भारतीय रिजर्व बैंक की हाल में घोषित मौद्रिक एवं ऋण नीति पर टिप्पणी करने में हो सकता है कि थोड़ी देर हो गई हो, लेकिन मेरे विचार से इसमें ऐसी कई चीजें हैं जिन पर और ज्यादा ध्यान दिए जाने की दरकार थी।
अपने इस आलेख में मैं उन्हीं चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं। पिछले मंगलवार को घोषित मौद्रिक नीति दस्तावेज के मुताबिक उसमें इस सच्चाई को पूरी तरह स्वीकार किया गया है कि भारत में तथाकथित मौद्रिक ट्रांसमिशन व्यवस्था वास्तव में ज्यादा सक्षम रूप से काम करती है जितना ही सामान्य तौर पर माना जाता था।
पिछले कुछ महीनों में मौद्रिक नीति के तहत उठाए गए कदम से ज्यादा अच्छे परिणाम मिले हैं। यह परिणाम पारंपरिक कदमों की उम्मीद से ज्यादा है। जिस तरह से ऋण नीति की समीक्षा की गई, वह काफी सरल है। इसने व्यवस्था में फंड की लागत के हथियार के तौर पर प्राइम लैंडिंग रेट (पीएलआर) यानी प्रधान ब्याज दर पर बहस के बजाए अपना ध्यान वास्तविक प्रभावी उधारी दर पर केंद्रित कर लिया।
खास तौर से गैर-सार्वजनिक बैंकों के लिए एक ओर जहां पीएलआर कुछ हद तक मुश्किल भरा रहा है, वहीं सब-पीएलआर में गिरावट के चलते वास्तविक प्रभावी उधारी दर में तेज गिरावट देखी गई है। चूंकि ज्यादातर उधारी प्राइम लैंडिंग रेट से नीचे पर दी जाती है, लिहाजा कोई भी बहस या विश्लेषण जो कि पीएलआर में परिवर्तन पर आधारित हो उसे मौलिक रूप से दरकिनार कर दिया जाता है।
यहां मैं उन नीतियों के कुछ अंश पेश कर रहा हूं ताकि चीजें साफ हो सके। आरबीआई का कहना है कि बीपीएलआर में बदलाव प्रभावी उधारी दर के बदलाव पर पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं होता। बैकों ने रेखांकित किया है कि उधारी दर का आकलन सिर्फ बीपीएलआर में गिरावट से नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि तीन चौथाई उधारी बीपीएलआर रेट से नीचे दी जाती है।
इन उधारियों में कृषि, निर्यात सेक्टर, अच्छी रेटिंग वाली कंपनियां और पीएसयू को दी जाने वाली उधारी शामिल है। भारांकित औसत उधारी दर जो 2006-07 में 11.9 फीसदी था, साल 2007-08 में बढ़कर 12.3 फीसदी (अस्थायी) हो गया। अग्रिम पर औसत प्रतिफल (प्रभावी उधारी दर का प्रतिनिधि माप) साल 2008-09 में करीब 10.9 फीसदी के स्तर पर था।
साल 2008-09 की दूसरी छमाही में चूंकि ज्यादातर वाणिज्यिक बैंकों ने बीपीएलआर में कटौती कर दी थी, ऐसे में साल 2008-09 के अंत में प्रभावी उधारी दर 10.9 फीसदी के स्तर से नीचे होना चाहिए था। संक्षेप में, शिकायत यह है कि आरबीआई के आक्रामक कार्रवाई के बावजूद उधारी दर का प्रेषण लीक पर नहीं रहा क्योंकि इसमें सही उधारी दर पर विचार नहीं किया गया।
कई कंपनियों और उपभोक्ताओं के लिए फंड की लागत अक्टूबर में उच्च स्तर पर रहे लागत के मुकाबले नाटकीय रूप से कम हुई। बैंकों के बीच प्रतिस्पर्धा और मध्यस्थहीनता (वाणिज्यिक पत्रों और दूसरे उपकरण के जरिए कंपनियां सीधे बाजार से रकम उगाह रही हैं) के डर ने इस गिरावट में योगदान दिया। अर्थव्यवस्था में गिरावट के चलते भी उधारी की मांग में कमी आई।
कंपनियां पूंजी की बाबत अपनी योजनाओं को टाल रही हैं, कार्यशील पूंजी की जरूरतों को भी टाल रही हैं और उधार लेने से पहले उपभोक्ता भी दो बार सोचने लगा है। ऋण की बाबत मांग और आपूर्ति के गणित ने भी ब्याज दरों में गिरावट का रास्ता तैयार किया है। लेकिन पीएलआर पर उचित रूप से यह प्रतिबिंबित नहीं हो पाया है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है रकम की इच्छा रखने वाली सभी कंपनियों को यह उचित कीमत पर मिल रहा है।
कारोबारी वातावरण जोखिम भरा हो गया है और बैंक भी वैसे सेक्टर को उधार देने में अतिरिक्त सावधानी बरत रहे हैं जिसका कारोबारी चक्र माना जाता है कि बुरी तरह प्रभावित हुआ है। ये सब-प्राइम (जोखिम के लिहाज से) उधार लेने वाले वैसे लोग हैं जिनसे ज्यादा दर पर उधार दिया जाता है जबकि प्राइम उपभोक्ता सब-प्राइम दर पर रकम उगाह सकते हैं। (यह बिडंबना है जिस पर इस अखबार ने भी संपादकीय टिप्पणी की थी)।
कुछ निश्चित मामलों में बैंक कुछ सेक्टर को उधार देने की इच्छा नहीं रखते। तो क्या बैंकों को कोसा जाना चाहिए? पिछले दो साल के दौरान आई वित्तीय बेचैनी से जिसने भी सबक सीखा होगा वे इस बात से सहमत होंगे कि रूढ़िवादी बने रहने का बैंकों का फैसला सही है और बैलेंस शीट में बढ़त की खातिर उन पर पड़ रहा दबाव लंबी अवधि में गंभीर परिणाम दे सकता है।
सच्चाई यह है कि उधारी की बाबत सलाह देने की खातिर आरबीआई हद से आगे नहीं गया, जिसे कि खुद आरबीआई भी जानता है और इस जोखिम को प्रोत्साहित करता है। क्या आरबीआई इसके अलावा कुछ और ज्यादा कर सकता है? दुर्भाग्य से मौद्रिक अधिकारियों की राह में कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट की अनुपस्थिति के जरिए वे जोखिम से लैस उधार लेने वालों के लिए बेहतर कर सकने में सक्षम हैं।
अमेरिकी और ब्रिटिश सेंट्रल बैंक इस मामले में जो कुछ कर रहे हैं यहां उसकी समीक्षा जरूरी है। हो सकता है यह हमारे काम का हो। वे जोखिम भरे कॉरपोरेट बॉन्ड वापस खरीद रहे हैं और इसके बदले तरलता दे रहे हैं। क्योंकि वे ऐसा कर रहे हैं, लिहाजा जोखिम भरे इन बॉन्डों पर प्रतिफल कम हो गया है और इस वजह से दरों की खातिर ऐसा बेंचमार्क बन गया है जिस पर जोखिम से लैस कंपनियां उधार ले सकती हैं।
भारत में इस तरह के कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट की कमी जोखिम की कीमत की बाबत सीधा मौद्रिक हस्तक्षेप करने से रोकती है। ऐसे में इसका एकमात्र विकल्प ये है कि जोखिम भरे ऋण पर सरकार गारंटी दे। यह राजकोषीय कदम है और आरबीआई की मौद्रिक नीति की सीमा से बाहर।
क्या पीएलआर की पूरी अवधारणा को एक बार फिर से बनाया जाना चाहिए ताकि वह बेहतर प्रतिनिधि बन सके? मैं एक बार फिर कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट के निगलने की समस्या पर पहुंच रहा हूं। जोखिम के अलग-अलग कैटिगरी में ऋण पत्र के सक्रिय कारोबार की अनुपस्थिति में उधार लेने वाले अलग-अलग लोगों के उधारी लागत का पैमाना तय करने का कोई रास्ता नहीं है।
अगर पीएलआर वास्तविक रूप से प्राइम उधार लेने वालों की उधारी लागत को प्रतिबिंबित करता है और बैंकों से कहा जाए कि वे औसत जोखिम प्रीमियम बेंचमार्क दर में जोड़ लें तो फिर हमारे उधारी बाजार में पारदर्शिता का स्तर तेजी से बढ़ेगा। इसके अलावा यह विवाद भी समाप्त हो जाएगा कि आर्थिक संकट की आड़ में बैंक माल बना रहे हैं।
बैंक पीएलआर में कमी करने के प्रति अनिच्छुक क्यों हैं? इसका जवाब इस सच्चाई में छुपा हुआ है कि कम दर पर निर्यात और कृषि क्षेत्र को दिया जाने वाला ऋण पीएलआर से जुड़ा है। ऐसे में पीएलआर में कटौती स्वत: इन दरों में भी कटौती का रास्ता तैयार कर देता है।
इस समस्या के समाधान का एक ही तरीका है और वह है कम दर पर दिए जाने वाले ऐसे ऋण को पीएलआर से असंबध्द कर दिया जाए। उम्मीद है कि सेंट्रल बैंक द्वारा स्थापित कमेटियों की प्राथमिकता सूची में यह शीर्ष पर होगा, जो पीएलआर को एक बार फिर से बनाने की कोशिश में जुटे हैं।
(लेखक एचडीएफसी बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री हैं। यहां प्रस्तुत विचार व्यक्तिगत हैं।)
