जब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कारोबार जगत को हिदायत दी है कि वह इस संकट की घड़ी में कर्मचारियों की छंटनी से दूर रहें, तब से ही आए दिन कर्मचारियों को कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाने की खबरें सुनने को मिल रही हैं।
यह जरूर है कि जेट एयरवेज को अपने 2,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकालने के फैसले को वापस लेना पड़ा था, पर उसके बाद से ही कई ऐसी खबरें आई हैं जो कर्मचारियों का मनोबल तोड़ती हैं। इनमें से सबसे ज्यादा खबरें आईटी और वित्तीय सेवा क्षेत्र की ओर से मिल रही हैं।
साथ ही निर्यात घटने और कच्चा माल महंगा होने से कपड़ा और परिधान उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। बड़ी संख्या में कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की खबरें आ रही हैं और साफ है कि इससे मजदूर भी काफी हद तक प्रभावित होंगे।
अगर दूसरे क्षेत्र भी देखा देखी ऐसे ही कर्मचारियों की छंटनी करने लगे तो जल्द ही सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए सख्त कदम उठाने पड़ेंगे। सरकार कारोबार जगत को महज नैतिक जिम्मेदारियों का एहसास करा कर इस समस्या को नहीं सुलझा पाएगी।
भले ही सरकार कंपनियों से कह रही हो कि वे कर्मचारियों की छंटनी से बचें पर वास्तविकता तो यह है कि उसके पास कंपनियों से ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है। मौजूदा संकट के दौर में कंपनियों के लिए पहली प्राथमिकता है कि वे अपने अस्तित्व को बनाए रखें।
और अगर बाजार में टिके रहना है तो उनके पास दो ही विकल्प हैं या तो कुछ कर्मचारियों की छंटनी कर अपने खर्च को कम करें या फिर खुद को दिवालिया घोषित होने दें और इस तरह सभी कर्मचारी खुद ब खुद सड़क पर आ जाएं। अगर कुछ कर्मचारियों की छंटनी से पूरी कंपनी को बचाया जा सकता है और इस तरह कई कर्मचारियों की नौकरी बचती है तो कंपनी इसी सिद्धांत को मानेगी।
हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार की इस दिशा में कोई जिम्मेदारी नहीं है। बेरोजगारी से परिवारों पर जो असर पड़ता है उसे कम करने के लिए सरकार को कदम उठाने ही चाहिए। प्रधानमंत्री ने कारोबार जगत से जो मांग की, उसका उद्देश्य यह था कि नौकरी खोने से जो पीड़ा होती है उससे लोगों को बचाया जा सके।
पर जैसा कि सभी जानते हैं कि उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में आय का जरिया सुरक्षित होना और नौकरी सुरक्षित होना दो अलग अलग बाते हैं। नौकरी अगर सुरक्षित नहीं हो तो भी कई ऐसे रास्ते हैं जिसके जरिए कमाई की जा सकती है।
कमाई का एक सुरक्षित तरीका बेरोजगार बीमा कार्यक्रम हो सकता है जिसके लिए वित्त प्रदान करने की जिम्मेदारी कर्मचारी, नियोक्ता और सरकार तीनों की होती है। एक मिलता जुलता मॉडल मौजूदा प्रोविडेंट फंड है जिसमें कर्मचारी और नियोक्ता दोनों योगदान देते हैं, पर इसमें सरकार की भागीदारी होनी बाकी है।
हालांकि मौजूदा संकट में यह मुमकिन नहीं है कि इतनी जल्दी ऐसा कोई कार्यक्रम तैयार किया जाए। पर भविष्य में इस तरह की समस्या से निपटने के लिए जरूरी है कि ऐसी कोई नीति तैयार की जाए। फिलहाल इस संकट में राहत दिलाने के लिए सरकार को चाहिए कि वह मौजूदा व्यवस्थाओं में संशोधन करे और ऐसी नीतियां तैयार करे कि अगर किसी की नौकरी जाती है तो ऐसी स्थिति में वह भविष्य निधि खाते का समय से पहले इस्तेमाल कर सके।