उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से 150 किलोमीटर और मछुआरों के एक छोटे कस्बे धर्मा से 7 किलोमीटर उत्तर में एक कच्ची सड़क निर्माण क्षेत्र पर आकर खत्म हो जाती है।
कुछ बत्तियां पोत जलमार्ग तक जगमगा रही थीं। एक जगह कुछ इंजीनियर बहुत बड़ी कन्वेयर बेल्ट पर काम कर रहे थे, जो आज से एक साल बाद धर्मा पोर्ट कंपनी लिमिटेड (डीपीसीएल) के परिचालन काम शुरू करने के साथ ही सक्रिय हो जाएगा। डीपीसीएल, टाटा स्टील और लार्सन ऐंड टुब्रो की 50-50 फीसदी हिस्सेदारी वाली संयुक्त उपक्रम कंपनी है।
इस बंदरगाह पर पहले से ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं। कई शताब्दी पहले धर्मा नदी के मुहाने पर बसी बस्ती एकदम सुर्खियों में तब छा गई, जब पास में व्हीलर द्वीप मिसाइल परीक्षण इकाई में गतिविधियों की जानकारी को रक्षा मंत्रालय ने सार्वजनिक किया था। यह जगह जल्द ही पूरी दुनिया के सामुद्रिक मानचित्र पर भारत के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक के रूप में उभर कर सामने आएगी।
बंदरगाह पर काम आज भी जारी है और जब यह तैयार हो जाएगा, तब यहां सुपर कैपसाइज की श्रेणी में आने वाले जहाजों को जगह मिलेगी। यही नहीं सुपर कैपसाइज की श्रेणी में ऐसे जहाज शामिल होते हैं जो लगभग 1,80,000 डीडब्ल्यूटी का भार संभालते हैं। 18 मीटर पर बन रहे धर्मा पोर्ट का दावा है कि वह भारत में सबसे गहरा बंदरगाह जलमार्ग होगा।
हालांकि फिलहाल सिर्फ दो जहाजों के लिए बर्थ की सुविधा मुहैया कराई जा रही है, बंदरगाह के प्रधान, ’13 बर्थ, जो सालाना 8.3 करोड़ टन से अधिक शुष्क, तरल, खुला बल्क और कंटेनर कार्गो को संभाल सके’ पर विचार कर रहे हैं। अगर यह योजना पूरी हो जाती है तो पूर्वी तट के सभी बंदरगाहों- खासतौर पर हल्दिया, पारादीप, एन्नोर आदि को धर्मा कड़ी चुनौती दे सकता है।
धर्मा बंदरगाह का सपना 1980 के दशक में देखा गया था, लेकिन इसके लिए ठोस प्रस्ताव सिर्फ 1990 की शुरुआत में ही सामने आया। इसके लिए 2 अप्रैल, 1998 को उड़ीसा सरकार और इंटरनैशनल सीपोट्र्स प्राइवेट लिमिटेड (आईएसपीएल) के बीच एक रियायती समझौता हुआ, जिसके तहत धर्मा बंदरगाह का विस्तार और विकास किया जाना था। रियायत की अवधि आरंभ की आधिकारिक तारीख से 34 वर्ष है, इसके बाद बंदरगाह का मालिकाना हक दोबारा सरकार के पास होगा। 1998 में पूर्वी एशियाई आर्थिक संकट ने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
तब 5 मई 1999 को टाटा स्टील ने इस परियोजना को लागू करने के लिए एलऐंडटी के साथ साझेदारी की। गिरते-बढ़ते भी इस परियोजना पर काम 2005 को शुरू हुआ, लेकिन दिक्कतों से इसका वास्ता अब भी खत्म नहीं हुआ है। इस बार पर्यावरणविद हैं, जो इसके खिलाफ अपनी आवाज मुखर कर रहे हैं।
उन्होंने आरोप लगाया है कि धर्मा बंदरगाह से इसके दक्षिण में 15 किलोमीटर दूर गहिरमाटा बीच खतरे में है। यह बीच विलुप्त हो रहे ओलिव रिडली कछुओं के लिए दुनिया के सबसे बड़े आवास स्थानों में से एक है। यह भितरकणिका राष्ट्रीय उद्यान का एक हिस्सा है, जो देश में मैंग्रोव दलदल वाला दूसरा सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है और कई विलुप्त होती प्रजातियों- खारे पानी का मगरमच्छ- का घर भी है।
कार्यकर्ताओं ने तीन मूल चिंताएं जताई हैं- निर्माण और बाद में नौपरिवहन का कछुओं की प्रजनन गतिविधियों पर प्रभाव, गहिरमाटा बीच पर शिपिंग जलमार्ग पर तलमार्जन काम के परिणामस्वरूप अपरदन का प्रभाव और शैशव कछुओं पर बंदरगाह की रोशनी का प्रभाव।
कार्यकर्ताओं के मुताबिक 1997 के एन्वायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट (ईआईए) में इन चिंताओं पर चर्चा नहीं की गई है और बंदरगाह की आज की स्थिति ईआईए में बताई गई स्थिति से हर हालत में बहुत ही अलग है। उनकी मांग थी कि निर्माण कार्य को रोका जाए और उन्होंने इसके लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय में याचिकाएं भी दायर कीं।
इसी समय, डीपीसीएल और ग्रीनपीस इंडिया, वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया, वाइल्डलाइफ सोसायटी ऑफ उड़ीसा, कन्जर्वेशन एक्शन ट्रस्ट, प्रह्लाद कक्कड़ की रीफ वॉच और बिट्टू सहगल के सैंक्चुरी एशिया सरीखी एनजीओ के बीच बातचीत शुरू हुई।
जहां 1997 में ईआईए ने कछुओं के पर्यावास की जानकारी दर्ज की, वहीं कछुओं पर अनुसंधान की कमी इसकी एक अहम कड़ी थी जो मिल ही नहीं रही थी। भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) की विलुप्त प्राय प्रजातियों के प्रबंधन विभाग के बी सी चौधरी का कहना है, ‘हमने गहिरमाटा के पास समुद्र में कछुए की गतिविधियों और उनके प्रजनन क्षेत्रों का अध्ययन किया है, लेकिन धर्मा का नहीं।
हालांकि दलदली किनारों के कारण गहिरमाटा के उत्तरी किनारों पर उनका कोई प्रजनन क्षेत्र नहीं है, लेकिन भारत की तटरेखा के हर मील के साथ अलग-अलग प्रजाति के कछुए पाए जाते हैं। अब हमें जो करना चाहिए वह है धर्मा के कछुओं पर ध्यान देने की जरूरत है और यह भी जानना होगा कि पानी का इस्तेमाल कैसे करते हैं।’
उन्होंने यह भी बताया है, ‘हम यह नहीं कहते की बंदरगाह नहीं बनाया जाना चाहिए, लेकिन इसके निर्माण में किसी भी नुकसान के होने से पहले हमारा यह आकलन करना बेहद जरूरी है।’ डब्ल्यूआईआई पर्यावरण एवं वन्यजीव मंत्रालय के तहत एक सरकारी संस्थान है। चौधरी नम जमीन के आवासों और जलथलचरों के विशेषज्ञ हैं और डीपीसीएल और कार्यकर्ताओं के बीच चर्चा के दौरान उनकी राय भी ली गई थी।
दोनों दलों के बीच चल रही बातें जो समस्या को हल कर सकती थीं, जल्द ही खटाई में पड़ गईं। डीपीसीएल का कहना है कि वह खुद से बंदरगाह क्षेत्र का स्वतंत्र आकलन कराने को राजी थी, लेकिन बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी और वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने परियोजना के आरंभ होने की तरफ इशारा करते हुए इससे इनकार कर दिया। इसलिए समुद्र को लेकर पैदा हुए विवाद को सुलझाने में विशेषज्ञता रखने वाली इंटरनैशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) को इस मामले में लाया गया।
लेकिन एक बार फिर कार्यकर्ताओं को मनाने में असफलता ही हासिल हुई, क्योंकि उन्होंने पाया कि आईयूसीएन की रिपोर्ट बंदरगाह के निर्माण और बंदरगाह के परिचालन कार्य के दौरान विवादों का निपटारा करने पर केंद्रित है, जबकि उसने पहले संशोधित अध्ययन से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने ताजा ईआईए की मांग की। आखिरकार 20 फरवरी, 2009 को बातचीत खत्म हो गई और विरोध करने वाले लोगों ने सार्वजनिक कार्रवाई करने का फैसला लिया, क्योंकि निर्माण का काम तेज गति से अब भी जारी था।
इस क्षेत्र में कछुओं के संरक्षण को लेकर अगर कोई एनजीओ सबसे ज्यादा मुखर हुआ है तो वह ग्रीनपीस इंडिया है। इस संस्थान ने सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन किए तथा रतन टाटा के ई-मेल और फैक्स के खिलाफ दायर याचिकाओं में आग उगली है। ग्रीनपीस इंडिया के ओशन कैंपेनर आशिष फर्नांडिस ने बताया, ‘हम इस तथ्य का प्रचार करना चाहते हैं कि रतन टाटा जैसे समूह जो पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बारे में सबसे ज्यादा नैतिकता का दावा करते हैं, ने उसके बारे में कोई भी शुरुआती आकलन नहीं किया।’
धर्मा बंदरगाह के अधिकारियों का कहना है कि वे पर्यावरण संबंधी चिंताओं को लेकर असंवेदनशील नहीं हैं। बंदरगाह परियोजना के मुख्य कार्याधिकारी संतोष के महापात्र ने बताया, ‘ईआईए में उल्लिखित सभी आवश्यक नियमों का हम पालन कर रहे हैं। यही नहीं आईयूसीएन द्वारा लागू किए गए सभी सुझावों को हम कायदे से लागू कर रहे हैं। हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि कुछ कछुए पानी में पाए जा सकते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए हम अपरदन (मिट्टी के कटाव) के दौरान सावधानी बरत रहे हैं।
यहां होने वाले निर्माण कार्य के अंतिम चरण में रोशनी के लिए स्थायी शेल्डिंग की व्यवस्था की जाएगी।’ डीपीसीएल ने इस परियोजना के पर्यावरणीय मानकों को मॉनिटर करने के लिए एक अधिकारी की नियुक्ति भी की है, जो कि संबंधित अधिकारियों के साथ जानकारियों का साझा करेंगे। महापात्र का कहना है कि कछुओं के अध्ययन करने के काम में अगर अब कोई विलंब किया जाता है तो उससे समय और धन दोनों का नुकसान होगा। महापात्र ने बताया कि परियोजना ‘शुरू करने की आधिकारिक तिथि’ अभी नहीं आई है।
परियोजना की तारीख तो तभी आएगी जब भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी लेकिन आलम तो यह है कि उड़ीसा सरकार अभी भी काम में ही जुटी हुई है। इस परियोजना के अंतर्गत बंदरगाह के निर्माण के लिए 4,013 एकड़ भूमि और नए रेल संपर्क के लिए 3,000 एकड़ जमीन की जरूरत है। हालांकि डीपीसीएल शुरुआत से ही जोर देते हुए कह रही है कि शिपिंग चैनल के लिए सबसे ‘स्थायी’ जगह का चयन किया जा चुका है लेकिन इसके बावजूद यहां नियमों की बाढ़ लाद दी गई है।
उड़ीसा के मुख्य वन्यजीव वार्डन बी के पटनायक ने बताया, ‘सक्षम एजेंसियों के लंबित सर्वेक्षणों और निर्माण कंपनी को अपरदन के लिए सशर्त अनुमति दे दी गई थी।’ उन्होंने बताया कि, ‘लंबित पड़े सर्वेक्षणों का काम तो अब शुरु किया गया है लेकिन अपरदन का काम तो पिछले साल ही शुरु हो गया था।’ महापात्र ने बताया कि शुरुआती अपरदन सर्वेक्षण का काम एक अमेरिकी एजेंसी द्वारा किया गया है, जो काफी अच्छा है लेकिन वह मानती है कि राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (एनआईओ) को उस क्षेत्र में फिर से एक बार दौरा करना चाहिए।
महापात्र ने जोर देते हुए बताया, ‘हम आस-पास के पशुओं और पौधों को परेशान नहीं करना चाहते हैं। हम एक स्थायी किनारा चाहते हैं। यह एक साधारण सी बात है कि अगर हमारी गाड़ी कम प्रदूषण वाली है तो मुझे ज्यादा माइलेज मिलेगा। यह बंदरगाह वास्तव में पूरी तरह प्राकृतिक है। इसके चैनल को और कहीं से नहीं बल्कि धर्मा नदी के पानी से ही स्वाभाविक रूप से भर जाता है।
यही नहीं कनिका रेत (दो किलोमीटर के दायरे में फैली विशाल रेतीली जमीन) प्राकृतिक तरीके से ब्रेकर का काम करती है। हमारे घाट डॉलफिन की तरह है। यह वास्तव में स्तंभों का काम करती है, जिससे नदी के किनारे होने वाली अशांति को दूर भगाया जा सकता है।’
बंदरगाह में पर्याप्त रोशनी के मामले पर डीपीसीएल का कहना है कि वे उन सभी सिफारिशों का लागू करेंगी जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कछुए किसी भी तरह से प्रभावित नहीं हो रहे हैं। डीपीसीएल का कहना है कि बंदरगाह की वजह से यहां आने वाले उद्योगों और विकास कार्यों सहित बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के नियंत्रण के लिए उनकी जवाबदेही नहीं होगी।
उड़ीसा सरकार पर यह उंगली उठाई जी रही है और कथित तौर पर कहा जा रहा है कि बिना किसी निगरानी के राज्य सरकार ने निर्माण कार्य शुरू करने को अनुमति दे दी है। वन्यजीव सोसाइटी उड़ीसा के विश्वजीत मोहंती ने बताया, ‘उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक कहते हैं कि पर्यावरण संबंधी मुद्दे उनके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है। लेकिन उन्होंने अभी तक किसी भी चर्चा में भाग लेने से मना कर दिया है और उन्होंने न ही किसी भी प्रश्न का उत्तर दिया है।’ मोहंती इस परियोजना को रद्द कर देना चाहते हैं।
मोहंती ने बताया कि धर्मा के पानी में कछुओं के स्थानांतरण का काम अभी भी लंबित पड़ा हुआ है। इस बाबत काम को निपटाने के लिए डीपीसीएल को भी कई बार कहा गया लेकिन डीपीसीएल का कहना था कि अभी तक सरकार की अनुमति नहीं मिली है और अनुमति मिलने के बाद ही कोई काम किया जाएगा। नाम छापने के शर्त पर वन्य विभाग के सूत्रों ने बताया कि यह मुद्दा वास्तव में अधर में लटकता छोड़ दिया गया है क्योंकि अगर धर्मा की पानी में कछुओं का घनत्व अधिक पाया गया तो बंदरगाह का निर्माण कार्य सब गुड़-गोबर हो जाएगा।
