अगर आप कंप्यूटर पर चौबीसों घंटे बिताने वाले किसी शख्स से पूछेंगे कि वह क्या कर रहा है, तो ज्यादातर मामलों में जवाब आएगा, ‘मैं तो बस स्काइपिंग कर रहा हूं’ या फिर ‘स्काइप पर हूं’। स्काइप असल में इंटरनेट की मदद से चलने वाला एक काफी पॉपुलर कंप्यूटर प्रोग्राम है, जिसकी मदद से आप नए–नए लोगों से मिल सकते हैं। साथ ही पुराने दोस्तों से भी आप इसके जरिये जुड़े हुए रह सकते हैं। बस एक हेडफोन की जरूरत है, फिर आप स्काइप पर मौजूद आपने दोस्तों से बात भी कर पाएंगे। वह भी मुफ्त में। अगर आपके कंप्यूटर में वेब कैमरा भी है, फिर तो सोने पर सोने पर सुहागा। फिर तो आप अपने दोस्तों को देख भी पाएंगे। आप उनकी हर मुस्कान और हर आंसू को भी देख पाएंगे। वैसे, इसके जरिये आजकल मैं और इंगलैंड के यॉर्कशर में रहने वाली मेरी दोस्त जे अपने–अपने दुख बांट रहे हैं। इसके जरिये हम दोनों एक–दूसरे के मुल्कों की हुकूमतों को खूब गालियां दे रहे हैं। कारण हैं, दोनों मुल्कों के वीजा नियम।
जे यॉर्कशर में एक मैनेजमेंट कंसल्टेंसी चलाती है। उसका भारत आना–जाना 1970 से ही लगा है। वह कभी यहां काम के सिलसिले में आती है, तो कभी घूमने–फिरने और मौज–मस्ती के लिए। पहले उसके लिए भारत आना काफी आसान हुआ करता था। पहले जे केवल अपना पासपोर्ट और वीजा के फॉर्म को भरकर अपने ट्रैवल एजेंट के हवाले कर देती थी, और वह एजेंट सारे काम निपटाता था। लेकिन अब तो यह एक ख्वाब ही बन रहा गया है। भारतीय वीजा की उम्मीद रखने वाले लोगों को अब आठ पेजों का मोटा–ताजा फॉर्म, ऑनलाइन ही भर कर जमा करना होता है। हम भले ही खुद को आईटी के मामले में दुनिया का बाप क्यों न कह लें, लेकिन यह सारे भ्रम लंदन में भारतीय उच्चायोग की घटिया दशा देखकर दूर हो जाते हैं। यह इतना परेशान करने वाला है कि एक गलत फील्ड में क्या इंट्री कर दी, और बूम। आपका फॉर्म गायब हो जाएगा। दिक्कत सबसे ज्यादा इसी बात से होती है कि इस फॉर्म को भरने के लिए फॉर्म में अधिकतर जानकारी दी ही नहीं गई है। एक गलत बटन दबाया और फॉर्म गायब हो जाएगा। आपको फिर से शुरू से फॉर्म भरना पड़ेगा।
साथ ही, इस वीजा फॉर्म में अजीबो–गरीब सवाल भी पूछे जाते हैं। मिसाल के तौर पर आपके माता–पिता कहां पैदा हुए थे और क्या आपका बांग्लादेश और पाकिस्तान से कोई रिश्ता तो नहीं है। ऊपर से यह हिंदुस्तानी लालफीताशाही की बार–बार एक ही सवाल पूछने की आदत को भी दिखलाता है। इस फॉर्म में कई बार आपसे आपके पासपोर्ट का नंबर पूछा जाता है। एक बार जब वह फॉर्म भर देते हैं, तो वह पूरा मसौदा एक ही पेज में सिमट जाता है। उसे आपको प्रिंट करके अपने ट्रैवल एजेंट के पास भेजना होता है। इस पूरी कवायद से बुरी तरह से ऊब चुकी मेरी दोस्त जे ने मुझसे एक ही सवाल पूछा, ‘क्या अपनी छुट्टी को बर्बाद करने का इससे बेहतर तरीका तुम्हारे पास है?’
इसके बाद आई मेरी बारी। पिछले कई हफ्तों से मेरी जिंदगी के कई घंटे मुझे मेरी बेटी को उसके स्टूडेंट वीजा फॉर्म को भरने में मदद करने में जाया करने पड़ रहे थे। शुक्र है, आजकल वह ब्रिटेन में अपनी पढ़ाई कर रही है। सच कहता हूं, उस फॉर्म को भरने में मुझे भी नानी याद आ गई थी। वह वीजा फॉर्म, फॉर्म नहीं, पूरे 16 पेजों का मोटा–ताजा पुलिंदा था। उसमें तो सात पेज ‘गाइडेंस नोट्स’ के थे, जिसमें फॉर्म भरने के तरीके बताए गए थे। नई दिल्ली की ब्रिटिश कॉउंसिल में तो एक पूरे के पूरा प्रेजेंटेशन ही इसलिए आयोजित किया जाता है, ताकि भारतीय छात्र यह जान सकें कि इस बेहद मुश्किल फॉर्म को कैसे भरा जाए। वैसे, ब्रिटिश कॉउंसिल वाले बड़ी इज्जत के साथ इसे ‘ओरियंटेशन’ के नाम से पुकारते हैं, जिसके लिए वे बच्चों से फीस भी वसूलते हैं। आपको यकीन नहीं होगा, लेकिन इस फॉर्म को भरने के लिए आपको बैंक, अकाउंटेंटों, स्टॉक ब्रोकरों और उन सभी इंसानों के पास भटकना होगा, जिनके बारे में आपको याद भी नहीं होगा। एक लाइन में कहें तो इसके लिए आपको दर–दर की ठोकरें खानी पड़ेंगी।
अब इस फॉर्म के एक सवाल को ही ले लीजिए। इस फॉर्म का सवाल संख्या 6.3.13 है, ‘क्या आपके पास कोई जमापूंजी, जायदाद या आय के दूसरे स्रोत, मिसाल के तौर पर शेयर या स्टॉक्स हैं?’ उसके बाद प्रश्न संख्या 6.1.35 दिखलाता है, ब्रिटिश बाबुओं की भी एक ही सवाल को बार–बार पूछने की आदत को। यह सवाल है, ‘क्या आपकी पढ़ाई खर्च उठाने वालों के पास कोई जमापूंजी या शेयर या स्टॉक जैसे आय के ऐसे जरिये हैं, जिससे तुरंत पैसे निकाले जा सकते हैं? अगर हां, तो ब्योरा दें।’
मेरे बैठकखाने में टंगी तस्वीरों और मेरी पुश्तैनी जमीन को छोड़कर गोरे मेरी एक–एक पाई का हिसाब चाहते थे। मेरी बेटी की एक सहेली के आवेदन को इसीलिए नामंजूर कर दिया गया क्योंकि उसके पिता ने तीन सालों के टैक्स रिटर्न की जगह पर केवल एक साल का रिटर्न जमा किया था। पोस्टग्रैजुएट छात्रों को तो 10वीं के बाद से हरेक क्लास और कोर्स के रिजल्ट की असल कॉपी मुहैया करवानी होती है। मेरी बेटी को लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स ने बिना किसी शर्त एडमिशन दिया था। लेकिन जब हमने उस एडमिशन ऑफर की सॉफ्ट कॉपी मुहैया करवाई तो उसे नामंजूर कर दिया गया। मेरी बेटी को लंदन से अपने एडमिशन की हार्ड कॉपी मंगवाने के लिए कई–कई घंटे फोन पर गुजारने पड़े। आखिरकार, उसके जाने के बाद भी हमें आयकर विभाग के अधिकारियों, पुलिस और कुछ शिक्षा समितियों के हजार तरह के सवालों का जवाब देना पड़ा था। हफ्तों की इस मशक्कत के बाद माता–पिताओं का अपनी–अपनी हुकूमतों को गालियां देना काफी स्वाभाविक है। मैंने और जे ने स्काइप पर यही जाना कि दुनिया भले ही काफी छोटी हो चुकी है, लेकिन इसकी दुश्वारियां कम नहीं हुई हैं।