नब्बे के दशक की शुरुआत में शिकागो के मशहूर अर्थशास्त्री रुडीगर डॉर्नबुश भारत आए।
नई दिल्ली में दर्शकों से खचाखच भरे एक हॉल में उन्होंने कहा कि सुधारों के मामले में भारत को फूंक-फूंक कर और कदम-दर-कदम चलने से बचना चाहिए और इस दिशा में तेजी दिखानी चाहिए।
डॉर्नबुश मैक्सिको को लंबे अर्से से आर्थिक मशविरा देते आए थे, पर जब यह देश वित्तीय संकट की गिरफ्त में आया, तो उन्होंने इसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेने से इनकार कर दिया। इसी तरह, जेफरी सैक्स (जो एक वक्त अपने सीवी में एक पत्रिका के उस लेख का हवाला दिया करते थे, जिसमें उन्हें उस वक्त का सबसे प्रभावशाली अर्थशास्त्री करार दिया गया था) रूस और संक्रमण के दौर से गुजर रही पूर्वी यूरोप की कुछ अर्थव्यवस्थाओं के सलाहकार रहे थे।
रूस की घरेलू आर्थिक स्थिति भी चरमरा गई और उसे वित्तीय संकट का शिकार होना पड़ा। 90 के दशक के मध्य में भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो इस बात के बड़े पैरोकार थे कि देश को विदेशी मुद्रा पर नियंत्रण को मुक्त कर देना चाहिए और पूंजी खाता परिवर्तनीयता की ओर जल्द ही अग्रसर होना चाहिए। पर 1997 के एशियाई संकट के बाद ऐसे लोगों ने अपनी जबान पर काबू कर लिया।
किसी को भी विशेषज्ञों की राय पर आंख मूंदकर भरोसा करते हुए खुद के फैसले को ठंडे बस्ते में डालने से पहले काफी विचार-विमर्श करना चाहिए और इन चीजों को लेकर बेहद सतर्क रहना चाहिए। अर्थशास्त्री गलत हो सकते हैं और अर्थशास्त्र में भी फैशन की दुनिया की तरह ही कई परंपराएं हैं। पर यह बात काफी महत्वपूर्ण है कि चीजों का प्रबंधन व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर किया जाना, सैध्दांतिक ज्ञान के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक होता है।
मैंने इतनी लंबी-चौड़ी प्रस्तावना का जिक्र इसलिए किया है, क्योंकि अब मैं जो कहने जा रहा हूं वह किसी खतरनाक भूखंड से होकर गुजरने जैसा है। मेरा मानना है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार बेकाबू हो गया है और जो कोई भी खुद को इससे जोड़ेगा, अपने लिए खतरा मोल लेगा।
इस पूरी समस्या का सारांश हाल ही में आई एक अद्भुत किताब में है, जिसे एक ऐसे शख्स ने लिखा है, जिसने करीब 2 दशक पहले इन संकटों के पनपने और इन पर काबू पाए जाने के लिए उठाए गए उपायों को काफी नजदीक से देखा है।
रिचर्ड बुकस्टैबर नाम के इस शख्स ने ‘अ डेमन ऑफ आवर ओन डिजाइन : मार्केट्स, हेज फंड्स ऐंड द पेरिल्स ऑफ फाइनैंशल इनोवेशन’ नामक अपनी किताब में बड़े ही खूबसूरत अंदाज में लिखा है कि बढ़ती जटिलता और बेहिसाब रफ्तार के संगम ने किस तरह वित्तीय बाजार को संकटों की गिरफ्त में फंसा दिया।
बड़े वित्तीय फर्मों में बैठे जानकारों को यह बात क्यों समझ में नहीं आती कि उनके खुद के डिविजन क्या कर रहे हैं, जो वे कर रहे हैं उनके क्या खतरे हैं और इनकी वजह से हर किसी का चेहरा कैसे स्याह हो सकता है। जिन कंपनियों का वजूद खत्म हो गया, उनमें से हर कंपनी की अपनी दास्तां है। चाहे बात बेरिंग्स की हो, सैलमन ब्रदर्स की या फिर बेयर स्टर्न्स की।
यह बात याद रखना जरूरी है कि एक वक्त था जब फाइनैंस का मुख्य काम वास्तविक अर्थव्यवस्था को गति देना था। पर आकार, गति और जटिलता के लिहाज से वित्तीय बाजारों ने उड़ान भरते हुए यह दिखाने की कोशिश की कि वह कई मामलों में नौकर न रहकर मालिक बन चुके हैं। हालत यह हो गई कि अमेरिका में वित्तीय कंपनियों का मुनाफा कुल कॉरपोरेट मुनाफे के 40 फीसदी तक चला गया। इस क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों की चांदी हो गई।
सब कुछ ठीकठाक रहता यदि ऐन वक्त पर शेयर बाजार धराशायी नहीं हुए होते, कर्ज बाजार ध्वस्त नहीं होता, कॉरपोरेट जगत दिवालिएपन की हालत से नहीं गुजर रहा होता और मॉर्गेज संकट ने अपना सिर ऊंचा नहीं किया होता। आज वित्तीय बाजार की बुरी गत का असर हर तरफ दिख रहा है।
आखिर इन बातों की क्या उपयोगिता है? इन बातों की उपयोगिता इस अर्थ में है कि हम लोग एक अन्य विध्वंसकारी स्थिति से गुजर रहे हैं और देश के जानकार रिजर्व बैंक और सरकार को नसीहत देते फिर रहे हैं कि देश को अपना वित्तीय बाजार और खोलना चाहिए और इसे दुनिया के चोट खाए हुए वित्तीय बाजार से जोड़े जाने की कवायद होनी चाहिए।
मेरे कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि हमें वित्तीय जकड़न की राह पर चलना चाहिए। हमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय वित्त बाजार से खुद को जोड़ना भी चाहिए, पर उन्हीं मामलों में जो हमारे लिए प्रासंगिक हो। हमेशा इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि फाइनैंस क्षेत्र एक नौकर है (शायद योग्य और दक्ष नौकर) और यह कभी भी मालिक नहीं बन सकता।