आज अगर हम नगदी में कमी और बैंकों की कर्ज बढ़ोत्तरी दर को साथ रखकर देखें, तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते।
असल में एक तरफ तो हम नगदी की कमी से जूझ रहे हैं, जबकि बैंकों ने पिछले साल के मुकाबले इस साल 29 फीसदी ज्यादा कर्जे दिए हैं। इसी वजह से रिजर्व बैंक को अपनी नई मौद्रिक नीति में यह कहने का मौका मिल गया कि साल के अंत तक कर्ज बढ़ोतरी दर में काफी ज्यादा गिरावट आएगी।
यह सुनकर तो पहले से ही पैसों की तंगी झेल रहे हिंदुस्तानी बाजार में अच्छे-अच्छों के होश उड़ गए। इसीलिए यह जानना जरूरी है कि आखिर पैसा जा कहां रहा है? एक संभावना यह हो सकती है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तो कर्ज मिलना ही बंद हो चुका है। इसी वजह से निर्यातकों के साथ-साथ आयातकों को भी पैसों की खातिर देसी बैंकों का ही सहारा लेना पड़ा।
दूसरी बात यह भी हो सकती है कि हिंदुस्तानी कंपनियों ने विदेशी कंपनियों को खरीद तो लिया, लेकिन अब उन्हें भी विदेशी बैंकों से पैसे नहीं मिल रहे हैं। इसलिए उन्हें भी देसी बैंकों का ही सहारा लेना पड़ रहा है।
दोनों मामलों में बैंकों से उधारी तो ली जा रही है, लेकिन उससे देसी आर्थिक ढांचे में पूंजी नहीं आ रही है। बाहर बैठे लोग-बाग तो इसके लिए इक्का-दुक्का सबूतों की ही मांग करेंगे। लेकिन यह जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है कि वह पूरे आंकड़े इकट्ठा करे, ताकि पूरी तस्वीर साफ तरीके से बनाई जा सके। इसलिए बैंकों द्वारा बांटे गए कर्जों को अलग-अलग करके देखना चाहिए।
इससे यह पता चल पाएगा कि बैंकों से लिए जा रहे कर्ज क्या सचमुच अर्थव्यवस्था का भला कर रहे हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो आरबीआई को इस वित्त वर्ष में पूरी अर्थव्यवस्था के लिए तय किए गए अपने कर्ज बढ़ोतरी दर के लक्ष्य को फिर से तय करना चाहिए। इस बीच अगर सरकार रियल एस्टेट जैसे मुसीबत में फंसे उन सेक्टरों को राहत देना चाहती है, तो बैंकों को उन्हें कर्जे देने चाहिए।
इससे उनके घाटे में काफी कमी आएगी। साथ ही, बैंकों के इस कर्जे से आधे रास्ते में रुकी परियोजनाएं पूरी हो पाएंगी। इससे भी रियल एस्टेट सेक्टर को काफी फायदा होगा। बैंकों और सरकार को मुसीबत में फंसे सेक्टरों को राहत की रेवड़ियां बांटते वक्त सभी को एक समान नजर से कतई नहीं देखना चाहिए।
फिर चाहे वे मुसीबत में फंसा सेक्टर रियल एस्टेट का हो या गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां हो या फिर म्युचुअल फंड। जिन्होंने गलत फैसले किए हैं, उन्हें उसकी कीमत चुकानी ही चाहिए। सरकार को उनके लिए कोई दया नहीं दिखानी चाहिए। बैंकों को भी खुले दिल से पैसे चुकाने से पहले इस बात को खास तौर पर सुनिश्चित करना चाहिए कि मुसीबत में फंसे कारोबारी उनका पैसे लौटाएं।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो इससे बैंकों का ही दिवाला निकल जाएगा। कंपनियों का मुसीबत से निकलने का एक और रास्ता भी है। यह सिस्टम की सोच के हिसाब से नहीं हो सकता है, लेकिन इससे कुछेक बड़ी कंपनियों को जरूर फायदा होगा। वह रास्ता यह है कि कंपनियों के प्रोमोटरों को उनमें बिना पब्लिक इश्यू के ही कंपनी में ज्यादा हिस्सेदारी खरीदने की इजाजत दी जाए।