वैश्विक वित्तीय संकट और दुनिया भर में अर्थव्यवस्था पर इसके असर की जांच-पड़ताल निश्चित तौर से विकासोन्मुख नीतियों की प्रकृति को लेकर जारी बहस को बदल देगी।
पिछले कई वर्षों के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था में आए भारी उछाल और विकासशील देशों द्वारा बढ़चढ़ कर इस तेजी से फायदा लेने की क्षमता दिखाने के बाद ‘बाजार, वैश्वीकरण और अभिनव खोज’ जैसे जुमलों पर एक मजबूत बहस की शुरुआत हुई।
इस दौरान आया एक प्रासंगिक बदलाव यह था कि ‘विकासशील’ की जगह ‘उभरते देश’ जैसी शब्दावली ने जगह ले ली। इससे प्रेरित होकर सुझाव दिया गया कि तेज और सतत विकास में सरकार के प्रयासों का थोड़ा सा ही योगदान होता है (यह तो बाहरी संसाधनों द्वारा प्रेरित होती है) और बाजार की ताकतों के जरिए उद्यमशील ऊर्जा द्वारा ऐसा संभव हो पाता है।
हालांकि, अब अनियमित बाजारों और बढ़ते वैश्विक एकीकरण के विपरीत परिणाम सामने आने लगे हैं और सरकारी हस्तक्षेप की अनिवार्यता एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गई है। साथ ही इस बात को लेकर भी चिंता बढ़ी है कि एकीकरण के कारण कैसे एक क्षेत्र में आई मंदी या बुरा दौर एक अर्थव्यवस्था और फिर पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले सकता है।
व्यापार संरक्षण के उपायों के तहत पहले ही एकीकरण विरोधी विचार जोर पकड़ने लगा है। अपनी गिरती हुई अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए विभिन्न सरकारें पहले ही ऐसे उपायों की शुरुआत कर चुकी हैं। हालांकि, यह प्रवृत्ति अभी सीमापार वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी और लोगों की आवाजाही के खिलाफ अधिक स्थायी बाधाएं खड़ी कर सकती है।
विकासशील या उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए ऐसी स्थिति कई तरह की चिंताएं पैदा करती है। इस देशों के बीच समृद्धि और उनकी राजनीतिक परिस्थितियों से संबंधित विभिन्न असमानताओं को ध्यान में रखते हुए कोई भी यह दलील दे सकता है कि आज ‘सुधार’ शब्द के मायने मोटे तौर पर सभी के लिए एक जैसे हो गए हैं।
इसका अर्थ है कि बाजार और व्यापक एकीकरण के लिए पहले के मुकाबले अधिक कोशिश की जाए, जो उद्यमशीलता और अभिनव खोजों को बढ़ावा देगी। लेकिन इस सब चीजों के विवादित होने के बाद अब क्या विकासशील विश्व में सुधारवादी युग का अंत हो गया है?
ऐसा हो भी सकता है। एक बार फिर राजनीतिक दशाओं में अंतर को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्विक संकट के ठोस आर्थिक प्रभावों के तहत मौजूदा रुझानों का विरोध करने वाले और प्रतिरोध खड़े करने वाले समूहों की स्थिति अधिक मजबूत होगी। यह संसदीय चुनावों में किसी खास पार्टी की जीत या फिर सत्ताधारी प्रतिष्ठान में सत्ता संतुलन के केंद्र में परिवर्तन के रूप में दिखाई दे सकता है।
इसके अलावा विकासशील दुनिया में सरकारों की आर्थिक नीतियों पर राय में प्रासंगिक और व्यापक बदलाव दिखाई देने की भी पूरी संभावना है। जैसा कि समझा जा रहा है और पूर्वानुमान है, अगर ऐसा होता है तो यह एक चिंता का विषय है। अगर नीतियों की धारा दूसरी दिशा की ओर मुड़ती है तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि कई तरह से विकासशील देश भी इसमें शामिल होंगे।
हर वह देश जिसे आज उभरती अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है, उनमें एक ऐसा समय था जबकि राज्य में आर्थिक खिलाड़ियों का प्रभुत्व था। अक्सर यह समय काफी लंबा था। एक परिसंपत्ति के स्वामी या सख्त लाइसेंसर और आर्थिक गतिविधियों के नियामक के तौर पर कई ऐसी बातें हैं जो ऐसा करने का फिर से आह्वान कर सकती है।
लेकिन, उपलब्ध प्रमाणों से पता चलता है कि भूमिका का निर्वाह अक्सर अयोग्यता और गलत ढंग से किया गया। सच पूछिए तो, विकासात्मक उद्देश्यों को पूरा करने में राज्य के प्रभुत्व वाले मॉडल की असफलता के कारण बाजार की ओर रुझान बढ़ा और वैश्वीकरण की ओर तार्किक ढंग से अग्रसर हुए।
विभिन्न समूहों के हितों को नियंत्रत करने में राज्य की स्वाभाविक असमर्थता और प्रोत्साहन के अपरिहार्य रूप से विकृत रूप के कारण ऐसा संभव हुआ, हालांकि इनमें से ज्यादातर के पीछे का इरादा अच्छा था। निश्चित तौर से इस बहस में एक दुविधा भी है। विकास के लिए राज्य आधारित मॉडल की सभी कमियों और कमजोरियों के बावजूद मौजूदा हालात में शायद ही कोई वैश्विक अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने में राज्य की भूमिका को नकार सकता है।
चाहे वह समृद्ध देश हों या फिर उभरते हुए देश, राज्यों द्वारा उठाए गए कदम अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन ये स्थायित्व और सुधार में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं। अगर इस दुविधा को दूर कर लिया जाए तो हमें बचाव के चरण में राज्य और बाद के समय में सरकार की भूमिका को स्पष्ट करना होगा।
ऐसी ही एक दुविधा उभरती अर्थव्यवस्थाओं की सफलता में वैश्वीकरण की भूमिका का मूल्यांकन और उसके बाद वित्तीय मंदी के फैलाव को लेकर भी उपजी है। विभिन्न चरणों में धनी देशों के बाजारों तक उभरती अर्थव्यवस्थाओं की पहुंच और इन देशों द्वारा पेश किए गए अवसरों में धनी देशों के निवेशकों की रुचि ने तेज विकास दर में अहम भूमिका अदा की है।
इस बदलाव में दोनों संपर्कों की भूमिका थी और मौजूदा संकट के बाद संभव है कि सरकारें दोबारा से इन संपर्कों की जांच शुरू करें। जैसा कि मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि अगर नीतियों की धारा अगर दूसरी चरम स्थिति की ओर मुड़ जाती है, तो इसके अपने खतरे हैं।
बाजार ने राज्य के लिए रास्ता तैयार किया है, वैश्वीकरण ने राज्य के सामने हथियार डाल दिया हैं और अभिनव खोज को जोखिम और अनिश्चितता से मिल रही धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। मौजूदा संदर्भ में ‘सुधार’, जिसके संकेतार्थ सबसे अधिक सकारात्मक हैं, बाजार- वैश्वीकरण- अभिनव खोज के प्रतिमान से बेहद करीब से जुड़ा हुआ है। इस तरह से परिभाषित करें तो कहा जा सकता है कि मौजूदा संकट का अर्थ आर्थिक सुधारों का अंत भी हो सकता है।
हालांकि वास्तविकता यह है कि संकट के बाद सुधारों की बेहद जरूरत होगी क्योंकि विकासशील देश सतत तेज विकास के साथ ही जोखिमों को कम करने और उसके मुकाबले की क्षमता तैयार करने के बीच तालमेल स्थापित करने की दिशा में प्रयास करेंगे। सतत विकास के लिए बाजार तक बिना किसी बाधा के पहुंच, प्रभावी उत्पादन क्षमताएं और निवेश का बेहतर माहौल जरूरी है।
बाजार, वैश्वीकरण और अभिनव खोज तीनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। जोखिम को कम करने और आघात सहने की क्षमता विकसित करने के लिए राज्य से अधिक महत्त्वपूर्ण और अधिक जटिल भूमिका की उम्मीद है। जैसे सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों की क्षमता और पहुंच को बढ़ाना।
संक्षप में, बाजार, वैश्वीकरण और अभिनव खोज के संदर्भों के साथ सुधारों की मौजूदा परिभाषा को फिर से तैयार करने की जरूरत है ताकि वह अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक और उद्देश्योन्मुख प्रक्रिया को दर्शा सके।
यदि विकास की रणनीति में तेज विकास, जोखिम उन्मूलन और आघात सहने की क्षमता के तीन समान रूप से महत्त्वपूर्ण घटक हैं तो बाजार और राज्य, वैश्विक और स्थानीय कारण तथा जोखिम लेने और सावधानी के बीच एक संतुलन की खोज करने की जरूरत है।
ऐसे कोई भी नीतिगत उपाय जो इन संयुक्त उद्देश्यों को हासिल करने के लिए आर्थिक प्रणाली की क्षमता बढ़ाते हैं, उन्हें सुधारों के तौर पर देखना चाहिए। निश्चित तौर से हमें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए जो भ्रम को और बढ़ाए।
(लेखक स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स एशिया पैसिफिक में मुख्य अर्थशास्त्री हैं। विचार उनके अपने हैं।)
