युद्ध से पहले भारत के सामने चीन की चुनौती थी और वह एक कठिन भूराजनीतिक परिदृश्य से गुजर रहा था। भारतीय सेना और विदेश नीति दोनों के लिए रूस मजबूती का जरिया रहा है। परंतु यूक्रेन के साथ जंग ने रूस को कमजोर किया और उसे चीन के करीब भी किया। यह भारत के लिए दिक्कत की बात है। हालांकि भारत की स्थिति मजबूत करने के रास्ते मौजूद हैं लेकिन बुनियादी तथ्य यह है कि सीमा पर समस्याएं बढ़ी हैं। हम सरकारी व्यय में इजाफे का प्रस्ताव रखने में बहुत सतर्कता बरतते हैं लेकिन हमारा सुझाव है कि भारत को आने वाले कुछ वर्षों तक रक्षा व्यय में इजाफा करना चाहिए। हर वर्ष सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के कम से कम एक फीसदी के बराबर इजाफा किया जाना चाहिए।
यूक्रेन युद्ध विदेश नीति, तकनीक, सैन्य मामलों और आर्थिक मामलों में भारत के लिए काफी अहम प्रभाव लेकर आया है। पुणे इंटरनैशनल सेंटर, तक्षशिला संस्थान और एक्सकेडीआर फोरम ने 1 अगस्त को पुणे में इस विषय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया। इस आयोजन में इन अहम सवालों पर जबरदस्त बहस हुई।
रूस विदेश नीति और हथियारों के क्षेत्र में भारत का अहम साझेदार रहा है। परंतु एक पहलू जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता है वह यह है कि इस निर्भरता के कारण भारत का सैन्य खर्च कम है क्योंकि रूस के सैन्य उपकरण और हथियार अपेक्षाकृत सस्ते हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद तथा अन्य मंचों पर भारत जब भी मुश्किल में पड़ा है, रूस ने हमेशा उसका समर्थन किया है।
यूक्रेन युद्ध ने भारत की स्थिति को तीन तरह से कमजोर किया है। पहली समस्या है सैन्य उपकरणों की। रूसी संगठनों पर लगे प्रतिबंधों ने वैश्विक तकनीक तक उनकी पहुंच मुश्किल की है। यूक्रेन में रूस के हथियारों के कमजोर प्रदर्शन के कारण उनका निर्यात बाजार प्रभावित हो सकता है और ऐसे में शोध एवं विकास तथा निर्माण के लिए संसाधन जुटाने में भी दिक्कत आएगी। भारत के लिए संभव है कि अब रूसी हथियार कमजोर तकनीकी क्षमता वाले साबित हों। इसका असर कीमत और संख्या पर भी पड़ेगा।
दूसरी समस्या विदेश नीति से संबंधित है। कमजोर रूस उस समय कम प्रभावी होगा जब भारत को विदेश नीति से जुड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। ऐसे हालात बन सकते हैं जहां भारत को रूस का समर्थन सीमित या लगभग न के बराबर हो।
तीसरी समस्या चीन से संबंधित है। भारत के सामने सबसे अहम भूराजनीतिक चुनौती है चीन की बढ़ती सैन्य आक्रामकता। यूक्रेन युद्ध के मामले में जहां ज्यादातर प्रमुख देशों ने रूस के खिलाफ एकजुटता दिखाई है, वहीं रूस को चीन से साफ समर्थन मिला है। इस बात की संभावना है कि भविष्य में रूस और चीन के बीच रिश्ता मजबूत होगा। यूरोपीय देशों द्वारा चरणबद्ध तरीके से रूसी गैस की खरीद बंद किए जाने के बीच रूस चीन में गैस पाइपलाइन बिछा रहा है। यह साझेदारी अंतत: भारत के हितों के खिलाफ जाएगी।
अल्पावधि में पारंपरिक भारतीय शक्ति संसाधन कमजोर होंगे। हमें चीन से होने वाले खतरे का आकलन किस प्रकार करना चाहिए? चीन की अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है और उसकी आबादी भी असहज है। एक पार्टी वाला शासन ताइवान जैसे देश पर हमला नहीं कर सकता है क्योंकि वह पश्चिमी गठजोड़ के साथ मजबूत रिश्ते में है। भारत अधिक व्यावहारिक लक्ष्य हो सकता है। चीनी शासन भारत के खिलाफ राष्ट्रवाद और सैन्य गतिविधियों के माध्यम से आंतरिक अशांति का दमन करने का प्रयास करेगा।
युद्ध भारत पर बुरा असर डाल सकता है। ये घटनाएं 2021 में आई हमारी पुस्तक के प्रमुख संदेश को दोहराती हैं। रूपा पब्लिकेशन से प्रकाशित राइजिंग टु द चाइना चैलेंज नामक इस पुस्तक में (लेखक बंबावले तथा अन्य) कहा गया था कि भारत को उच्च जीडीपी वापस हासिल करनी होगी तथा करीब 20 गठबंधन साझेदारों के साथ मिलकर गहरी संबद्धता कायम करनी होगी।
विदेश नीति परस्पर निर्भरता वाला नेटवर्क तैयार करने की कला है जहां हर देश अपनी घरेलू नीतियों को इस प्रकार बदलता है ताकि वह अन्य देशों के अनुकूल बन सके। भारत के लिए भी ऐसा करना ही सही होगा। लेकिन 20 देशों के हिसाब से नीतियों को नया आकार देना तथा सांस्कृतिक, आर्थिक, कूटनीतिक तथा सैन्य रिश्तों को मजबूती देना काफी समय लेगा।
हमें भय है कि हालिया घटनाक्रम सैन्य रणनीति में काफी महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया की मांग करता है। रक्षा क्षेत्र को प्राथमिकता पर जोर देना होगा। इस दौरान सैन्य सुधार अपनाने होंगे, मसलन सैन्य आधुनिकीकरण, तीनों सेनाओं की क्षमताओं को सुसंगत बनाना और बेहतर उपकरणों के साथ कम जवानों के लक्ष्य की ओर बढ़ना। यूक्रेन की सैन्य रणनीति से यह सीखा जा सकता है कि सामने ताकतवर शत्रु हो तो कैसे लड़ा जाए?
3,488 किलोमीटर लंबी सीमा पर चीन की आक्रामकता से निपटने के लिए जरूरी तैयारी रखनी होगी। हिंद महासागर क्षेत्र में नौसेना के दबदबे की नीति की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह सब करते हुए हमें अधिक महंगे पश्चिमी रक्षा उपकरण भी खरीदने होंगे। रक्षा खरीद और रक्षा अर्थशास्त्र में नये स्तर की राज्य क्षमता आवश्यक है। इसके लिए पैसा चाहिए।
हमने अपने पूरे करियर में कभी सरकारी व्यय बढ़ाने की बात नहीं कही। फरवरी 2022 तक हमारा जोर इस बात पर था कि पहले सैन्य-संस्थागत सुधार किए जाएं और उसके बाद ही सुधरी हुई व्यवस्था में धनराशि व्यय की जाए। संभव है कि हालिया घटनाक्रम के बाद रक्षा सुधार की यह सुविधा हमारे पास न रह जाए। अब हमें कुछ ज्यादा कठिन चीजों की आवश्यकता होगी।
हमारे सामने ऐसी स्थिति है मानो विमान की उड़ान के बीच ही हमें इंजन सुधारना हो। हमें रक्षा सुधार, पश्चिमी उपकरणों की खरीद और उत्तरी सीमा पर बेहतर प्रतिरोध जैसे तीनों काम एक साथ करने होंगे।
दशकों तक समझदारी भरी विदेश नीति और सैन्य प्रबंधन के जरिये हमने अपने रक्षा व्यय को जीडीपी के 1.3 फीसदी तक सीमित कर लिया। इससे देश के विकास की परियोजनाओं पर व्यय करने में मदद मिली। परंतु मौजूदा हालात में कुछ वर्षों तक सैन्य व्यय को हर वर्ष जीडीपी के एक फीसदी की दर से बढ़ाने की आवश्यकता है।
राजकोषीय तनाव के दौर में यह पैसा कहां से आएगा? ऋण-जीडीपी अनुपात को स्थिर करने के लिए जीडीपी में दो फीसदी के बराबर राजकोषीय सुधार की आवश्यकता है। देश में कर दर ऊंची है और उसे बढ़ाया नहीं जाना चाहिए। बढ़े रक्षा व्यय के लिए गुंजाइश बनाने के लिए सब्सिडी व्यय में कमी अवश्य की जा सकती है।
(लेखक पुणे इंटरनैशनल सेंटर के सदस्य हैं)