प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत वर्ष सितंबर में संसद द्वारा पारित तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की तो ऐसी तमाम टिप्पणियां सामने आईं जिनमें इस बात की व्याख्या की गई कि भारतीय कृषि के लिए ये निर्णय क्या मायने रखते हैं। आमतौर पर यही कहा गया कि नए कानूनों को वापस लेना कृषि सुधारों के लिए झटका है और सरकार को ऐसा तरीका निकालना चाहिए ताकि ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्णय को बिना राजनीतिक विरोध के लागू किया जा सके।
ऐसी व्याख्याओं को गलत नहीं कहा जा सकता, हालांकि इनकी अपनी सीमा है। इनमें इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि भारतीय राजनीति और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के वे कौन से बदलाव हैं जिनके चलते मोदी सरकार को कृषि कानून वापस लेने पड़े। बीते कुछ वर्षों में देश के राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य में कुछ नई ताकतें सामने आई हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। खासकर मोदी द्वारा कानून वापसी के निर्णय का आकलन करते हुए। मोदी सरकार के अधीन भारत की नई हकीकत ने यह भी सुनिश्चित किया कि आने वाले महीनों में आर्थिक नीति निर्माण वैसा नहीं होगा जैसा बीते वर्षों में था।
बीते कुछ वर्षों में देश में जड़ें जमा चुकी नई हकीकत की वजह क्या है? उस हकीकत के कई कारक हैं। उनका आकलन करके हम यह भी समझ पाएंगे कि कृषि कानूनों को कैसे और क्यों वापस लिया गया?
सन 2019 के आम चुनाव के बाद मोदी सरकार और अधिक स्पष्ट बहुमत के साथ सामने आई। इससे सत्ताधारी दल को अपना महत्त्वाकांक्षी राजनीतिक एजेंडा पूरा करने का बल मिला। इसमें संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने और नागरिकता कानून में संशोधन करना शामिल है जिसके कारण एक अल्पसंख्यक समुदाय के साथ भेदभाव हुआ। यह स्पष्ट था कि सरकार के पास अपना राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त बहुमत था।
शायद उस सफलता ने मोदी सरकार को यह आत्मविश्वास दिया कि वह अपने आर्थिक एजेंडे पर भी उसी राजनीतिक बहुमत के सहारे आगे बढ़े। लेकिन यह सोच गलत था। राजनीतिक क्षेत्र में सही साबित हुए कदम आर्थिक क्षेत्र में कारगर नहीं रहे। यहां प्रस्तावित नीतिगत बदलाव से प्रभावित होने वाले अंशधारक अलग थे और उन्हें तगड़ा राजनीतिक सशक्तीकरण भी हासिल था। उत्तर भारत के किसानों और कुछ राज्य सरकारों पर दबाव बनाना आसान नहीं था।
किसानों के विरोध प्रदर्शन ने एक और बदलाव को जन्म दिया। विरोध प्रदर्शन करीब एक वर्ष तक चला और हाल के वर्षों में पहली बार यह स्थापित हुआ कि आंदोलन की राजनीति सरकार को लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने का सही हथियार है। उत्तर भारत में और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में यह व्यापक तौर पर देखने को मिला। आशा है कि आने वाले वर्षों में इससे ही राजनीति और आर्थिक नीति को स्वरूप मिलेगा।
आर्थिक नीति और राजनीति के बीच बदले हुए समीकरण का अर्थ यह भी है कि किसानों ने नए कृषि कानूनों का एक वर्ष लंबा जो विरोध किया उसको ईंधन, किसानों के लिए प्रस्तावित नीतिगत ढांचे के विरोध से उतना नहीं मिला जितना कि इस राजनीतिक विचार से मिला कि केंद्र के सत्ताधारी दल के खिलाफ प्रतिपक्ष तैयार किया जाए। किसान आंदोलन की एक खासियत यह थी कि उसने ऐसे कई लोगों को एकजुट किया जो मोदी और उनकी राजनीति और नीतियों के खिलाफ थे। इसमें भी मोदी सरकार का विरोध मुखर था जबकि तीनों कृषि कानूनों के प्रावधानों का कम। विडंबना यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने इस विषय पर अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। यही वजह है कि इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकी कि विशेषज्ञों ने तीनों कानूनों को लेकर क्या राय दी है अथवा गतिरोध को दूर करने को लेकर उनकी क्या राय है। कृषि कानूनों से जुड़े मसले सरकार द्वारा कानूनों को वापस लेने की मांग के सामने गौण हो गए। सरकार ने देश के किसानों के लिए यह नया खाका तैयार करते समय मशविरे और सहमति की जरूरत भी नहीं समझी थी और यह भी नाराजगी की एक वजह थी।
एक अन्य संबद्ध मसला जिसकी अब तक अनदेखी की गई है वह यह है कि नए कृषि कानून आर्थिक नीति में एक खास तरह का बदलाव लाना चाहते थे। अक्सर इस बात को चिह्नित नहीं किया जाता है कि राजकोषीय नीति अथवा व्यापार नीति में बदलाव जमीन, श्रम या खेती में बदलाव करने जैसा नहीं है।
बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकाल में मोदी को यह अंदाजा हो गया था कि भूमि सुधार लागू करना कितना मुश्किल है। भूमि सुधारों पर अध्यादेश को समाप्त हो जाने दिया गया क्योंकि कांग्रेस तथा कई राज्य सरकारों ने इसके खिलाफ जमकर आंदोलन छेड़ा था। मोदी सरकार पर अमीरों के लिए काम करने का इल्जाम लगाया गया था। तब दलील दी गई थी कि मोदी सरकार को संसद में स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं था इसलिए उसे कदम खींचना पड़ा।
परंतु 2019 के बाद ऐसी तमाम बाधाएं दूर हो गईं। नागरिकता संशोधन कानून और अनुच्छेद 370 के मामले ने यह दिखाया कि राजनीतिक जनादेश दरअसल राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने का एक जरिया था। कराधान की पहल, शुल्क में बदलाव और निजीकरण की योजनाओं को भी कोई चुनौती नहीं मिली। बहरहाल, श्रम कानून सुधारों की अधिसूचना में अभी भी देरी हो रही है, हालांकि कानून कई महीने पहले पारित हो चुका है। कृषि कानूनों को तो सरकार के विरोध के कारण वापस ही लेना पड़ गया है। मोदी सरकार को अब अहसास हुआ है कि भूमि, श्रम और कृषि सुधारों को लागू करना कहीं अधिक कठिन काम है।
किसानों के प्रदर्शन ने देश में आ रहे एक अन्य अहम बदलाव की ओर ध्यान आकृष्ट किया। बीते कुछ वर्षों के दौरान देश के राज्य इस बात को लेकर काफी असहज रहे हैं कि केंद्र द्वारा उनके नीतिगत क्षेत्र में घुसपैठ की गई है। श्रम, भूमि और बिजली की तरह कृषि भी राज्यों के नीतिगत क्षेत्र का भी विषय है। कई राज्यों को इन क्षेत्रों में केंद्र सरकार का कानून बनाना रास नहीं आया। केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेना केंद्र द्वारा बनाए गए अन्य कानूनों मसलन श्रम और बिजली की तकदीर के लिए भी अहम है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या किसानों का विरोध और सरकार की प्रतिक्रिया देश की राजनीति में परिवर्तन बिंदु है। राजनीति अब यहां से कौन सी दिशा लेगी और क्या केंद्र राज्यों के साथ सहयोगात्मक भूमिका अपनाएगा, ये दोनों बातें भविष्य में आर्थिक नीति प्रतिष्ठान के स्वरूप को प्रभावित करने वाली होंगी।
