महामारी के कारण वैश्विक स्तर पर अत्यधिक गरीबी की दर 2019 के 8.4 फीसदी अनुमानित से बढ़कर 9.3 फीसदी हो गई। परंतु अमीर देशों में इसे लेकर खामोशी का माहौल है। बता रहे हैं रथिन रॉय
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की सालाना बैठकें आमतौर पर ऐसा मौका होती हैं जहां विभिन्न प्रतिष्ठान इन संस्थाओं में अपना भरोसा जताते हैं और नीतिगत व्यवस्थाएं अपने ताजातरीन नीतिगत उपाय पेश करती हैं। इस बार मामला अलग है क्योंकि दुनिया बदल चुकी है।
आगे आ रही वैश्विक मंदी से निपटना है। युद्ध और उसके कारण बढ़ी ईंधन कीमतों की वजह से मुद्रास्फीति में भी इजाफा हुआ है। ऐसे में तमाम बेहतरीन अर्थशास्त्रियों का भी यही कहना है कि अगर राष्ट्रीय स्तर पर सरकारें नाकाम रहती हैं तो बहुपक्षीय संस्थानों को इन चुनौतियों से निपटने के लिए आगे आना होगा।
जलवायु परिवर्तन के असर को सीमित करने में जो निवेश होना है उसके लिए वित्तीय संसाधनों में इजाफा करना तात्कालिक आवश्यकता है। पश्चिमी देशों की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता की सामरिक लागत तथा ऊर्जा बदलाव को लेकर निराशा के बीच यह तय है कि बहुपक्षीय संस्थानों से इस बदलाव के लिए ऋण देने को प्राथमिकता देने की बात कही जाएगी।
अमीर देशों की गतिविधियों के कारण जलवायु के क्षेत्र में जो नुकसान हुए हैं उसकी बात अब ठंडे बस्ते में है लेकिन जीवाश्म ईंधन वाले उद्योगों में निवेश करने के लिए विश्व बैंक को शर्मिंदा करने वाले अभियान लगातार चलाए जा रहे हैं।
अमेरिकी टीकाकार इसे पॉलिक्राइसिस कहते हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जहां विभिन्न प्रकार की वैश्विक समस्याएं एक दूसरे में गड्डमड्ड हो जाती हैं। परंतु अमीर देश तथा उत्सर्जन को विशुद्ध शून्य करने के लिए जरूरी निवेश की निगरानी करने वाली संस्थाएं एक ऐसे बदलाव को लेकर खामोश हैं जो विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में देखने को मिला।
इस रिपोर्ट में कहा गया कि महामारी के कारण दुनिया भर में अत्यधिक गरीबी 2019 के 8.4 फीसदी के अनुमान से बढ़कर 2020 में 9.3 फीसदी हो गई। वहीं गरीब देशों में लोगों की आय अमीर देशों की तुलना में काफी कम हुई। दशक भर में पहली बार वैश्विक असमानता में इजाफा हुआ। अमीर देश महामारी से अपेक्षाकृत तेजी से निपटे जबकि निम्न और मध्यम आय वाले देशों के साथ ऐसा नहीं हुआ। 2022 के अंत तक करीब 68.5 करोड़ लोग अभी भी अत्यधिक गरीबी में जीवन बिता रहे हो सकते हैं।
अमीरों को चिंतित करने वाली पॉलिक्राइसिस निश्चित तौर पर गरीब देशों तथा कम समृद्ध देशों को भी बुरी तरह प्रभावित करने वाली हैं। मुद्रास्फीति गरीबों पर सबसे अधिक असर डालेगी। परंतु अमीर देश इसकी किसी भी तरह की क्षतिपूर्ति को लेकर अनिच्छुक हैं क्योंकि वे अपने भविष्य की समृद्धि को सुरक्षित करने में लगे हैं।
इसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों में गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं। ऐसे में ब्रिटेन में मुद्रास्फीतिजनित मंदी को लेकर उत्पन्न कठिन हालात से निपटने के लिए दी गई नीतिगत प्रतिक्रिया में दिक्कत हुई और वह अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से पीछे हट रहा है। ब्रिटेन के गृहमंत्री ने उन भारतीयों पर नाराजगी जताई है जो वीजा अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी वहां रुके हुए हैं। यह घटना उस व्यापारिक समझौते की संध्या पर घटी जिसे प्रधानमंत्री ब्रिटेन के वैश्विक होने को लेकर एक अहम कदम के रूप में दिखाना चाहती हैं और जिसमें भारत से कुशल लोगों की तादाद बढ़ाना शामिल है।
अमेरिकी राष्ट्रपति सऊदी अरब जैसे सहयोगी देशों को खुलकर धमकी दे रहे हैं क्योंकि वह पेट्रोलियम उत्पादन सीमित करने में रूस के साथ तालमेल कर रहा है। चीन का आर्थिक इंजन धीमा पड़ रहा है ऐसे में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी औरवहां के शासन ने एशिया में युद्ध जैसे माहौल को बढ़ावा दिया है।
यूरोप को होने वाली जीवाश्म ईंधन आपूर्ति पर रूस का वर्चस्व है जिसका मुकाबला करने के लिए इन देशों ने कोयले और परमाणु ऊर्जा का रुख किया है। ध्यान रहे कि उसी जीवाश्म ईंधन से यूरोप के लोगों ने लंबे समय से एक बेहतर संस्कृति वाली जीवन शैली निर्मित की है। उन्होंने वर्षों तक दूसरों को परमाणु ऊर्जा की खामियां बताने के बाद अंतत: उसे एक अच्छी चीज बताते हुए अपना लिया है।
ऐसी स्थिति में यह सोचना फिजूल है कि अंतरराष्ट्रीय और बहुपक्षीय वित्तीय संसाधनों में इजाफा होगा और वे किसी जादुई उपाय का काम करेंगे। जरूरत इस बात की है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाईचारे को बढ़ावा दिया जाए और जरूरी नेतृत्व प्रदान किया जाए।
एक नया विश्लेषणात्मक ढांचा है जो पॉलीक्राइसिस को वैश्विक आर्थिक ढांचे में खामियों के परिणाम के रूप में चिह्नित करता है। परंतु इस बीच यथास्थिति वाला विचार अभी भी प्रबल है। ऐसे में खपत के रुझान में कमी करने की दिशा में ठोस काम से इनकार के कारण आज अंतरराष्ट्रीय स्थायित्व का संकट एक ऐसी स्थिति में आ गया है जहां युद्ध के इस दौर में यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि विकसित विश्व अपनी जीवनशैली के लिए जीवाश्म ईंधन पर पूरी तरह निर्भर है।
स्थायित्व हासिल करने के लिए अधिक समतापूर्ण राह यह होगी कि ऐतिहासिक रूप से अधिक उत्सर्जन करने वाले देश खपत कम करें जबकि गरीब देश ज्यादा। अगर ऐसा होता तो यह निर्भरता कम होती। अपेक्षाकृत गरीब देश अधिक समृद्ध होते अगर जलवायु परिवर्तन को लेकर बहुआयामी नजरिया अपनाया जाता तथा गरीब देशों उनकी खाद्य प्रणाली, शहरी व्यवस्था और जैव विविधता आदि का भी ध्यान रखा गया होता। इसके लिए ढांचागत बदलाव की आवश्यकता है।
एक ऐसा रास्ता जिसकी मदद से वैश्विक तापवृद्धि से निपटा जा सके। लेकिन इस विषय पर गहरी खामोशी है क्योंकि समावेशी वैश्विक समृद्धि के लिए वह समुदाय त्याग नहीं करेगा जो आज जीवाश्म ईंधन की बदौलत अरबपति बना हुआ है और कल को जलवायु परिवर्तन से जुड़े कदमों से भी वही लाभान्वित होने वाला है। ऐसा करने के लिए न कोई नेतृत्व संबंधी पहल हो रही है और नही वैश्विक स्तर पर बंधुत्व की कोई भावना है।
इसका नतीजा हमें बढ़ती गरीबी और जीवन जीने की लागत में बढ़ती मुश्किलों के रूप में देखने को मिल रहा है। विश्व बैंक ने गरीबी का संदेश देकर अपना काम कर दिया है। उसके बहुलांश अंशधारक मुद्रास्फीतिजनित मंदी और युद्ध से जुड़ी आशंकाओं और जीवाश्म ईंधन की बढ़ती कीमतों को लेकर चिंतित हैं।
पॉलीक्राइसिस के माहौल में अतीत की गरीबी की समस्या के लिए ज्यादा समय नहीं है। जलवायु वित्त और वृहद आर्थिक चुनौतियों के लिए काम करना बहुत अधिक आकर्षक लगता है। यही कारण है कि ऐसी वार्षिक बैठकों में गरीबी को लेकर तत्काल अंतरराष्ट्रीय समन्वय वाले कदमों की मांग सुनने को नहीं मिलती।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में निजी विचार हैं)