कहा जाता है कि राकेश झुनझुनवाला ने निवेश का अपना सफर वर्ष 1985 में 5,000 रुपये के साथ शुरू किया था। जब दो सप्ताह पहले उनका देहांत हुआ, तब उनके पास 50,000 करोड़ रुपये की संपत्ति थी। यह 37 साल में 65 फीसदी चक्रवृद्धि सालाना प्रतिफल है। ऐसा लगता है कि किसी ने भी इस आंकड़े का आकलन या इसके मायनों की व्याख्या नहीं की, इसलिए उसका यहां उल्लेख किया जा रहा है। इससे राकेश निवेशक मैराथन धावकों के उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर विश्व में दूसरे सबसे सफल निवेशक बन जाते हैं। उनसे थोड़े ऊपर रनेसंस टेक्नोलॉजीज के जिम सिमोंस हैं, जिन्होंने 1988 से 2018 के बीच (पिछले उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर) 66 फीसदी प्रतिफल कमाया है। जॉर्ज सोरोस, स्टैनली ड्रकनमिलर, वारेन बफेट जैसे प्रसिद्ध निवेशकों का प्रतिफल उच्च 20वें दशांक और निम्न 30वें दशांक में रहा। बहुत से शीर्ष निवेशक मुश्किल से 20 फीसदी चक्रवृद्धि प्रतिफल अर्जित कर पाए हैं। हां, निवेश उतना ही मुश्किल है और राकेश इसमें सफल रहे।
असल में राकेश की उपलब्धि सिमोंस से बड़ी है। सिमोंस गणित के प्रतिभावान व्यक्ति थे, जिनके पास उच्च सटीकता के साथ बाजार में कारोबार करने के लिए मात्रात्मक तकनीक विकसित करने और एल्गोरिद्म बनाने के लिए अच्छे गणितज्ञों और भौतिकविदों की एक टीम थी। उन्होंने 66 फीसदी प्रतिफल कमाने की खातिर उन पैटर्न का पता लगाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के सैकड़ों पीएचडी लोगों को नियुक्त किया था, जो हमें प्रकृति, जीवन और बाजारों में आकस्मिक उतार-चढ़ाव नजर आते हैं। इसके अलावा ज्यादातर निवेशकों ने हेज फंडों के जरिये अन्य लोगों का पैसा निवेश कर अपना प्रतिफल कमाया, लेकिन राकेश ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने पिछले दो दशकों में लोगों की एक छोटी टीम के साथ काम किया और वह अन्य लोगों के पैसे का प्रबंधन कर धनी नहीं बने। उन्होंने अपने ही धन में कई गुना बढ़ोतरी की। मैंने दुनिया के हर प्रसिद्ध कारोबारी या निवेशक के बारे में पढ़ा है और मैं जानता हूं कि कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता।
एक अन्य निवेशक जिन्होंने अपने बलबूते ही अपनी संपत्ति बढ़ाई, वह रॉबर्ट विल्सन थे। विल्सन ने अपनी मां द्वारा 1958 में दिए गए 15,000 डॉलर को वर्ष 2000 तक बढ़ाकर 80 करोड़ डॉलर कर दिया। इस तरह उनका सालाना चक्रवृद्धि प्रतिफल 30 फीसदी रहा। निश्चित रूप से राकेश की ऐसी असाधारण सफलता का लंबी अवधि का रिकॉर्ड भाग्य के अलावा चतुराई से जोखिम लेने के अनोखे तरीके पर आधारित है, जो बीते वर्षों में बेहतर से बेहतर होता गया। अफसोस की बात यह है कि उनकी रणनीतियों, उनके उच्च एवं निम्न बिंदुओं, मोटी उधारी से पैदा जोखिमों को संभालना और जब उनके आसपास के लोग हार मान रहे थे, तब वाजिब कीमत पर सौदों को पहचानने की उनकी काबिलियत को लेकर ज्यादा दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। विभिन्न समय पर बाजारों के बारे में उनके विचारों पर बहुत सी टीवी क्लिप हैं। लेकिन ऐसा कोई साक्षात्कार नहीं है, जो विस्तार से उनकी खुद की निवेश यात्रा को बताता हो।
ग्रेगोरी जुकरमैन ने जिम सिमोंस पर एक पूरी पुस्तक (दी मैन हू सॉल्वड दी मार्केट) लिखी है, लेकिन सिमोंस ने पुस्तक लिखने में सहयोग नहीं दिया था। हालांकि बहुत कम लोग रॉबर्ट विल्सन को जानते हैं, लेकिन उन पर भी रोमर मैकफी ने एक पुस्तक (किलिंग दी मार्केट) लिखी है। वारेन बफेट पर अनगिनत पुस्तके हैं। जॉर्ज सोरोस और उनके पूर्व साझेदार जिम रोजर्स ने अपनी रणनीतियों पर बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं। रोजर्स ने जब 1973 से 1983 के बीच क्वांटम फंड चलाया था, तब एक आश्चर्यजनक रिकॉर्ड बनाया था। इसके अलावा बड़े कारोबारियों और निवेशकों पर सबसे ज्यादा बिकने वाली मार्केट विजार्ड पुस्तकों की सीरीज है। लेकिन विश्व के इस सबसे बेहतर निवेशक एवं कारोबारी के जीवन का कोई ब्योरा उपलब्ध नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि वह मुख्यधारा के पत्रकारों को खूब समय देते थे। निस्संदेह अगर आप उनसे असहमत होते थे तो आपको तेजतर्रार विपक्षी का सामना करना पड़ता था, जो वापस सवाल और उलटे तर्क दागता था।
यह बात याद रखें कि राकेश के 65 फीसदी चक्रवृद्धि प्रतिफल के पीछे बहुत से उतार-चढ़ाव हैं। उन्होंने तीन दशकों के दौरान तीन बड़ी बाजार गिरावट झेली हैं। वह 1990 के दशक की शुरुआत में दलाल स्ट्रीट के सटोरियों में से एक थे। उस समय हर्षद मेहता ट्रेडिंग, स्मार्ट निवेश और बैंकों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के साथ सौदे कर पहले ही काफी संपत्ति बना चुके थे। 1992 में हर्षद ताक ठोक कर कहते थे कि उनकी कंपनी ग्रोमोर कुछ साल में मेरिल लिंच से भी बड़ी होगी। राकेश शॉर्ट पोजिशन बेचने की वजह से हर्षद की तिकड़मों की वजह से चढ़ रहे तेजी वाले बाजार में लगभग दिवालिया होने के नजदीक पहुंच गए थे। हर्षद मुख्य रूप से अपनी बेवकूफियों की वजह से बरबाद हो गए मगर राकेश अपना वजूद बचाने में सफल रहे। यह विडंबना भी देखिए। हर्षद ने पत्रकारों, बिचौलियों और घोटालेबाज कारोबारियों के एक समूह की मदद से कुछ शेयर बढ़ाकर बेतरतीब ढंग से वापसी करने की कोशिश की, लेकिन वह भी असफल रही। इसके कुछ साल बाद एक नए बड़े बिग बुल केतन पारेख भी हर्षद के नक्शेकदम पर चले, लेकिन वह भी बरबाद हो गए। दूसरी तरफ राकेश ने अपनी रफ्तार और रणनीति बदली। इससे उनकी संपत्ति में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई क्योंकि उन्होंने अपना कारोबारी लाभ लंबी अवधि के लिए शेयर खरीदने में लगा दिया। उन्हें भारत की बढ़ती समृद्धि और लंबी अवधि के पूंजीगत लाभ पर शून्य कर का फायदा मिला।
मैं सबसे पहले राकेश से 1996 में दलाल स्ट्रीट के नजदीक एक छोटे से कार्यालय में मिला था। उन्होंने मुझे विक्टर स्पेरांडियो की पुस्तकें पढ़ने का सुझाव दिया। उनकी एक अन्य सलाह यह थी कि हमेशा छोटी पोजिशन से शुरुआत की जानी चाहिए क्योंकि हम निश्चित रूप से कुछ गलतियां कर सकते हैं। इसके अलावा हमें नम्र बने रहना चाहिए क्योंकि बाजार क्रूर हो सकते हैं। ये उनके अनमोल सुझाव हैं। मेरी उनसे अगली मुलाकात उस समय हुई, जब भारत में 2002 में मंदी थी। मैंने हर किसी की तरह उनसे पूछा क्या लगता है। उनका जवाब था- तेजी, तेजी और तेजी।
इसके कुछ महीनों बाद अप्रैल 2003 से भारत में सबसे बड़ा और सबसे लंबा तेजड़िया बाजार रहा, जो पांच साल तक चला। एक बार हम होटल की लॉबी में थे। उस समय किसी ने उनसे पूछा- क्या आपने पूरा निवेश कर दिया है? उन्होंने चुटकी ली, ‘मैं हमेशा 130 फीसदी निवेश किए रहता हूं।’ इससे उधारी के धन की उनके प्रतिफल में भूमिका का पता चलता है। वह 2006 में मनीलाइफ की शुरुआत के मौके पर अतिथि थे और उन्होंने उस दिन मुझे ‘सकारात्मक’ रहने का सुझाव दिया था। राकेश की सफलता का बड़ा रहस्य यह था कि उन्होंने पूरी तरह दो विरोधी रणनीतियों (अल्पावधि का कारोबार और लंबी अवधि का निवेश) का मेल कर दिया और इसमें उधारी की नकदी का जायका लगाया। लेकिन यह बड़ा रहस्य है कि वे कैसे उधार धन से अल्पावधि के रुझानों के साथ चल सकते हैं और फिर भी बड़ी तस्वीर पर केंद्रित रह सकते हैं। यह रहस्य भी शायद उनके साथ ही चला गया।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन
के संपादक हैं)