अमेरिका के अधिकारी कई सप्ताह से मीडिया ब्रीफिंग में चेतावनी दे रहे थे कि रूसी संघ अपने पड़ोसी देश यूक्रेन पर चढ़ाई करने जा रहा है। इसके बावजूद रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन का सीमा पार टैंक एवं मिसाइल भेजने का फैसला चौंकाने वाला रहा है। शायद आक्रमण का स्तर आश्चर्यजनक था क्योंकि अमेरिका के जोर देने के बावजूद शायद ज्यादातर को यह लगता था कि ज्यादा से ज्यादा रूस पूर्वी यूक्रेन में डोनबास के रूसी भाषी अलगाववादी क्षेत्र की सीमाओं को बढ़ाने की कोशिश करेगा और शायद उन्हें किसी तरह के जमीनी पुल के जरिये कमजोर क्राइमियाई प्रायद्वीप से जोड़ दे।
रूस ने कई मोर्चों-डोनबास से, क्राइमिया से, बेलारूस के दक्षिण से राजधानी कीव पर और कुस्र्क से हमला किया है। इसके बाद के कुछ सप्ताह में यूक्रेन के शहर खारकीव में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नामी टैंकों की जंग का नजारा नजर आ रहा है। मगर दुनिया के बहुत से बड़े देश कतई तैयार नजर नहीं आ रहे हैं।
चीन ने पहले घोषणा की थी कि चीन-रूस के संबंधों की ‘कोई सीमा नहीं’ है। चीन ने रूस की आलोचना नहीं की, लेकिन इस मुद्दे पर उसके बयानों में हिचक और अस्पष्टता थी, जो पहले कभी नजर नहीं आई थी। चीन की दुनिया के छोटे देशों से हमेशा यह अपील रही है कि वह संप्रभुता का पश्चिमी देेशों से ज्यादा सम्मान करता है। लेकिन उसका व्यापक परमाणु हथियारों से सुसज्जित एक देश की एक छोटे से पड़ोसी देश के खिलाफ खुली आक्रामकता का समर्थन करना उसकी इन बातों को झुठला देता है।
इस बीच भले ही अमेरिका और यूरोपीय संघ ने जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया दी हो, लेकिन साफ तौर पर लंबी अवधि के प्रभावों की स्पष्ट समझ के बिना। उन्होंने यूक्रेन के बचाव में सीधे सैन्य दखल की संभावना को खारिज किया है, जिस श्रेणी में उन्होंने यूक्रेन के आकाश पर नो फ्लाई जोन लगाने को भी शामिल किया है। हालांकि इन नेताओं ने कहा है कि उनके पास सीमित विकल्प हैं।
इस तरह उन्होंने रूस की अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रतिबंध लगाने की मांग की है। इन प्रतिबंधों का असर शेष दुनिया पर भी उतना ही होगा, जितना आम तौर पर निशाना बनाए जा रहे रूस के नेताओं पर होगा। तेल की कीमतें बढ़ गई हैं। स्विफ्ट अंतरबैंक नेटवर्क और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण जैसी वैश्विक सुविधाओं का इस्तेमाल युद्ध के लक्ष्य हासिल करने में किया जा रहा है। लेकिन यहां इस बारे में विचार नहीं किया जा रहा है कि ऐसे एकपक्षीय फैसलों से शेष दुनिया में क्या संदेश जाएगा।
आने वाले समय में रूस की अर्थव्यवस्था पाएगी कि वह उतनी प्रतिबंध मुक्त नहीं है, जितना शायद पुतिन ने हमले की मंजूरी देते समय सोचा होगा। लेकिन इस बात के आसार कम हैं कि यह आर्थिक चोट गहरी होगी और जमीन पर सैन्य तथ्यों को पलट देगी।
इस बीच भारत उचित फैसला नहीं ले पाने की पुरानी समस्या से जूझ रहा है। भारत की संयुक्त राष्ट्र में गैर-मौजूदगी को रूस का समर्थन माना जा रहा है। हालांकि शायद यह गलत है।
भारतीय नीति निर्माता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि ऐसे फैसले राष्ट्रीय हितों में लिए जाते हैं। लेकिन फिर यह भी नहीं बता पाते हैं कि असल में यहां क्या राष्ट्रीय हित है। अगर संप्रभुता की रक्षा करना, यहां तक कि बयानों में भी, राष्ट्रीय हित नहीं है तो क्या है? अब भारत इस हमले के नकारात्मक नतीजों- तेल एवं जिंसों की ऊंची कीमतों से लेकर वैश्विक बाजारों में अस्थिरता और वैश्विक वित्त में जोखिम में कमी से लेकर से लेकर ऊंचे रुपये को संभालने में जुटा हुआ है।
इस बात का उल्लेख करने की जरूरत नहीं है कि युद्ध क्षेत्र से हजारों भारतीय छात्रों को निकालने के लिए बहुत अधिक व्यवस्थाएं करनी पड़ी हैं। चिंताजनक बात यह है कि ऐसा लगता है कि भारत सरकार यह अस्थिरता पैदा करने वाले रूस के खिलाफ कोई सख्त शब्द इस्तेमाल किए बिना इन सभी तकलीफों को झेलने को तैयार है।
इस हमले से बहुत कम विजेता उभरेंगे। रूस को वह त्वरित विजय नहीं मिल पाई, जो वह चाहता था और उसे विश्व में घृणित रूप में देखे जाने का लंबा और दुखद समय नजर आ रहा है। यूरोपवासियों को अपने पूर्व से जोखिम की हकीकत से निपटना पड़ेगा और फिर से अपनी सेना पर धन खर्च करने की शुरुआत करनी होगी। अमेरिका ने एक बार फिर अपनी कमजोरी दिखाई है। हालांकि उसकी बुद्धिमान जनता वह सम्मान दोबारा हासिल कर लेगी, जो उसने पिछले दो दशकों में गंवाया है। इसका श्रेय उनके अनुमानों की सटीकता को जाता है। भारत और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के वैश्विक महामारी से उबरना सवालों के घेरे में आ गया है। जिंसों की कीमतों में तेजी पहले ही बने महंगाई के दबाव को और बढ़ा रही हैं। कम से कम चीन इस बात को लेकर संतोष कर सकता है कि अब तक उस पर उस चीज का दोषारोपण नहीं किया जा रहा है, जो रूस के उसके ग्राहकों ने चुना है और पश्चिम के जवाब ने रूस को कोने में धकेल दिया है। इस बीच कोई सैन्य जवाब नहीं दिए जाने से चीन निस्संदेह ताइवान को कब्जाने की योजना बनाएगा।
निस्संदेह सबसे ज्यादा नुकसान में यूक्रेन के लोग रहेंगे, जिन्हें दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक से खुद ही मुकाबला करने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है। टैंकों के असल में सीमा पार करने से पहले तक सैन्य सहायता को रोके रखा गया, जो पश्चिम की खुद की बुद्धिमता का गलत आकलन था। अगर सीरिया और चेचेन्या को एक संकेत मानें तो रूस का नेतृत्व यूक्रेन के आसमान पर कब्जा करने के बाद उसे आत्मसमर्पण को बाध्य करना चाहेगा। लेकिन यूक्रेनवासियों को कम से कम यह जान लेना चाहिए कि उनकी अपनी रक्षा की ताकत और जुझारूपन से पुतिन के अलावा किसी को भी यह संदेह नहीं है कि वे अपने आप में एक राष्ट्र हैं और वे महान रूस के पिछलग्गू नहीं हैं।
