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  लेख  गरीबों के नाम पर गरीबों के शोषण का नुस्खा
लेख

गरीबों के नाम पर गरीबों के शोषण का नुस्खा

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —August 26, 2008 1:20 AM IST0
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जैसे ही वेबसाइट खोलते हैं एक लाल स्क्रीन खुलती है, जिसमें सुनहरी मछलियां बाएं भागती हैं फिर दाएं जाती हैं। यह कॉम्पार्टामोस की वेबसाइट का होम पेज है।


मेक्सिको का यह माइक्रोफाइनैंस संस्थान पहली लैटिन अमेरिकी संस्था है, जिसने आईपीओ के माध्यम से 40 करोड़ डॉलर की इक्विटी पूंजी जुटाई है। कॉम्पार्टामोस दरअसल एक एनजीओ था, जिसने पहले लाभ कमाना शुरु किया और बाद में वह एक बैंक में तब्दील हो गया ताकि उसकी पहुंच ज्यादा से ज्यादा लोगों तक हो सके।  तो इसमें गलत क्या है?

आज कॉम्पार्टामोस माइक्रो-फाइनैंस जगत में सफलता या विवादों की एक कहानी बन चुकी है, यह अलग बात है कि आप किस ओर खड़े हैं। अगर आप नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद यूनुस के पक्ष में खड़े हैं, जिन्हें लोगों ने माइक्रोफाइनैंस के जनक की पदवी से नवाजा है तो कॉम्पार्टामोस कुछ भी नहीं कर रही है, वह केवल गरीबों का पैसा अमीरों तक पहुंचा रही है, जिससे वे और अमीर हो सकें।

कॉम्पार्टामोस 100 प्रतिशत के करीब ब्याज वसूलता है, लेकिन युनूस इससे विचलित नहीं हैं। दरअसल यूनुस का मानना है कि कॉम्पार्टामोस का यह दावा कि वह माइक्रोफाइनैंस का काम करता है, गलत है। दरअसल वह निवेशकों के लाभ के लिए काम कर रहा है, न कि गरीबों के वास्ते।

वह कहते हैं कि जब आप माइक्रोक्रेडिट यानी छोटे कर्ज की बात करते हैं तो उसमें कॉम्पार्टामोस को शामिल मत कीजिए। हाल ही में दक्षिण पूर्व एशिया या बेंगलुरु में हुई इस सप्ताह की बैठक में भी उन्होंने अपना इसी तरह का आक्रोश व्यक्त किया।

अगर कोई भी माइक्रोफाइनैंस को धर्मार्थ कार्य में या गरीबों के हित में दिए गए कर्ज के रूप में देखता है तो गहराई से देखने पर पता चलेगा कि बैंक के दो डॉयरेक्टर्स, कार्लोस लाबर्थे और कार्लोस डानेल एमएफआई को गलत परिभाषित कर रहे हैं।  दरअसल यूनुस माइक्रोफाइनैंस के तहत लेन-देन को महाजनों से पैसा गरीबों तक पहुंचाने के रूप में देखते हैं।

माइक्रोफाइनैंस के धर्मार्थ कार्य तक सीमित रहने और इसे बाजार से जोड़ने के मसले पर भारतीय एमएफआई बुरी तरह से बंटे हुए हैं। कुछ का मानना है कि लाबर्थे ऐंड कंपनी जिस रूप में काम कर रहे हैं, माइक्रोफाइनैंस का नए युग का चेहरा है।

लेकिन गरीबों की मदद करने के लिए छोटी पूंजी इकट्ठा करने और कॉम्पार्टामोस और उसके समर्थकों के लाभ कमाने की प्रवृत्ति को एक नजरिए से कैसे देखा जा सकता है? इसके बचाव में बैंक का कहना है कि पिछले आठ साल में उससे उधार लेने वालों की संख्या 60,000 से बढ़कर 9,00,000 हो गई है। इसे शोषण कहना थोड़ा कठिन है।

हकीकत यह है कि लोग अब भी उधार लेते हैं और 99 प्रतिशत लोग पैसे वापस कर रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि ब्याज दर अधिक रखने का कोई प्रभाव नहीं है, निवेशकों को ही इसका लाभ मिल रहा है, न कि उधार लेने वाले गरीबों को। कॉम्पार्टामोस और उनके समर्थकों को इस बात की कोई मौद्रिक स्वतंत्रता नहीं है जिससे वे स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाली एजेंसियों या स्कूलों की श्रृंखला शुरू कर सकें जैसा कि ग्रामीण बैंक या ब्रैक कर रहे हैं।

भारत में काम करने वाले एमएफआई, जो पहले से ही निजी इक्विटी फंडों के माध्यम से पैसा जुटा रहे हैं और अपने आईपीओ की घोषणा का इंतजार कर रहे हैं, का कहना है कि कॉम्पार्टामोस एक अनोखा मामला है, जो भारत में संभव नहीं है। वहां पर भारत जैसी प्रतिस्पर्धा नहीं है और यहां पर कोई भी एमएफआई वर्तमान के 30 प्रतिशत से ज्यादा शुल्क लेकर काम नहीं कर सकती।

बीएएसआईएक्स के पूर्व चेयरमैन मैल्कम हार्पर का कहना है कॉम्पार्टामोस कुछ लोगों को अमीर बना रहा है और कुछ बहुत गरीब लोगों को कम गरीब बना रहा है, इस लिहाज से वह सही है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उसे किस रूप में देखते हैं।

माइक्रोफाइनैंस पर ब्लॉग पर चल रही एक बहस में हार्पर कहते हैं, गरीब लोग अपनी रोटी वालमार्ट से खरीदते हैं, पेय पदार्थ कोकाकोला से आता है, खाद्य तेल यूनीलीवर या वैसी ही किसी कंपनी से आता है। इसके चलते इन व्यवसायों को संरक्षण देने वाले शेयरधारक और सीईओ के पद पर काम कर रहे लोग बहुत अमीर हो रहे हैं।

अब इस कॉम्पार्टामोस सौदे से यह हुआ है कि गरीब लोग उससे ही मिलते जुलते संगठनों से वित्तीय सेवाएं ले सकते हैं, जिससे शेयरधारक और प्रबंधतंत्र अमीर बने हैं। अगर हम यह सोचते हैं कि यह सब ठीक है,  तो यह कहा जा सकता है कि गरीब लोगों के लिए वित्तीय सेवाएं मुख्य धारा से जुड़ी हैं, जैसा कि जिंसों के मामले में हुआ है। दानकर्ता ने दान किया और वह उससे दूर हो गया।

लेकिन अगर आप यह सोचते हैं कि यह सब सही नहीं है, तो पता चलता है कि पूरा तंत्र मूल रूप से शोषक है, जैसा कि वाल-मार्ट, यूनीलीवर, पेप्सीको और सभी पैसा बनाकर अमीर से और अमीर बनते जा रहे हैं और गरीब लोग और गरीब होते जा रहे हैं। या वे गरीबों को अमीर होने में कोई मदद नहीं कर रहे हैं और यह सोचकर बहुत दुख होता है कि वित्तीय सेवाएं ‘मुख्यधारा’ में आ गई हैं और कॉम्पार्टामोस के साथ अन्य एमएफआई भी जल्द इस क्लब में शामिल हो जाएंगी।

यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप दुनिया को किस नजरिए से देखते हैं। यहां पर एक सवाल और भी उठता है कि लाभ कमाना तो उचित है, लेकिन क्या लाभ का हिस्सा उधार लेने वालों तक भी जा रहा है? और आखिर कॉम्पार्टामोस अपनी अतिरिक्त आमदनी के आंकड़े सामने क्यों नहीं लाता?

अगर बैंक की वेबसाइट की मछलियों की ओर वापस लौटें तो क्या यह एक ऐसा और उपक्रम है जहां मछलियां पानी के भीतर संकट में हैं? या यह दानकर्ताओं को बाहर निकालकर एक ऐसा मॉडल तैयार कर रहा है, जिससे पिरामिड के तले के लोगों यानी गरीबों तक धन पहुंच सके?

recipe of poor's exploitation on name of poors
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