सभी लोग जानना चाहते हैं कि केंद्र में अगली सरकार कौन बनाने जा रहा है और उसकी नीतियां कैसी होंगी। सबसे पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पर एक नजर डालते हैं।
कांग्रेस ने 151 सांसदों के साथ ऐसी गठबंधन सरकार बनाई जिसके घटक दलों की विचारधारा एक जैसी नहीं थी और अंत में जब वामपंथी पार्टियां गठबंधन से बाहर चली गईं, तब भी वह संप्रग का नेतृत्व कर रही है। ये 151 सांसद कहां से चुनकर आए।
बयालीस सीट वाले आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के 30 सांसद चुने गए थे। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल में आंध्र प्रदेश की सबसे बड़ी भागीदारी है। सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस को यह प्रदर्शन दोहराना होगा।
अब गठबंधन के अन्य घटकों पर नजर डालते हैं। द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम की अगुवाई वाला डेमोक्रेटिक फ्रंट संप्रग का सबसे बड़ा भागीदार है। तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटें हैं और इस फ्रंट ने 39 में से 39 सीटें जीती थीं। अगर यह प्रदर्शन नहीं दोहराया गया तो 2009 में संप्रग सत्ता में लौटने में नाकाम रहेगा।
अब दूसरे सबसे बड़े घटक की बात करते हैं और यह है लालू प्रसाद की अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनता दल, जिसने कुल 40 लोकसभा सीटों में 23 पर फतह हासिल की थी। इस तरह से आंध्र प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु से 100 से ज्यादा सांसद संप्रग की झोली में आए थे और इन्हीं राज्यों में अगले चुनाव की किस्मत की चाबी है।
अब इन राज्यों पर अलग-अलग नजर डालते हैं। आंध्र प्रदेश ने पिछले चार सालों में दो राजनीतिक शक्तियों का विकास देखा है। इनमें से एक है तेलंगाना राष्ट्रीय समिति जबकि दूसरा है अभिनेता चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम। तेलंगाना राष्ट्रीय समिति इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इसने तेलंगाना के लिए क्या किया है बल्कि इसलिए कि इसने आंध्र प्रदेश की राजनीति में क्या किया है।
वास्तव में टीआरएस का चुनावी रिकॉर्ड संतोषजनक नहीं है। साल 2004 में इसने अलग तेलंगाना राज्य के गठन के मुद्दे पर चुनाव लड़ा था क्योंकि इस क्षेत्र के साथ भेदभाव किया जाता रहा था। तेलंगाना की कुल 17 सीटों में से टीआरएस को 5 सीटें मिली थीं। एक मंत्री समेत सभी टीआरएस सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया क्योंकि उन्हें महसूस हुआ कि राज्य गठन के मामले में कांग्रेस ने उनके साथ विश्वासघात किया।
जब वहां उपचुनाव हुए तो परिणाम के तौर पर उनकी सीटों की संख्या घटकर 2 हो गई। उन्होंने संवेदना का निर्माण किया, लेकिन पूर्ण रूप से इसका फायदा नहीं उठा पाई। अब तेलुगू देशम के टूटे धड़े ने इलाके में नव तेलंगाना प्रजा पार्टी का गठन कर लिया है। अब तेलुगू देशम ने कहा है कि अगर वह सत्ता में आती है तो तेलंगाना राज्य का गठन कर दिया जाएगा।
ऐसे में तेलंगाना क्षेत्र की 17 लोकसभा सीट को झटकने के लिए होड़ मच गई है। लेकिन बड़ी चुनौती चिरंजीवी के उदय की बाबत है। क्या है चिरंजीवी की राजनीति? कहना मुश्किल है। उनकी पार्टी प्रजा राज्यम का गठन तटीय आंध्र प्रदेश में मदर टेरेसा के जन्मदिन पर हुआ ताकि कापुस जाति को पार्टी के बैनर तले इकट्ठा किया जा सके।
यह मध्यवर्गीय जाति है, लेकिन कुछ को आरक्षण का लाभ भी मिलता है। यह ग्रुप रेड्डी और कम्मा दोनों समुदायों के हाथों राजनीतिक रूप से कष्ट उठाता रहा है। ये दोनों जातियां आंध्र प्रदेश में काफी मजबूत स्थिति में हैं।
कापुस जाति 1989-94 के कांग्रेस शासन काल में उभरी थी, लेकिन इनके नेताओं के बीच की लडाई के चलते आज यह राजनीतिक रूप से बिखरा हुआ है और इनके नेता कापुनाडु ने अपना महत्त्व खो दिया है। वर्तमान आंध्र विधानसभा में कापु और इसकी जुड़ी जातियों के 27 सदस्य हैं। आंध्र प्रदेश केलोकसभा और राज्यसभा सदस्यों में इन जातियों की अच्छी खासी संख्या रही है।
52 साल के चिरंजीवी वैसे परिवार से आते हैं जिनकी मौजूदगी सिनेमा जगत में रही है। उनके छोटे भाई नागेंद्र बाबू और पवन कल्यम और बेटे रामचरण तेजा भी अभिनेता हैं। दामाद और बहनोई भी सिनेमा जगत से जुड़े हुए हैं। चिरंजीवी अब तक 146 फिल्मों में काम कर चुके हैं। 1982 में बनी फिल्म खाईदी ने उन्हें स्टार बना दिया। क्या फिल्म की तरह राजनीति में भी उनका सितारा बुलंद रहेगा?
अब तमिलनाडु पर नजर डालते हैं। यहां लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को थोक में वोट देने की पंरपरा रही है। लेकिन विधानसभा चुनाव भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण रहा है। इस समय द्रमुक की अगुवाई वाले डेमोक्रेटिक फ्रंट के लिए दोहरा संकट है। इसे केंद्र और राज्य दोनों ही जगह सत्ता में जगह बनानी है।
साल 2006 में बतौर पार्टी नेता और मुख्यमंत्री करुणानिधि का पांचवां कार्यकाल शुरू हुआ। 84 साल के करुणानिधि अब विरासत की योजना बनाने में लगे हुए हैं। उन्होंने टीवी, सिनेमा, अखबार, रियल एस्टेट आदि में भारी निवेश किया है और यह विरासत कौन संभालेगा?
लेकिन समस्या इतनी भर नहीं है। कांग्रेस गठबंधन का घटक रहते हुए पीएमके डेमोक्रेटिक फ्रंट से बाहर हो गई और जयललिता की अन्नाद्रमुक से गठबंधन कर लिया। ऐसे में लंबे समय तक द्रमुक की सहयोगी रही वामपंथी पार्टियां काफी खफा हैं।
उधर, लालू के पास लोकसभा में 23 सांसद हैं। लालू के 14 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद भाजपा के सहयोग से नीतीश कुमार ने उन्हें उखाड़ फेंका। लालू को सर्वाधिक पिछड़े वर्ग का समर्थन हासिल था। बिहार एकमात्र ऐसा राज्य है जहां मुसलमानों ने भाजपा-जदयू गठबंधन को वोट दिया। बिहार में आई बाढ़ ने नीतीश के लिए हालांकि बाधा उत्पन्न की है।
लेकिन राज्य में कुछ कर गुजरने की उनकी कोशिश सराही गई है। उनकी नीतियों की विस्तृत रूप से प्रशंसा हुई है, खास तौर पर बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में और कानून-व्यवस्था में हुए सुधार के तौर पर। इन परिस्थितियों में इस पर संदेह नहीं है कि बिहार केमतदाता लालू को उखाड़ फेंकने वाले हैं और उनकी सीटों की संख्या 4 से 7 के बीच रहने वाली है।
अगर बिहार, आंध्र और तमिलनाडु में संप्रग की सीटों में सेंध लगती है तो वह इसकी क्षतिपूर्ति कहां से करेगा? दिल्ली – लेकिन यहां तो लोकसभा की सिर्फ 7 सीटें हैं। 48 सीटों वाले महाराष्ट्र से उम्मीद की जा सकती है। कर्नाटक और गुजरात भी संभावनाओं का द्वार खोलते हैं, लेकिन यहां भाजपा को लाभ मिल सकता है।
क्या इसका यह मतलब है कि लोकसभा में भाजपा की लहर चलने वाली है? मुश्किल से, राजस्थान और दिल्ली में विधानसभा चुनाव हारकर इसने 20 लोकसभा सीट के बराबर शक्ति खो दी है। ऐसे में साल 2009 के चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियां बडी भूमिका निभाते दिख सकते हैं।
