वामपंथी नेतागण सालों साल नाकाम आर्थिक विकास से लेकर अन्य चीजों की बाबत केंद्र सरकार को दोष देते रहे हैं।
उनकी बातों से कुछ लोगों को लगता होगा कि राज्यों में वामपंथी शासन ने काफी उम्दा परिणाम दिए हैं, लिहाजा यह बेहतर विकल्प पेश करता है।
लेकिन हाल में दिल्ली के दो अर्थशास्त्रियों विवेक देवराय और लवीश भंडारी द्वारा पेश किए गए दस्तावेज को पढ़ने के बाद किसी को इस तरह का भ्रम नहीं रहेगा। उनके इस अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 31 साल से वामपंथियों के कब्जे में रहा पश्चिम बंगाल लगभग सभी मानदंडों में दूसरे राज्यों से काफी पीछे है।
दोनों अर्थशास्त्रियों का कहना है कि राज्य में गरीबी विकराल रूप धारण किए हुए है, रोजगार का बढ़ना बिल्कुल बंद है और शिक्षा का इंतजाम भी ठीक नहीं है। जब सड़क, बिजली और पीने के पानी की बात आती है तो यह राज्य झारखंड से भी काफी पीछे है।
स्कूल में बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों का अनुपात देश के सिर्फ चार राज्यों में ही खराब हालत में है। महाराष्ट्र व तमिलनाडु की तरह यहां तीन गुना घरों को पीने का पानी उपलब्ध नहीं हो पाता। साथ ही, राज्य के बजट के अलावा यहां पूंजीगत खर्च का नामोनिशान तक नहीं है। हाल में उपलब्ध आंकड़े मुख्य रूप से नकारात्मक संकेत देते हैं।
उदाहरण के तौर पर एसोचैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद औद्योगिक निवेश की रैंकिंग के मामले में राज्य तेजी से पिछड़ रहा है। यहां यह भी साफ है कि समस्याएं इन दो बिंदुओं से काफी पहले की हैं, जब इन दोनों मुद्दों ने राष्ट्रीय मानचित्र पर अपनी जगह बनाई थी।
राज्य में वामपंथी शासन के शुरुआती दिनों में राज्य की बदहाली के लिए सामान्य तौर पर केंद्र पर आरोप लगाया जाता था और कहा जाता था कि नई दिल्ली राज्य के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है। ऐसी शिकायतें हाल के वर्षों में भी सुनी गई है, लेकिन वास्तव में राज्य के मुख्यमंत्री को केंद्र से जो कुछ मिला है, उससे वह खुश नजर आते दिख रहे हैं।
देवराय-भंडारी का अध्ययन बताता है कि राज्य प्रशासन की कमजोरियों के कारण पश्चिम बंगाल ने ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम जैसी केंद्रीय योजनाओं का कम से कम इस्तेमाल किया है। कुछ कर दिखाने के लिए 31 साल का समय कम नहीं होता। निष्कर्ष यह हो सकता है कि वामपंथी आर्थिक विकास के अपने मॉडल के जरिए कुछ खास नहीं कर सकते, जैसा कि दिख भी रहा है।
दूसरे राज्य विभिन्न वजहों से आगे निकलने में कामयाब हुए हैं। इसलिए मामला ऐसा नहीं है कि राज्य ऐसा नहीं कर सकता। एक परिणाम यह निकल रहा है कि जिंदगी में आगे निकलने की चाह में पढ़े-लिखे युवा दूसरे राज्यों का रुख कर रहे हैं।
राज्य के लोग अब उस राजनीतिक मनोदशा में फंस गए लगते हैं जिसमें कुछ लोग वाम पार्टियों के अलावा किसी और के सत्ता में लौटने की संभावना देख रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वामपंथी पार्टियां अपना और अपनी सरकार का चेहरा बदल सकने में सक्षम हैं। इसके साथ ही क्या वे ईमानदारी के साथ अपने आप से कठिन सवाल पूछने की हिम्मत कर रहे हैं। इस दृष्टि से विचार सही नहीं लगता।
