हम भारतीयों की प्रवृत्ति कुछ ऐसी है कि हम सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों से जुड़ी खबरों को भी वैसे ही देखते हैं जैसे एकदिवसीय क्रिकेट मैच की सुर्खियों को या फिर हर वर्ष ऑस्कर के लिए नामित होने वाली भारतीय फिल्मों को। यानी अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी सफलता और राष्ट्रीय गौरव के तमाम मानकों को। ऐसे में जब यह घोषणा सामने आती है कि किसी वर्ष भारत का जीडीपी चीन के जीडीपी के समकक्ष हो गया या उससे आगे निकल गया तो इसका स्वागत वैसे ही किया जाता है जैसे भारत ने एकदिवसीय क्रिकेट मैच में ऑस्ट्रेलिया (या शायद पाकिस्तान) को हरा दिया हो।
हम जीडीपी के ताजा आंकड़ों की प्रतीक्षा भी उतनी ही शिद्दत से करते हैं जिस शिद्दत से हमने यह प्रतीक्षा की थी कि जोया अख्तर की फिल्म ‘गली बॉय’ ऑस्कर के लिए नामित हुई या नहीं। जिस समय भारत जीडीपी के आंकड़ों में पड़ोसी देशों को पीछे छोड़ता है उस समय के वित्त मंत्री इतिहास में कपिल देव की तरह याद किए जाते हैं, जिनकी कप्तानी में भारत ने एकदिवसीय क्रिकेट विश्वकप जीता था या फिर एआर रहमान की तरह जिनके स्लमडॉग मिल्यनेर फिल्म के गीत ‘जय हो’ को ऑस्कर मिला था।
ऐसे में सवाल उठता है कि जीडीपी आंकड़े दरअसल हैं क्या? अक्टूबर 2019 में हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू में प्रकाशित एक आलेख में अमित कपूर और विवेक देवराय ने कहा था कि जीडीपी मनुष्य की बेहतरी का सूचकांक नहीं है। वे कहते हैं, ‘जीडीपी हमारे द्वारा तैयार की गई कारों को सकारात्मक गिनती में रखता है लेकिन वह उनके उत्सर्जन को नहीं गिनता। वह चीनी से भरे पेय पदार्थ का मूल्य गिनता है लेकिन उनके कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को नहीं। इसमें नए शहरों का निर्माण तो शामिल होता है लेकिन उसके लिए जो जंगल काटे जाते हैं, उन्हें बिल्कुल तवज्जो नहीं दी जाती।’ ये दो ऐसे व्यक्तियों के कथन नहीं हैं जो जीवन के प्रति अपनी नाराजगी जता रहे हों बल्कि अमित कपूर और विवेक देवराय देश के शीर्ष और कुलीन आर्थिक नीति निर्माण वर्ग के सदस्य हैं।
शायद यह बेहतर है कि जीडीपी के आकलन के तरीके जाहिर करके इसके इर्दगिर्द बुने गए रहस्य के आवरण को तोड़ा जाए। कल्पना करते हैं एक साधारण अर्थव्यवस्था की जो केवल मोबाइल फोन और उनमें इस्तेमाल के लिए डेटा बनाती है। इस काल्पनिक देश के जीडीपी का आकलन साल में बनने वाले मोबाइल फोन की तादाद और उनकी कीमत तथा उनमें होने वाली डेटा खपत के आधार पर किया जाएगा। यदि साल में 1,000 फोन बनते हैं, एक फोन की कीमत 10,000 रुपये है तो यह राशि हुई एक करोड़। यदि प्रत्येक फोन में 100 जीबी डेटा 10 रुपये प्रति जीबी के हिसाब से इस्तेमाल हो तो यह राशि होगी 10 लाख रुपये। यानी इस काल्पनिक देश का जीडीपी होगा 1.1 करोड़ रुपये सालाना। यदि अगले वर्ष वही देश मोबाइल के उत्पादन और बिक्री में 100 का इजाफा कर देता है और फोन तथा डेटा की कीमत वही पुरानी रखता है तो जीडीपी में इजाफा हो जाएगा और हम कहेंगे कि देश की जीडीपी दर 12 प्रतिशत है यानी जीडीपी पिछले वर्ष की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक हो जाता है।
जीडीपी का यह सीधा आकलन जटिल कैसे हो जाता है? इसे ऐसे समझते हैं कि अगर दूसरे वर्ष के अतिरिक्त 100 फोनों का आयात किया जाता और हर आयातित फोन की लागत 8,000 रुपये होती तो इस राशि को दूसरे वर्ष के जीडीपी आंकड़ों से कम करना पड़ता। यानी दूसरे वर्ष की जीडीपी 11 होती यानी 10 फीसदी की बढ़ोतरी।
यदि उस अर्थव्यवस्था में सामान्य मूल्यवृद्धि हुई तो हालात और भी जटिल हो जाएंगे। उस स्थिति में दूसरे वर्ष के जीडीपी को मुद्रास्फीति के मुताबिक समायोजित करना होगा। यदि उसके बाद अचानक हमें पता चलता है कि 1,000 फोन तस्करी के जरिये लाए गए थे और आयात शुल्क की चोरी हुई है तो पता नहीं हम उसे जीडीपी के आंकड़ों में किस प्रकार समायोजित करेंगे।
इसके अलावा यदि हमें पता चलता है कि सभी मोबाइल फोन उपभोक्ताओं में से 10 फीसदी चैट और संदेश के अत्यधिक उपयोग के कारण तनाव से जूझ रहे हैं तो हमें सोचना होगा कि क्या अर्थव्यवस्था में जीडीपी वृद्धि के साथ नाखुशी में भी इजाफा होगा। ऐसी बातों ने तमाम अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे मनुष्य की बेहतरी का मात्रात्मक पैमाना तलाश करें। इसके लिए हमारे पास मानव विकास सूचकांक, विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट, प्रसन्न ग्रह सूचकांक, सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक आदि हैं।
आप पूछ सकते हैं कि इनमें से कोई चीज क्या वाकई मायने रखती है? क्या भारत का जीडीपी बेहतर है और उसका आकलन अर्थशास्त्रियों के अलावा किसी अन्य के लिए मायने नहीं रखता है, ठीक वैसे ही जैसे एकदिवसीय क्रिकेट मैच जीतने या ऑस्कर पुरस्कार जीतने वालों के जीवन में तो बदलाव आता है लेकिन आम नागरिकों का जीवन जस का तस रह जाता है। यहां क्रिकेट स्कोर और ऑस्कर पुरस्कारों से ज्यादा कुछ दांव पर लगा है। जीडीपी के आंकड़े इस समय भारत में यह सुनिश्चित करते हैं कि धन, भूमि और अन्य ऐसे प्रोत्साहन उपलब्ध हों जो पारंपरिक तौर पर कारोबारियों के हित में हैं: खनन, आयात, शेयर बाजार कारोबार, आईटी आदि। अर्थव्यवस्था का जो हिस्सा फिलहाल सबसे अधिक मायने रखता है, वह डेटा आधारित अर्थशास्त्र है और उसकी मौजूदा जीडीपी आकलन में कोई भूमिका नहीं है। इसे विदेशी वेंचर कैपिटलिस्ट की दया पर छोड़ दिया गया है।
फिलहाल और अगले दशक की वास्तविक आर्थिक वृद्धि देश के अन्य इलाकों में खनन से, अंतरराष्ट्रीय कारोबारियों को भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों की असेंबलिंग के लिए आकर्षित करने से या इलेक्ट्रिक कारों के निर्माण को बढ़ावा देने से नहीं हासिल होगी। डेटा अर्थव्यवस्था में वास्तविक आर्थिक वृद्धि कहां से आएगी यह मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के इर्विंग व्लादवस्की बर्गर हमें बताते हैं। वह कहते हैं कि यह आर्थिक वृद्धि फलते-फूलते डेटा बाजार की स्थापना और उसके लिए उपयुक्त माहौल बनाने से आएगी। इसकी शुरुआत तभी हो सकती है जब हम डेटा अर्थव्यवस्था के उपायों को अपने जीडीपी आकलन में शामिल करें।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
