विकासशील देशों की प्रणाली की जो विशेषताएं हैं, उनमें से ज्यादातर वहां देखने को मिल रही हैं। उसके वृहद आर्थिक आंकड़े पटरी पर नहीं हैं क्योंकि उसका राजकोषीय घाटा जीडीपी की 8.5 फीसदी पर पहुंच गया है और कई सालों से व्यापार घाटा भी चल रहा है, जो जीडीपी का करीब 5 फीसदी है।
अर्थव्यवस्था कुल मिलाकर भारी अंतरराष्ट्रीय उधारी पर चल रही है, वह भी ऐसे स्तर पर जिसे आम तौर पर टिकाऊ नहीं माना जा सकता। इसके परिणामस्वरूप बचत और जीडीपी का अनुपात बहुत खराब स्थिति में पहुंच गया है।
उसके पास दिवालिया वित्तीय प्रणाली है, जिसे बड़े पैमाने पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण से ही बचाया जा सकता है। इसका विकल्प यह है कि बैंकिंग प्रणाली वस्तुत: पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में होगी। उद्योगों के महत्त्वपूर्ण हिस्से (और कृषि भी) गैर-प्रतिस्पर्धा हैं और सरकारी सब्सिडी की बदौलत ही वे बचे हुए हैं।
इसके ढांचे में शीर्ष पर धनाढयों का कब्जा है जो आम लोगों के आक्रोश के बावजूद अपने लिए पैसा बनाने में व्यस्त हैं जबकि जनता सुविधा के लिए संघर्ष कर रही है और कर्ज में डूबी हुई है। उसके राजनेता ऐसे हैं कि जब भी वे नीतियां बनाते हैं, धनाढयों की झोली में और ज्यादा रकम फेंक देते हैं। कारोबारी माहौल ऐसा है कि लगातार एक के बाद एक घोटाला सामने आता है।
समाज के तौर पर यहां असमानता का विकास हो रहा है, आय और धन दोनों मामलों में। यहां बड़ी संख्या निचले तबकों की है। अल्पसंख्यक वर्ग स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च नहीं कर सकता, पब्लिक स्कूल का सिस्टम स्तर से नीचे माना जाता है।
वहां सामाजिक सुरक्षा नाममात्र की भी नहीं है। देश का पर्यावरण रिकॉर्ड बड़ा खराब है और अपराध इतने ज्यादा हैं कि आबादी के लिहाज से वहां दुनिया भर में सबसे ज्यादा कैदी हैं। हाल के समय में नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात हुआ है।
सालों तक बिना मुकदमे के लोग कैद में हैं और उन्हें यह भी नहीं बताया जाता कि उन पर किस तरह के आरोप हैं और यातना देने को आधिकारिक रूप से हरी झंडी मिली हुई है। वह लंबे समय तक खिंचने वाली और फिजूल की लड़ाई में अक्सर उलझ जाता है और उन देशों से भी जिनसे उसे कोई खतरा नहीं होता है।
अब तक आपको अनुमान हो जाना चाहिए कि हम संयुक्त राज्य अमेरिका की बात कर रहे हैं। निश्चित रूप से हम इसे तीसरी दुनिया का हिस्सा नहीं मानते, इसके पीछे एक ही कारण है कि यह काफी समृध्द देश है।
अगर सावधानी से इसका विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि अंतर संपत्ति का नहीं बल्कि कुछ और है। तीसरी दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं से अलग इसके पास ऐसी मुद्रा है, जो दुनिया के बाकी देश विनिमय के तौर पर स्वीकार करने को तत्पर रहते हैं, साथ ही कीमत के चलते भी इसका संग्रह करने में तत्परता होती है।
इसलिए सरकार करेंसी नोट अपनी वित्तीय कमियों को चुकाने के लिए छापती है। इस प्रिंटिंग प्रेस को दूर हटा दीजिए, पूरी प्रणाली चिरस्थायी नहीं रह जाएगी। निश्चित रूप से यह पूरी तस्वीर नहीं है, इसलिए सकल रूप से अनुचित है।
इन कमियों के बावजूद अमेरिका के पास सशक्त कॉरपोरेट वर्ल्ड है, विज्ञान व तकनीक के मामले में दुनिया में वह अग्रणी है, अच्छे विश्वविद्यालय हैं, ताकतवर व मेहनती लोग हैं, प्रशासन के लिए मजबूत संस्थान हैं और किसी समस्या को सुलझाने के मामले में उसके पास सकारात्मक रवैया है, जिनकी बदौलत देश कठिन समस्याओं के समय में उन्हें सुलझा देता है।
ऐसी गुणवत्ता तीसरी दुनिया के देशों में नहीं पाई जाती। साथ ही बैलेंसशीट का नकारात्मक पहलू केवल वर्तमान वित्तीय क्षेत्र और आर्थिक मंदी को प्रतिबिंबित करता है। सच यह है कि अगर वह गहरी समस्या को सुलझाना चाहता है तो अमेरिका अपने आपको अलग नजरिए से देखे।
अगर वह सोचता है कि वह दुनिया की अकेली महाशक्ति है तो फिर वह ऐसा कोई काम नहीं करेगा जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को करने को नियमित रूप से कहता है।
मसलन व्यापार संतुलन के लिए मुद्रा की कीमत कम करने, सरकारी खर्च घटाने, बचत में बढ़ोतरी करने आदि। ओबामा के आर्थिक पैकेज को इस चेक लिस्ट से देखिए, चीजें साफ होनी शुरू हो जाएंगी।
