मैं यह अनुमान लगाने का साहस कर रही हूं कि भारत में नियामक और कार्पोरेट जगत प्रमुख आईटी कंपनी सत्यम के घोटाले को कैसे सुलझाएंगे।
सरकार अपनी जांच शुरू करेगी और इसके संगठन और शाखाएं तकनीकी सुरक्षा मुहैया कराने के लिए एक अंतहीन जांच के सफर पर निकल पड़ेंगे। कुछ लोग यह भी देख सकते हैं कि सत्यम के अपमानित अध्यक्ष बी. आर. रामालिंग राजू को सजा सुनाई जा सकती है।
खातों पर दस्तखत करने वाले ऑडिटिंग कंपनी के अधिकारी के साथ भी कुछ ऐसा ही सलूक किया जा सकता है। हालांकि इन लोगों को दोषी साबित करने में भी समय लगेगा।
ऐसी दशा में आप देखेंगे कि वे जमानत पर रिहा होकर अपने आरामदेह घरों में बैठ कर सेवानिवृत्ति के मजे ले रहे होंगे। इस बीच मीडिया भी काफी हो-हल्ला मचा चुका होगा।
सत्यम कंप्यूटर्स की प्रतिस्पर्धी कंपनियों जैसे भारतीय कार्पोरेट जगत के दिग्गज अपनी नफरत और सदमे को व्यक्त कर टीवी स्क्रीन से उतर जाएंगे।
सभी पक्ष इस घटना को एक बुरे सपने की तरह जल्द से जल्द भूलने की कोशिश करेंगे। जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा। यह सब कार्पोरेट छवि निर्माताओं की मदद से रचनात्मक लेखा और कवर-अप के जरिए संभव होगा।
लेकिन सवाल यह है कि मेरी जैसी पर्यावरणविद् कार्पोरेट (अ)प्रशासन को लेकर क्यों चिंतित है। वजह आसान है: यह स्पष्ट है कि कार्पोरेट भारत विकास के लिए अपने तरीके अपना रहा है, लेकिन ऐसा पर्यावरण और गरीब लोगों की आजीविका की कीमत पर किया जा रहा है।
यह भी साफ है कि इस नुकसान को न्यूनतम किया जा सकता है, अगर उद्योग खुद पर नियंत्रण के साथ सतर्क और विश्वसनीय नियामक प्रणाली के भीतर काम करे।
लेकिन संतुलन की इस चुनौती को केवल उस हालात में ही हासिल किया जा सकता है, अगर नीतियां सार्वजनिक हों, नियामक संस्थानों का गठन किया जाए और उन्हें मजबूती प्रदान की जाए और लोकतंत्र सशक्त बने।
तो हम इस घोटाले के पीछे की असल वजह के बारे में क्या पाते हैं? सत्यम ने बेहतरीन वैश्विक बही और सिद्धान्तों के बावजूद सब कुछ किया। कंपनी ने दुनिया का भरोसा हासिल करने और खुद को संपूर्ण साबित करने के लिए अपनी छवि को चमकाया।
सत्यम इतना कुछ कर पाई क्योंकि विश्वसनीय कार्रवाई के लिए जिम्मेदार एजेंसियां भ्रष्ट और कमजोर थीं। जन संपर्क पर किए जाने वाले भारी खर्च, मीडिया प्रबंधन और लोकतंत्र के पहरेदारों की दंतहीनता ने इस षड़यंत्र में सहयोग किया।
हमें इस समस्या की तह में जाने की जरुरत है। इसे सुलझाना भी होगा। मुझे स्पष्ट करने दीजिए कंपनी आज सबसे बड़ी ऑडिटिंग फर्म और हाई-फाई सलाहकारों की सेवाएं लेती हैं।
ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं किया जाता है कि ये कंपनी मेहनत से बेहतरीन काम करती हैं बल्कि इसके पीछे सार्वजनिक छवि और सार्वजनिक संपर्क को मजबूत करने का मकसद भी रहता है।
वे संरक्षण के लिए भुगतान करती हैं, न कि ऑडिटिंग सेवाओं के लिए। कुछ वर्षों पहले स्वच्छ विकास प्रणाली (सीडीएम) के तहत कार्बन क्रेडिट की बिक्री की जांच शुरू की गई।
हमने पाया कि परियोजना को प्रमाणपत्र देने के लिए जिन एजेंसियों की सेवाएं ली जा रही थीं, वे धोखाधड़ी के सिवाए कुछ नहीं कर रहीं थीं। वे केवल विभिन्न परियोजनाओं से जुड़ी विभिन्न रिपोर्टों की कांट-छांट करके अपने ग्राहक के लिए प्रमाणपत्र तैयार कर रहीं थीं।
इस मामले में भी ऑडिटर सत्यम प्रकरण से बदनामी झेल चुकी प्राइसवाटर हाउस थी और साथ ही उसके समान ही प्रतिष्ठित अर्नेस्ट एंड यंग भी शामिल थी। जब हमने अपनी जांच को प्रकाशित किया तो हमने सीडीएम ऑडिटर के मुकाबले सीडीएम प्रक्रिया को अधिक दोषी ठहराया।
इस मामले में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने एक ऐसी प्रक्रिया तैयार की है जिसमें परियोजना का प्रस्तावक परियोजना के डिजायन के लिए एक सलाहकार की सेवाएं लेता है और यही कंपनी अपने सलाहकार द्वारा तैयार रिपोर्ट के सत्यापन के लिए एक अन्य पुष्टि (वैलिडेटर) एजेंसी की सेवाएं लेती है।
बोन स्थित सीडीएम बोर्ड के अधिकारी कुछ विश्व स्तरीय पुष्टि एजेंसियों का चयन करते हैं। बोर्ड ने अपने कुछ नियम बनाए हैं जिनके आधार पर यह तय किया जाता है कि कौन सी परियोजना योग्य है। जाहिर तौर पर पूरी प्रक्रिया में ऐसे बड़े प्रमाणपत्रदाताओं की सेवाएं लेना महत्त्वपूर्ण है, जो जानते हों कि मंजिल तक कैसे पहुंचा जा सकता है।
इसका परिणाम क्या हुआ: रचनात्मक कार्बन खातों के लिए एक फलता-फूलता कारोबार तैयार हो गया। लेकिन सीडीएम परियोजनाओं की मंजूरी हासिल करना अब आसान काम नहीं रह गया था। भारी-भरकम सलाहकारों की मदद लेने के लिए बड़ी संख्या में पैसा भी चाहिए था।
यह रकम काफी अधिक है, इस कारण पूरी प्रक्रिया से बड़ी संख्या में छोटी कंपनियां और समुदाय बाहर हो गए, जोकि वास्तव में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए काम कर रहे हैं या कर सकते थे। बड़े खिलाड़ियों ने पूरी प्रक्रिया को जटिलता, मुनाफे और बड़े कारोबार के लिए तैयार किया है।
जब अपना मतलब चंगा है तो दूसरों की परवाह कौन करता है। पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) के लिए राष्ट्रीय प्रणाली एक और उदाहरण देती है। सलाहकार कंपनियां फर्जी दस्तावेज तैयार कर रही हैं, इस बारे में कई मामले बार-बार दायर किए गए हैं।
लेकिन एक भी कंपनी को सार्वजनिक तौर से काली सूची में नहीं डाला गया है। एक भी परियोजना प्रस्तावक मंजूरी हासिल करने के लिए जर्मी खाते तैयार करने के मामले में जेल नहीं गया है।
हमने यह भी पाया है कि ऐसी कंपनियां जो काफी खर्चीले और समय की खपत वाले आईएसओ 14001 प्रमाणपत्र हासिल करने की प्रक्रिया से गुजरी हैं, जमीन पर उनका प्रदर्शन अक्सर ही काफी बुरा रहा है। इससे लगता है कि ऐसी प्रक्रियाएं सच्चाई को छिपाने के लिए बेहतरीन आवरण मुहैया कराती हैं।
और अपेक्षाकृत बड़ी ऑडिटिंग कंपनी का अर्थ है कि अपेक्षाकृत बड़ा संरक्षण। मूलत: जांच की कमी ऐसी प्रणालियां को बढ़ावा देती है। ऐसे मामलों में सजा नहीं मिलने के कारण भी धोखाधड़ी करने वालों को बढ़ावा मिलता है। लेकिन यह एक दुर्घटना नहीं है।
यह जानबूझकर भारतीय लोकतंत्र के स्वभाव में किए जा रहे बदलावों का नतीजा है। यह नियमन और निगरानी रखने के लिए जवाबदेह संस्थानों को कमजोर करने का नजीता है।
सत्यम इस प्रणाली में एक दरार है। लेकिन क्या हम इन विसंगतियों को पूरी तरह से उजागर करना चाहते हैं? ऐसा कब होगा?