आजादी के बाद के भारतीय इतिहास में कश्मीर की बड़ी अहमियत रही है। और कश्मीर के इतिहास में शेख अब्दुल्ला की।
आजादी मिलने के दौर में भी सूबे में मुस्लिम आबादी बड़ी तादाद में थी। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला इस बड़े तबके का नेतृत्व कर रहे थे जिनमें बड़ी संख्या में युवा भी थे। शेख अब्दुल्ला और उनके सहयोगियों ने उस वक्त की आम धारणा को बदल दिया। दरअसल, उस समय सब यही सोच रहे थे कि मुस्लिम बहुल होने की वजह से कश्मीर पाकिस्तान के साथ चला जाएगा।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अब्दुल्ला ने पाकिस्तान में शामिल होने से इनकार कर दिया। जब इस युवा नेता को पाकिस्तान में शामिल होने को मनाने के लिए जब खुद मुहम्मद अली जिन्ना ने कोशिश करनी चाही तो शेख अब्दुल्ला ने उनसे मुलाकात करने से इनकार कर दिया।
लेकिन कश्मीर ने नई दिल्ली से जो नया नाता जोड़ा उस पर कुछ वक्त बाद सवालिया निशान लगने शुरू हो गए। कुल मिलाकर उलझन की स्थिति पैदा हो गई जो आज तक बदस्तूर जारी है। इसकी वजह से राज्य में हिंसा का वीभत्स दौर चला जो वक्त-बेवक्त सर उठाता रहता है।
इस सबकी पड़ताल करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजीत भट्टाचार्य ने पुस्तक लिखी है। भट्टाचार्य, उन लोगों में से हैं जिन्होंने भारतीय सेना के साथ तब कश्मीर की धरती पर कदम रखा था जब पाकिस्तानी कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला बोल दिया था। इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तानी फौजियों ने उन पाकिस्तानियों के नापाक मंसूबों पर तो पानी फेर दिया था।
भट्टाचार्य उस दौर के साक्षी रहे हैं। उनकी पुस्तक में यह झलकता भी है। इस किताब में कई जानकारियां हैं। मसलन, बंटवारे से जुड़े प्रसंग, जम्मू-कश्मीर का भारत में शामिल होना और फिर श्रीनगर और नई दिल्ली में कश्मीर की सर्दी की तरह ही सर्द होते रिश्ते।
वक्त के साथ-साथ मुल्क की राजधानी में बैठे नेताओं और सूबे के नेताओं के बीच बढ़ता अविश्वास का माहौल, सब इस किताब में झलकता है। उन लोगों को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए जो कश्मीर में मौजूदा अलगाववाद और ‘आजादी’ की पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहते हैं।
आजादी के वक्त इस सूबे के राजा हरि सिंह थे। कांग्रेस के नेता कर्ण सिंह उन्हीं हरि सिंह के बेटे हैं। उस वक्त कश्मीर ‘ब्रिटिश भारत’ का हिस्सा नहीं था। हालांकि, कश्मीर का सामाजिक और राजनीतिक मानस आजादी की लड़ाई के साथ था। ऐसे माहौल में एक मध्यमवर्गीय कश्मीरी परिवार का युवा बेटा कश्मीरी अवाम की उम्मीदों के सहारे के रूप में उभर कर सामने आया।
शेख अब्दुल्ला ने रियासत के खिलाफ अपनी आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई। उन्होंने गरीबों और कश्मीरी मुस्लिम किसानों के हित के लिए आवाज बुलंद की। वास्तव में, उन्होंने स्वीकार किया कि वह भारतीय नेताओं के संपर्क में थे जो कश्मीर नरेश की नीतियों के खिलाफ थे और वे कश्मीरी जनता के साथ हमदर्दी का भाव रखते थे।
कुछ उदारवादी भारतीय नेताओं के संपर्क में आने का असर अब्दुल्ला पर भी पड़ा। उन्होंने अपनी पार्टी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का नाम बदलकर नैशनल कांफ्रेंस कर दिया जो पहली पार्टी की तुलना में ज्यादा धर्मनिरपेक्ष सोच और स्वरूप वाली थी।
बंटवारे की आग ने महत्वाकांक्षी राजा को कुछ राहत का मौका दे दिया। राजा ने खयाल पालना शुरू कर दिया कि वह स्वतंत्र कश्मीर के शासक बन जाएंगे। एक ओर नई दिल्ली में उस वक्त भी उनके जवाब का इंतजार किया जा रहा था।
तो दूसरी ओर दुनिया के नक्शे पर नए उभरे मुल्क पाकिस्तान का धीरज जवाब देता जा रहा था। पाकिस्तान ने कबीले में रहने वाले लोगों को कश्मीर को ‘आजाद’ कराने के लिए भेज दिया। इसके बाद कश्मीर के राजा के पास दो ही विकल्प बचे थे।
पहला या तो चुपचाप पाकिस्तान में शामिल हो जाएं और दूसरा यह कि भारत से मदद मांगी जाए। हरि सिंह ने दूसरा विकल्प चुनना ज्यादा मुनासिब समझा। इस तरह हिंदुस्तानी फौजियों ने कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे में जाने से रोका और कश्मीर का भारतीय संघ में विलय हो गया।
वैसे राज्य में राजा की स्थिति कमजोर थी। लेकिन उन्होंने इस फैसले को मंजूरी दे दी। हालांकि, उनके इस फैसले को जम्मू क्षेत्र में मुस्लिम विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार माना गया। भट्टाचार्य के नजरिए से उस वक्त नेहरू एक ‘अति उदारवाद’ नेता के तौर पर उभर रहे थे जिन पर रुमानियत की खुमारी छाई हुई थी।
अब्दुल्ला के प्रति नेहरू के रवैये के चलते कश्मीर को लेकर कई ऐसे फैसले लिए गए जो बाद में सही साबित नहीं हुए। कई इतिहासकारों का भी यही मानना रहा है कि इस तरह की स्थितियों में नेहरू अपने ‘सख्त’ सहयोगी सरदार पटेल पर ही भरोसा करते थे।
और जम्मू-कश्मीर की स्थिति को सामान्य करने का जिम्मा भी नेहरू ने पटेल को ही सौंपा। अब्दुल्ला कश्मीर के ‘प्रधानमंत्री’ बन गए और उन्होंने ‘नया कश्मीर’ बनाने के अपने सपने को पेश किया। उनके दौर में कश्मीर में भूमि सुधारों को लागू किया गया।
हिंदू और मुस्लिम जमींदारों से जमीन लेकर उन्हें जरूरतमंदों को दिया गया। इस पूरी कवायद में खून की एक बूंद तक नहीं बही और बिना किसी खास हो हल्ले के सब कुछ निपट गया। हालांकि, केंद्र सरकार के रुख को लेकर अब्दुल्ला जल्द ही बेचैन हो उठे।
कुछ षडयंत्रों के बाद आखिरकार 1953 में उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर भारत के खिलाफ षडयंत्र रचने का आरोप लगाया गया। इस किताब में उनकी गिरफ्तारी से लेकर 1975 में उनके रिहा होने तक की घटनाओं का ब्योरा दिया गया है।
बाद में वह मुख्यमंत्री बने और काफी हद तक अपने राज्य की स्वायत्तता बचाने में कामयाब भी रहे। भट्टाचार्य की किताब में पाठकों को एक बात की कमी लग सकती है वह यह कि इसमें शेख अब्दुल्ला की निजी जिंदगी के बारे में ज्यादा विस्तार से नहीं बताया गया है। यह किताब कुछ चुनिंदा दस्तावेजों और पत्रों पर आधारित है।
पुस्तक समीक्षा
शेख मोहम्मद अब्दुल्ला: टै्रजिक हीरो ऑफ कश्मीर
लेखक: अजीत भट्टाचार्य
प्रकाशक: रोली बुक्स
कीमत: 395 रुपये
पृष्ठ: 271