों में पूरा मामला बेंगलुरु या बफैलो में रोजगार का नहीं है, यद्यपि ओबामा ने इसे कुछ हद तक नाटकीय ढंग से पेश किया है। सच्चाई यह है कि इससे कोई भी भारतीय प्रौद्योगिकी या बीपीओ कंपनी प्रभावित नहीं होने जा रही है। और न ही किसी भी अमेरिकी ग्राहक को इन्फोसिस और टीसीएस के साथ करार को रद्द करना पड़ेगा।
आईबीएम और एक्सेंचर जैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए हालात दूसरे हैं, जिनका भारत में व्यापक बैक-ऑफिस परिचालन है और उन्हें अच्छी तरह से पता चल गया होगा कि ओबामा के प्रस्तावों के कारण अमेरिका में उनके ऊपर कर का भार बढ़ गया है।
लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि वे अपना कारोबार समेट कर अमेरिका चली जाएंगी। कर राहत के बिना भी इन कंपनियों के लिए भारत में परिचालन करना अधिक फायदेमंद है। ओबामा की पहल को व्यापक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय पूंजी की पहुंच कई टैक्स हैवेन्स तक हो चुकी है, जहां से पूंजी के स्वामी को वैश्विक कर छूट का फायदा मिलता है।
अपने देश में भी इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि कैसे भारतीय धन टैक्स हैवेन्स में जमा हुआ है। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति की आलोचना करने की जगह भारत को टैक्स हैवेन्स पर हमला करने के लिए ओबामा की इस पहल का स्वागत करना चाहिए और देखिए नई दिल्ली, मॉरिशस और दूसरे देशों के बारे में क्या कर सकती है।
हालांकि ऐसा करना आसान नहीं होगा। अमेरिका में और भारत में ऐसे किसी कदम का कारोबारी लॉबी पुरजोर विरोध करेगी।
