वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की ओर से शुक्रवार को जारी मार्च 2009 के आंकड़ों से पता चलता है कि अक्टूबर से शुरू हुई निर्यात में गिरावट का रुझान न सिर्फ बरकरार है बल्कि इसमें बढ़ोतरी भी हो रही है।
डॉलर के हिसाब से निर्यात में मार्च 2008 के मुकाबले 33.3 फीसदी की गिरावट आई है और यह गिरावट किसी महीने में हुई अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है। पूरे साल के लिए निर्यात का आंकड़ा 168.7 अरब डॉलर का रहा जो मूल लक्ष्य 200 अरब डॉलर से काफी पीछे है और 170-175 अरब डॉलर के संशोधित लक्ष्य से भी कम है।
यह अभी भी साल 2007-08 के मुकाबले 3.4 फीसदी की बढ़ोतरी दिखा रहा है क्योंकि साल के पहले छह महीने में इसका प्रदर्शन उम्दा रहा था। साल की पहली छमाही में बढ़ोतरी और अंतिम छमाही में गिरावट का अंतर ज्यादा सिकुड़न भरा नहीं है। इस बीच, रुपये के लिहाज से मार्च 2009 में निर्यात सिर्फ 15.3 फीसदी गिरा है, जो रुपये में ह्रास को प्रतिबिंबित करता है।
मुद्रा की गतिविधि ने निर्यातकों को एक हद तक रुपये में वसूली में मदद की, लेकिन अब रुपये में मार्जिन पर दबाव पड़ता दिख रहा है और ऐसे में निर्यातकों की मुश्किलों में इजाफा हो रहा है। मुख्य बाजारों अमेरिका, यूरोप और जापान में रिकवरी की कोई उम्मीद नहीं है। चूंकि नौकरियां दांव पर लगी हुई हैं, लिहाजा नई सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती होगी।
डॉलर के लिहाज से मार्च महीने में आयात भी कमोबेश निर्यात की तरह ही गिरा यानी इसमें 34 फीसदी की गिरावट आई। यह गिरावट प्राथमिक रूप से ऊर्जा और जिंसों की कीमतों में पिछले साल के मुकाबले आई गिरावट को प्रतिबिंबित करती है, लेकिन घरेलू उत्पादन में कम बढ़त की वजह से भी ऐसा हुआ।
इसके परिणामस्वरूप, मार्च 2009 में व्यापार घाटा 4 अरब डॉलर का रहा जो मार्च 2008 के 6.3 अरब डॉलर के मुकाबले कम है। साल 2008-09 में घाटा 119 अरब डॉलर था, जो साल 2007-08 के 88 अरब डॉलर के मुकाबले ज्यादा था।
लेकिन आयात में गिरावट निर्यात में मंदी को दिखाता है और तेल व दूसरी जिंसों की कीमत वहीं स्थिर रहने की उम्मीद है जहां वे फिलहाल हैं, ऐसे में निकट भविष्य में भुगतान संतुलन पर बहुत दबाव की संभावना नहीं है।
सच्चाई यह है कि चालू खाता और पूंजी खाता दोनों ने ही अक्टूबर-दिसंबर की तिमाही में घाटा दिखाया है और निश्चित रूप से यह चिंता का विषय है। हालांकि, अगर पूंजी का प्रवाह उचित रूप से लौटे, जैसा कि अप्रैल में हुआ, तो चालू खाते का घाटा आसानी से बेअसर हो सकता है और ऐसे में विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ रहा दबाव भी कम हो जाएगा।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा मौका आया है जब भुगतान संतुलन की समस्या आर्थिक संकट में किसी तरह की भूमिका नहीं निभा रही है। असली समस्या बेरोजगारी की है। भारत से निर्यात होने वाले सामान में ज्यादातर ऐसे उत्पाद शामिल हैं जिनमें श्रम का अधिक इस्तेमाल होता है।
मंद वैश्विक परिस्थितियों में, जिनके कि थोड़े समय तक जारी रहने की उम्मीद है, नौकरी में बढ़त रोजगार में नुकसान की तरफ मुड़ रहा है। नौकरी के क्षेत्र में हुए तात्कालिक नुकसान से निपटने के अलावा नई सरकार को शिद्दत के साथ रोजगार में बढ़ोतरी की प्रक्रिया की तरफ तत्काल ध्यान देने की जरूरत होगी।
