हाल के दिनों में शिक्षा क्षेत्र की तरह चिकित्सा व्यवसाय का भी बेतरतीब ढंग से बाजारीकरण हो गया है। इससे समाज पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
आए दिन अस्पतालों और डॉक्टरों के खिलाफ दर्ज मामलों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। बहुत सारे रोगियों और उनके परिवार के लोगों का मानना है कि सभी तरह की बीमारियों को ठीक करना डॉक्टरों का कर्तव्य है।
उनके ऐसा न कर पाने की स्थिति में वे उनके खिलाफ फौजदारी और दीवानी कार्यवाही शुरु कर देते हैं। कई मामलों में तो ऐसी स्थितियां भी उजागर हुई हैं कि रोगियों और उनके संबंधियों ने कानून को अपने हाथ में लेते हुए डॉक्टरों पर हमला भी किया है। ऐसा लगता है कि वे डॉक्टरों के खिलाफ आक्रामक व्यवहार कर उपभोक्ता अधिकार जताने की कोशिश करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय और उपभोक्ता आयोग ने हाल के कई मामलों में इस तरह की प्रवृत्ति के खिलाफ चेतावनी भी दी है। पिछले पखवाड़े सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष महावीर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के तहत एक मामला आया, जिसमें इलाज में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया गया था।
एक आदमी, जिसे बदन दर्द की शिकायत थी, को एक क्लिनिक में लाया गया। डॉक्टर ने उसे तीन इंजेक्शन लगाए। आधे घंटे के अंदर वह आदमी बेहोश हो गया और फिर उसकी मौत हो गई। उसके बेटे ने डॉक्टर के खिलाफ तुरंत एक आपराधिक मामला दर्ज करा दिया।
डॉक्टर पर यह आरोप लगाया गया कि उसने जान-बूझकर लापरवाही बरती, जिसकी वजह से उस आदमी की मौत हो गई। यह आरोप भी लगाया गया कि डॉक्टर ने मृतक के बेटे को धमकी दी कि मामला दर्ज कराए जाने पर उसे गंभीर नतीजे भुगतने को तैयार रहना चाहिए। इस तरह डॉक्टर को मरीज की मौत के सिलसिले में चार गंभीर आरोपों का सामना करना पड़ा।
डॉक्टर ने उसकी शिकायत को निरस्त कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन अदालत ने उसकी याचिका खारिज कर दी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, लेकिन उसने लगाए गए आरोपों को थोड़ा नरम जरूर कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि डॉक्टर पर महज लापरवाही का आरोप लगाया जा सकता है लेकिन उसे न्यायालय में साबित किया जाना चाहिए। इस प्रकार डॉक्टर को फौरी तौर पर थोड़ी राहत जरूर मिल गई, लेकिन कुछ हल्के किए गए आरोप पर सुनवाई जारी रहेगी। इस संदर्भ में न्यायालय ने जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य (2005) के मामले का हवाला दिया।
फैसले में कहा गया, ‘इलाज की वजह से मृत्यु जैसे मामले में डॉक्टर के खिलाफ फौजदारी अदालत में मामला नहीं चलाया जा सकता। पर्याप्त चिकित्सकीय राय जाने बगैर डॉक्टरों को दोषी इंगित करते हुए उसके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने से पूरे चिकित्सक समुदाय पर आंच आएगी।
अगर अस्पताल और डॉक्टरों पर इस तरह की किसी भी गतिविधि के लिए आपराधिक मामला दर्ज किया जाएगा, तो डॉक्टरों की चिंता बढ़ती रहेगी और वह आगे भी रोगियों का बेहतर इलाज करने में झिझकने लगेगा। इससे रोगी और डॉक्टर का आपसी विश्वास भी हिल जाएगा। अस्पताल या क्लिनिक में हुई हर विफलता या दुर्भाग्यपूर्ण परिणति के संबंध में यह कह देना कि यह लापरवाही का नतीजा है, उचित नही होगा।’
इस तरह का निर्णय डॉक्टरों के लिए एक तरह का सहूलियत ही है। हालांकि, चिकित्सा कर्मियों की प्रवृत्तियों और अधिकारों के प्रति रोगियों की सजगता में काफी परिवर्तन आया है, जिसका असर समाज में स्पष्ट तौर पर दिखने को मिल रहा है।
कहा जाता है कि रोगियों और डॉक्टरों के बीच एक व्यक्तिगत बंधन होता है, लगाव होता है, लेकिन समय के साथ-साथ बाजारीकरण के इस दौर में इसमें काफी परिवर्तन आया है। डॉक्टर आजकल पूरी तरह से व्यावसायिक बनने की होड़ में शामिल हो गए हैं।
एक क्लिनिक से दूसरा क्लिनिक खोलने की उनकी तत्परता की वजह से सेवा की भावना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। डॉक्टर गंभीर से गंभीर मामले भी अपने जूनियर पा छोड़ देते हैं। दूसरी तरफ, उपभोक्ता मंच में बिना अदालती फीस के भी पीड़ित अपनी शिकायत दर्ज कर सकते हैं। लेकिन इसका एक काला पक्ष भी है।
अस्पताल और डॉक्टरों पर आपराधिक मामले दर्ज कर उससे मौद्रिक लाभ लेने के लिए सौदेबाजी तक की जाती है। इसके परिणामस्वरूप, डॉक्टर काफी सतर्क हो गए हैं और रोगियों से बीमा लागत भी लेने लगे हैं। चिकित्सा सेवा के ही तहत रोगियों या उनके संबंधियों से कागजी औपचारिकताएं पूरी करवा ली जाती है, ताकि किसी हादसे की स्थिति में उसपर कोई परेशानी न आने पाए।
अब डॉक्टर रोगियों की जांच काफी सारे चेक अप और उसकी रिपोर्टों के आधार पर करते हैं। वे अपने निर्णय और अनुभूति के आधार पर कोई इलाज नहीं करते, बल्कि मशीनों का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। यहां तक कि डॉक्टर सामान्य डिलेवरी का इंतजार भी नहीं करते हैं और कोशिश करते हैं कि सिजेरियन ऑपरेशन के जरिये इसे निष्पादित कर दिया जाए, क्योंकि इसमें जोखिम कम होता है।
भारतीय मेडिकल परिषद इन बदतर स्थिति को देख रही है, लेकिन समय रहते इसे दूर करने या हल करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई है। भारतीय मेडिकल परिषद बनाम वी पी शांता (1995) मामले में निर्णय देते हुए इन सारी गतिविधियों को सर्वोच्च न्यायालय ने उपभोक्ता अदालत के दायरे में लाने की बात कही थी।
लेकिन इन समस्याओं के निवारण के लिए कोई ऐसी प्रणाली नहीं विकसित की गई, जिससे इस पेशे और उससे लाभान्वित होने वाले लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा सके। इस तरह की बातें जब होती है, तो सारी जिम्मेदारियां न्यायालय के कंधों पर आ जाती है।
विज्ञान की पर्याप्त जानकारी के आधार पर रोगों का इलाज करना, अस्पताल में समुचित बुनियादी ढांचाओं का होना आदि ऐसी बातें हैं, जिनसे रोगियों में सहनशीलता और विश्वास का जन्म होता है। न्यायालय भी इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि इस पेशे में इन बातों का होना अत्यंत जरूरी है, ताकि सेवा भाव की आत्मा को जीवित रखा जा सके।
न्यायालय पर इस संबंध में यह आरोप लगता है कि वह हानि का मुआवजा देने में उदारता नहीं बरतती है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि यह अमेरिकी मॉडल को त्यागने की कवायद है, जहां अगर खेल के मैदान में खेलते हुए किसी बच्चे की टांग टूट जाती है और डॉक्टर उसके इलाज में कोई गलती करता है, तो इतना मुआवजा मिलता है कि उससे उसके कॉलेज की शिक्षा का पूरा खर्च निकल आता है।