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  लेख  सरकारी लापरवाही का नतीजा है मंदी
लेख

सरकारी लापरवाही का नतीजा है मंदी

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 16, 2008 10:31 PM IST0
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पिछले साल के आखिर में जब कच्चे तेल की कीमतों में इजाफे की शुरुआत हुई थी, तब ज्यादातर लोगों को लगा था कि यह इजाफा बस चार दिनों की चांदनी है।


हिंदुस्तान समेत कई मुल्कों ने इसका बोझ आम लोगों के कंधों पर डालना जरूरी नहीं समझा और इसे सब्सिडी के जरिये खुद ही झेलने का इरादा किया। लेकिन जल्द ही उन्हें पता चल गया कि ऐसा ज्यादा दिनों तक नहीं चलने वाला।

लेकिन अब दुनिया भर में मांग में तेज गिरावट के बाद आज कच्चे तेल की कीमत उस स्तर के आधे पर आ चुकी हैं, जिस पर वह तीन महीने पहले थी। कीमत आज करीब-करीब उस स्तर पर पहुंच चुकी है, जिस पर वह साल भर पहले थी।

लेकिन अब भी सरकार आम लोगों से पेट्रोलियम उत्पादों की पूरी लागत नहीं वसूल पा रही है। इस वजह से सब्सिडी का बिल उम्मीदों के सारे बंधनों को तोड़ आज काफी मोटा हो चुका है, जिस वजह से सरकारी खजाने की कमर टूटती जा रही है।

खास तौर पर अपने मुल्क में उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी का भी बोझ तो सरकारी खजाने पर पड़ता है, जिसकी कीमत भी बुलंदियों को छू रही है। इस दोतरफा चोट की वजह से आज केंद्र का राजकोषीय घाटा उसके अनुमान से दोगुना हो चुका है। इस कोढ में किसानों को दी गई कर्जमाफी ने खाज का काम किया। इसे लोग कुछ वक्त से जानते हैं, लेकिन देसी वित्तीय व्यवस्था में आज की नगदी की कमी ने इस की अहमियत को और भी बढ़ा दिया है।

पेट्रोलियम और उर्वरक कंपनियों के घाटे को पाटने की खातिर ही सरकार ने बॉन्ड्स जारी किए थे। इन बॉन्डों को ही बेचकर वे पैसे उगाहते थे। हालांकि, बाजार की बुरी गत की वजह से उन्हें इन बॉन्डों को काफी कम कीमतों पर बेचना पड़ा। इसी वजह से उन्हें बैंकों का सहारा लेना पड़ा, जिससे उनके पास पेट्रोलियम सेक्टर के लिए मौजूद पैसे खत्म हो गए। इसके जवाब में रिजर्व बैंक ने दो कदम उठाए।

उसने पहले तो पेट्रोलियम सेक्टर के लिए कर्जों की सीमा बढ़ा दी और एक स्पेशल मार्केट ऑपरेशन की शुरुआत की, जिसमें उन्हें तेल बॉन्डों के बदले में डॉलर मुहैया करवाए गए। इससे उन्हें तेल का आयात करने में मदद मिलेगी। इससे दो बातें हुईं। पहली बात तो यह कि इससे तेल कंपनियों ने कर्ज लेने कम किए, जिस वजह से बैंकिंग सिस्टम से दवाब को कम हुआ।

साथ ही, इससे तेल कंपनियों ने डॉलर की खातिर विदेशी हाजिर मुद्रा बाजार का मुंह ताकना भी बंद कर दिया क्योंकि अब वे सीधे रिजर्व बैंक से डॉलर खरीद सकते थे। इससे रुपये की तेज गिरावट पर भी फौरन ब्रेक लग गई।

हालांकि, ये सारी खुशियां कुछ ही दिनों तक रहीं। जल्द ही तेल बॉन्डों का स्टॉक खत्म हो गया क्योंकि पिछले दिसंबर के बाद से अब तक एक भी तेल बॉन्ड जारी नहीं किया गया है। इसलिए दिक्कत अब भी बरकरार रही। तेल कंपनियां फिर से कर्जों के लिए बैंकों और विदेशी मुद्रा के लिए हाजिर बाजार पर आश्रित हो गईं।

सरकार इस मुसीबत से देसी बाजार को तो बचा ही सकती थी। जल्दी ही संसद का सत्र शुरू होने वाला है, इसलिए उम्मीद है कि बचे तेल बॉन्ड जल्दी ही जारी कर दिए जाएंगे। रिजर्व बैंक भी ऐलान कर चुका है कि वो फिर से बॉन्ड के बदले डॉलर देने को तैयार है। इससे नगदी की कमी से राहत तो मिलेगी, लेकिन यह सरकारी खजाने के कुप्रबंधन को दिखलाता है।

recession is result of government misbehaviour
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