पिछले शुक्रवार को मौद्रिक नीति को लेकर जो घोषणाएं की गईं, उन्हें लेकर मुझे कुछ हैरानी हुई है।
हालांकि दूसरे कई लोगों की तरह ही मुझे भी यह उम्मीद नहीं थी कि मौद्रिक नीति के संदर्भ में कुछ ठोस और बड़े कदम उठाए जाएंगे क्योंकि पिछले कुछ सप्ताहों में इस दिशा में काफी कुछ किया जा चुका है।
हालांकि मैंने यह समझने की कोशिश जरूर की कि आखिर क्यों भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इतने सख्त और आक्रामक कदम उठाए हैं। आरबीआई ने एक ओर जहां सीआरआर दर में 2.5 फीसदी की कटौती की है वहीं रेपो दर में भी खासी कटौती की गई है।
मुझे यह उम्मीद थी कि अगर रिजर्व बैंक ने ये कदम उठाए हैं तो वह कम से कम अपनी इन नीतियों और उठाए गए कदमों के संदर्भ में स्थिति स्पष्ट करेगा कि आखिर उसने मौजूदा माहौल में क्या रणनीतियां बनाई हैं। लेकिन मैंने जैसा सोचा था, वैसा कुछ भी नहीं हुआ और इस केंद्रीय बैंक ने अपनी नीतियों का खुलासा नहीं किया। इससे मुझे बेहद निराशा हुई।
मुझे लगता है कि मौद्रिक नीति में फेरबदल किए जाने के बाद लोगों ने जो प्रतिक्रियाएं (खासतौर पर वह गुट जिसने इस कदम की आलोचना की) व्यक्त कीं, वे काफी हद तक सही थीं। आलोचकों का कहना था कि वैश्विक वित्तीय बाजार में भारी उथल-पुथल मची है और ऐसे में सबसे पहली आवश्यकता है कि देश को वित्तीय स्थिरता प्रदान की जाए।
इस खेमे का कहना था कि वैश्विक वित्तीय संकट ने किस तरह से देश के वित्तीय क्षेत्र को झकझोर कर रख दिया है और इसका ही परिणाम है कि सितंबर के मध्य में नकदी की भारी किल्लत पैदा हो गई थी। और यही वजह थी कि आरबीआई को तत्काल निर्णय लेते हुए बाजार में नकदी उपलब्ध कराने के लिए कदम उठाने पड़े।
अब यह जानते हैं कि आखिर इसकी वजह क्या है। मौद्रिक नीति में पहले तो वित्तीय स्थिरता लाने और वित्तीय संकट (इससे घरेलू विकास को चोट पहुंचने का खतरा भी बना हुआ है) से निपटने के लिए कदम उठाने पर जोर दिया गया, पर बाद में एक बार फिर से पुरानी परेशानी की ओर ध्यान गया। यानी कि महंगाई से मुकाबला।
इस बात पर भी जोर दिया गया कि किस तरह मौद्रिक नीति में सही समय पर सही बदलाव करना जरूरी है ताकि इस भंवरजाल से निकला जा सके। बयान में जोर दिया गया कि एम3 विकास को मौजूदा 20.3 फीसदी से घटा कर लक्ष्य विकास दर 17 फीसदी तक लाने की जरूरत है।
वहीं ऋण वृध्दि दर, जो मौजूदा समय में 29 फीसदी पर बनी हुई है, को भी कम कर 20 फीसदी तक लाए जाने की आवश्यकता है। इन आंकड़ों पर नजर दौड़ाने से पहली नजर में यही लगता है कि अगर इन लक्ष्यों को प्राप्त करना है तो कुछ सख्त मौद्रिक नीतियां अपनानी ही होंगी।
अहम बात यह है कि जिस तरीके से बाजार में नकदी उपलब्ध कराई जा रही है और रेपो दर में कटौती की गई है, उससे बैंकों को साफ संकेत जाता है कि वे कम ब्याज दरों पर लोगों को ज्यादा से ज्यादा ऋण उपलब्ध कराएं। अगर ऐसे समय में मौद्रिक नीति को सख्त किया जाता है तो एक तरह से उनमें असमंजस वाली स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि उन्हें क्या करना है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि फिलहाल किसी के लिए भी यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वैश्विक वित्तीय संकट कब खत्म होगा। लेकिन इतना तो तय है और यह सभी समझ सकते हैं कि आने वाले कुछ समय तक तो वैश्विक बाजारों को इसकी मार झेलनी ही पड़ेगी।
इतना कुछ देखने के बाद अब लोगों की समझ में यह तो आने लगा है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट ने देश में नकदी की समस्या तो पैदा कर ही दी है और साथ ही इससे विकास भी प्रभावित हो रहा है। बैंकों को ऋण मुहैया कराने में भी परेशानी हो रही है।
ऐसे में अगर आरबीआई यह नहीं चाहता है कि उसे एक बार फिर से नकदी की समस्या से जूझना पड़े तो उसे मौद्रिक नीति में ढिलाई बरतनी ही पड़ेगी। इस तरह अगर आरबीआई वित्तीय स्थिरता को प्राथमिकता देना चाहता है तो उसे उन मौद्रिक लक्ष्यों में फेरबदल करना होगा जो उसने कुछ समय पहले तय कर रखे थे।
महंगाई से अब भी पूरी तरह राहत नहीं मिल पाई है (हालांकि महंगाई का ग्राफ धीरे धीरे थोड़ा नीचे जा रहा है) और इससे निपटने के लिए बेहतर प्रबंधन की जरूरत है। यहां एक बार फिर से समझ लेना जरूरी है कि पहले जो मौद्रिक नीतियां तैयार की गई थीं, वह दूसरी तरह की अर्थव्यवस्था को ध्यान में रख कर किया गया था और आज की चुनौतियां और आज के हालात उस समय से काफी अलग हैं।
ऐसे में अगर यह सोचें कि उन्हीं नीतियों के बल पर महंगाई पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा, तो यह मुमकिन नहीं है। अगर पहले तैयार की गई नीतियों के रास्ते पर ही चलें तो एक तरह से यह रास्ता भटकने जैसी स्थिति होगी। लेकिन हाल ही में आरबीआई ने जो कदम उठाए हैं, उनसे तो कम से कम यह पता चलता है कि वह एक स्पष्ट रणनीति के साथ काम कर रहा है।
उसका रुख स्पष्ट है कि बाजार में नकदी बनी रहे और लोगों को ऋण प्राप्त करने में भी कोई परेशानी नहीं हो, भले ही उसे इसके लिए मौद्रिक नीति में थोड़ी बहुत ढील क्यों न देनी पड़े। दूसरे शब्दों में कहें तो पिछले कुछ सप्ताहों में आरबीआई ने जो भी कदम उठाए हैं, वे सोची-समझी रणनीति के तहत ही उठाए गए हैं।
शुक्रवार की घोषणाओं से भी आरबीआई के इसी रवैये की पुष्टि होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वित्तीय बाजार तो यह उम्मीद पाले हुए था कि आरबीआई उसे पश्चिम से आने वाली वित्तीय सुनामी से बचाने के लिए कुछ कदम उठाएगा, लेकिन इस दिशा में कोई घोषणा नहीं की गई।
सवाल यह है कि क्या इन मोर्चों पर केंद्रीय बैंक इतना निष्क्रिय बना रह सकता है? क्या वह सब कुछ जान-बूझ कर भी महंगाई के लिए अपनी आंखें बंद कर सकता है? लेकिन हाल ही में विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों ने जो फैसले लिए, उन्हें देख कर तो कम से कम यह कहा जा सकता है कि केंद्रीय बैंक शायद ऐसा भी कर सकते हैं।
क्या केंद्रीय बैंक इन हालात को देखते हुए भी महंगाई को लेकर अपनी आंखें मूंद सकता है? हाल ही में विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों ने जो कदम उठाए हैं, उनसे तो कम से कम यही साबित होता है। इसे समझने के लिए इंग्लैंड के केंद्रीय बैंक का उदाहरण लेते हैं। केंद्रीय बैंक हमेशा इस बात को ध्यान में रख कर कदम उठाता है कि उपभोक्ता मूल्य महंगाई 2 फीसदी से ऊपर न जाने पाए।
लेकिन मौजूदा संकट को ध्यान में रखते हुए और यह भांपने के बाद इस संकट की वजह से ब्रिटिश अर्थव्यवस्था भी मंदी के आगोश में समा सकती है, केंद्रीय बैंक ने यह साफ कर दिया है कि वह मौद्रिक नीतियों को और कठोर कर महंगाई को कम करने का खतरा नहीं उठा सकता है।
बैंक के गवर्नर ने राजकोष के चांसलर को एक पत्र लिख कर बताया, (अगर बैंक दरों में बदलाव लाकर महंगाई पर 12 महीनों में लगाम लगाने की कोशिश की गई तो इससे उत्पादन और रोजगार दोनों ही प्रभावित होंगे।) आरबीआई को भी कुछ ऐसा ही रास्ता अपनाना चाहिए।