वैश्विक तापवृद्धि को लेकर होने वाली अधिकांश चर्चा प्राय: कार्बन उत्सर्जन में कमी पर केंद्रित रहती है लेकिन इस कहानी का दूसरा आधा हिस्सा ‘कार्बन सिंक’ यानी कार्बन अवशोषण के बारे में जानना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। उसके बारे में जानकर ही जलवायु परिवर्तन की चुनौती को पूरी तरह समझा जा सकता है। एक ‘कार्बन सिंक’ वह होता है जो जितना कार्बन वातावरण में छोड़े उससे अधिक वातावरण से अवशोषित करे। मिट्टी, वनों और समुद्रों के रूप में हमारे पास तीन ऐसे कार्बन सिंक मौजूद हैं। मनुष्य द्वारा निर्मित या कृत्रिम कार्बन सिंक भी मौजूद हैं। उदाहरण के लिए प्राकृतिक रूप से बनी गहरी जमीनी बनावट या इस्तेमाल रहित खदानें आदि। इनका इस्तेमाल कार्बन को एकत्रित करने के बाद उसे भंडारित करने के लिए किया जा सकता है। परंतु इस समय ये जो भूमिका निभा रहे हैं वह वनों या समुद्रों की तरह महत्त्वपूर्ण बिल्कुल भी नहीं है।
मौजूदा अनुमान बताते हैं कि वन क्षेत्र सालाना उत्सर्जित कार्बन के एक तिहाई या उससे अधिक का अवशोषण करते हैं। हालांकि ऐसे आकलन हमेशा अनुमान पर ही आधारित होते हैं। हर बड़े देश के नेता समय-समय पर ऐसी योजनाओं की घोषणा करते रहते हैं ताकि वनों की कटाई कम की जा सके तथा वनोच्छादित भूभाग में इजाफा किया जाए ताकि जलवायु संरक्षण को लेकर अपने-अपने देश के वादे पूरे कर सकें। लेकिन इस मोर्चे पर पहलकदमी की आवश्यकता बढ़ रही है। हाल ही में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में आयोजित सीओपी 26 जलवायु सम्मेलन में 100 से अधिक वैश्विक नेताओं ने कहा कि वे वन संरक्षण और उन्हें बहाल करने के लिए 19 अरब डॉलर की राशि देंगे। धरती की सतह का 70 प्रतिशत हिस्सा समुद्र से आच्छादित है और अनुमान के मुताबिक वे हर वर्ष निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड के बहुत बड़े हिस्से को अवशोषित कर लेते हैं लेकिन अक्सर जलवायु संबंधी बहस में उनकी अनदेखी कर दी जाती है। बहुत संभव है कि अब हालात में बदलाव आ रहा हो।
औद्योगीकरण के युग के पहले समुद्र जितना कार्बन अवशोषित नहीं करते थे उससे अधिक वे वातावरण में छोड़ते थे। बीते 200 वर्ष से अधिक समय में उन्होंने कारखानों, कारों तथा अन्य स्रोतों से उत्सर्जित करोड़ों टन कार्बन का अवशोषण किया है।
हालांकि यहां भी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि हर वर्ष हमारे समुद्र कितनी कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अवशोषित करते हैं। लंबे समय तक जलवायु वैज्ञानिकों का सोचना था कि समुद्र हर वर्ष उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड का तकरीबन एक तिहाई अवशोषित कर लेते हैं। लेकिन अब कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अनुमान वास्तविक से बहुत कम हो सकता है। सन 2020 में एक्सटर विश्वविद्यालय के दो वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने कहा कि समुद्र की सतह कुछ मीटर गहरे पानी की तुलना में बहुत अधिक ठंडी है। चूंकि पानी का तापमान उसकी कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करने की क्षमता पर असर डालता है इसलिए उन्होंने अनुमान जताया कि समुद्र अनुमान की तुलना में बहुत अधिक कार्बन का अवशोषण कर रहे हैं। जब समुद्र और गर्म होते हैं तो उनकी अवशोषण क्षमता घटती है।
अन्य शोध यह बताते हैं कि कई समुद्री इलाकों में पानी का तापमान अनुमान से जल्दी बढऩे लगा है। अनुपचारित सीवेज जल, प्लास्टिक तथा अन्य कचरे के समुद्र में मिलने जैसी घटनाओं पर भी अब नीति निर्माता ध्यान दे रहे हैं।
समुद्र इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? साधारण सी बात है क्योंकि उनकी सेहत समुद्री पारिस्थितिकी के साथ-साथ जमीन और समुद्र के आसपास रहने वाली आबादी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। जलवायु शोधकर्ताओं तथा नीति निर्माताओं की बात करें तो उनमें हाल ही में जागरूकता आई है। वैश्विक तापवृद्धि तथा समुद्रों की पहले की भूमिका को लेकर अधिकांश चर्चा बढ़ते जल स्तर के कारण तटवर्ती इलाकों को बढ़ते खतरे पर सीमित रही है। समुद्री पारिस्थितिकी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव तथा प्रशांत क्षेत्र के छोटे द्वीपों की आबादी की खाद्य सुरक्षा पर इसके असर को लेकर बात नहीं हुई।
पर्यावरणविद पहले ही समुद्र में बढ़ती गर्मी तथा समुद्रों के अम्लीकरण को लेकर बातचीत शुरू कर चुके हैं। एक दशक पहले शायद ही कोई इस शब्द का जिक्र करता था। समुद्रों का अम्लीकरण सही शब्द नहीं है। पानी की एसिडिटी या उसका क्षारीय स्तर तय करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पीएच दर्शाता है कि समुद्र अभी भी क्षारीयता के दायरे में हैं लेकिन समुद्रों द्वारा सालाना अवशोषित कार्बन डाइआक्साइड धीरे-धीरे पीएच मूल्य परिवर्तित कर रही है और उनमें क्षार कम हो रहा है।
समुद्रों के साथ दिक्कत यह है कि वर्षों तक उनका समुचित अध्ययन नहीं किया गया। समुद्र से जुड़े शोध में निवेश हमेशा मसला रहा है। कई चीजें ऐसी हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते। इसमें गहरे समुद्र की पारिस्थितिकी, जलवायु परिवर्तन मछलियों और जलीय स्तनपायी जीवों को कैसे प्रभावित कर रहा है तथा तमाम ऐसी बातें शामिल हैं जो पारिस्थितिकी के लिए अहम हैं।
अब इनमें से कुछ का अध्ययन किया जा रहा है और निष्कर्ष बहुत चौंकाने वाले हैं। समुद्र के तापमान में बदलाव और उसकी रासायनिक परिस्थितियों में परिवर्तन पहले ही जलधाराओं को प्रभावित कर रहा है तथा समुद्री जीवन और व्यवहार को भी। इसके परिणामस्वरूप प्रवाल को नुकसान पहुंचा है और मछलियों तथा जलीय स्तनपाइयों के प्रजनन को भी। कार्बन के अवशोषण तथा ऑक्सीजन के कम होने से विभिन्न प्रजातियों के जीवों को भी बचाव के नए तरीके तलाशने पड़ रहे हैं। समय के साथ समुद्रों की कार्बन अवशोषण क्षमता का कम होना भी तय है।
क्या देर होने से पहले कुछ किया जा सकता है? इस दिशा में प्रयास जारी हैं। समुद्रों का बेहतर मापन, डेटा संग्रहण, सतह का अध्ययन, जलीय जीवों और पौधों के अध्ययन के साथ ऐसी तकनीक पर काम हो रहा है जो समुद्र में कम से कम भावी बदलाव को रोक सके। प्रदूषित जल के समुद्र में मिलने की भी पड़ताल की जा रही है और इससे बचाव की रणनीति बनाई जा रही है। इन सभी कामों को तेज करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन पर समग्रता से नजर डालनी होगी। यदि धरती को बचाना है तो समुद्र भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेसवल्र्ड के पूर्व संपादक तथा संपादकीय सलाहकार प्रोजैैकव्यू के संस्थापक संपादक हैं)
