पंद्रहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट समग्र होने के साथ विश्लेषणपरक भी है। उस समय इसका स्वागत होना चाहिए जब भारत सरकार की तरफ से गुणवत्तापूर्ण आर्थिक विश्लेषण बहुत कम ही सामने आते हों। काम के लिए निर्धारित संदर्भ बिंदुओं के पूर्वग्रह से ग्रस्त होने के बावजूद आयोग ने उल्लेखनीय काम किया है।
केंद्र एवं राज्य सरकारों के वित्त का विश्लेषण काफी ठोस है। इस रिपोर्ट ने महामारी के असर और उसके पहले संरचनात्मक वृद्धि में कायम सुस्ती को स्वीकार करने का भी तर्कसंगत काम किया है। नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि को वित्त वर्ष 2025-26 में 11.5 फीसदी रहने का अनुमान भी जताया गया है। आयोग यह मानकर चला है कि राजस्व एवं जीडीपी अनुपात में सिर्फ साधारण बढ़त ही होगी। यह वर्ष 2021-22 एवं 2022-23 में विनिवेश प्रक्रियाओं में वृद्धि के बारे में सरकार के दावे को आशावादी नजरिये से स्वीकार करता है लेकिन इसके आकलन को आगे ले जाने से रोकता है। यह समझदारी की बात है। मौजूदा रिकॉर्ड के हिसाब से विनिवेश प्राप्तियां लगातार लक्ष्य से दूर रही हैं। इन पूर्वानुमानों और राजकोषीय घाटे के 2025-26 में गिरकर जीडीपी का 4 फीसदी हो जाने के अनुमान को देखें तो यह अंकगणित हकीकत को बयां करता है। केंद्र सरकार का आकार सिकुडऩे से उसके खर्च में भी गिरावट आएगी और यह 2019-20 में जीडीपी के 13.1 फीसदी से घटकर 2025-26 में 12.8 फीसदी हो जाने का अनुमान है।
मेरा इकलौता बहाना ऐतिहासिक विश्लेषण को लेकर है। यह कहता है कि केंद्र सरकार ने राजकोषीय मजबूती उस समय हासिल की जब सरकारें राजकोषीय घाटा लक्ष्यों से लगातार चूकती रहीं। यह इसे भी खुलकर इंगित करने में नाकाम रहा है कि राज्य सरकारों पर राजकोषीय तनाव केंद्र के दखल (खासकर उदय योजना) और उपकर लगाने के अस्वीकार्य एवं द्वेषपूर्ण तरीके की वजह से है। वित्त आयोग की अनुशंसाएं अपने-आप में एक हद तक सही हैं। यह बड़ी राहत है कि केंद्र सरकार को अपनी व्यय जरूरतों का हवाला देते हुए अपना राजकोषीय तनाव राज्यों को देने की अनुमति नहीं दी गई है, लंबवत अंतरण स्थायी है और अनुदानों से मजबूती मिलती है। लंबवत अंतरण में आय फासला मापदंड की प्राथमिकता होती है और बड़ी चालाकी से इस बहस को साधने की कोशिश की है कि क्या कम उत्पादकता वृद्धि वाले राज्यों को दंडित किया जा रहा है? यह उत्पादकता में आई गिरावट और अपने मापदंड में जनसंख्या के आकार को आनुपातिक रूप से समाहित करता है।
यह निराशाजनक है कि यह आयोग केंद्र सरकार द्वारा उपकर लगाने की प्रवृत्ति को न केवल अनदेखा करता है बल्कि उसे स्वीकृति भी देता है। अनुशंसा अवधि के अंत में उपकरों का सकल कर राजस्व में अनुपात 19 फीसदी रहने का अनुमान है जबकि 2019-20 में यह 15 फीसदी रहा था। शायद आयोग यह मानता है कि कर-विभाज्य पूल में अपनी वैध हिस्सेदारी से राज्यों को वंचित करने की इस नीरस प्रथा पर लगाम लगाने की ताकत उसके पास नहीं है। यह निराशाजनक है कि एक संवैधानिक संस्था इस हद तक बुजदिल हो चुकी है।
आयोग को गहरे पूर्वग्रह से प्रेरित संदर्भ बिंदु दिए गए थे जो राज्यों को केंद्र की आर्थिक नीतियों का अनुचर बनने को प्रोत्साहित करने और इसकी पुष्टि के लिए ‘परिमेय प्रदर्शन संकेतकों’ के विकास का इरादा रखते हैं। आयोग का नजरिया प्रदर्शन-आधारित अनुदानों की अनुशंसा का रहा है जो ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘मातृभाषा’ के विकास जैसे लक्ष्यों की बात करते हैं। यह भारत सरकार की उस मंशा के विपरीत है कि सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल केंद्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप राज्य सरकारें तालमेल बिठाकर करें। राज्य-विशेष को अनुकंपा एवं मदद के तौर पर अनुदान देने की रवायत फिर से बहाल हो गई है। लेकिन इन सभी अनुदानों का वार्षिक आकार बहुत अधिक नहीं है लिहाजा संदर्भ बिंदुओं से अलग नजर आने वाला यह सुझाव राजकोषीय रूप से अधिक महंगा नहीं रहा है।
आयोग ने संदर्भ बिंदुओं का जिक्र करते हुए कुछ नई तरह की अंग्रेजी भी लिखी है, जिसमें ‘रक्षा एवं आंतरिक सुरक्षा के लिए एक अलग व्यवस्था बनाई जानी चाहिए’ पर सोचने की सलाह भी शामिल है। काफी सोच-विचार के बाद आयोग ने खत्म न होने वाले एक फंड के गठन की सिफारिश भी की है जिसमें बजट आवंटनों और रक्षा मंत्रालय के स्वामित्व वाली जमीनों एवं अन्य संपत्तियों की बिक्री से हासिल राशि समाहित होगी। नतीजतन, यह बजट का बंटवारा भी कर देता है-ऐसी स्थिति की कल्पना करें जिसमें हरेक मंत्रालय के पास ऐसा एक फंड हो। इससे बजट निर्माण की समूची कवायद ही निरर्थक हो जाएगी-समेकित निधि अप्रासंगिक एवं सरल विनिमय बाधित हो जाएगा। लेकिन यह विशुद्ध दिखावा है। अगर सरकार इन प्रक्रियाओं का सहारा लेते हुए रक्षा एवं आंतरिक सुरक्षा पर अधिक खर्च करना चाहती है तो वह ऐसा फंड बनाए बगैर भी यह काम कर सकती है।
राजकोषीय मजबूती के बारे में आयोग के सुझाव आश्चर्यजनक रूप से छोटे एवं लगभग संकोची हैं। राजकोषीय उत्तरदायित्व के लिए प्रारूप पर नए सिरे से गौर करने पर वैश्विक चर्चा का अभाव दिखता है। ऋण संवहनीयता के बारे में अकाउंटेंट के नजरिये के स्थान पर राजकोषीय स्थिति के उपयोग के आकलन की बढ़ती स्वीकार्यता को लेकर भी चुप्पी देखी गई है। यह रिपोर्ट राजकोषीय घाटे के तीन वैकल्पिक परिदृश्य पेश करता है जो अधिक उधारी जुटाने की अनुमति, आयोग के मध्यावधि आकलन की तुलना में वृहद-आर्थिक रिकवरी सुस्त रहने और इसके उलट स्थिति की बात करता है। यह काफी हद तक गैरजिम्मेदार कदम है, अगर वृहद-आर्थिक अनुमान व्यवहार्य एवं हासिल करने लायक हैं तो फिर एक दायरा तय करने का कोई आधार नहीं है।
बाकी मुद्दों पर ईमानदार तर्क परोसे गए हैं। केंद्र का राजस्व व्यय बड़े पैमाने पर ली गई उधारी से जुटाया जाता रहेगा और जीडीपी के अनुमानित दर से भी बढऩे पर राजस्व संग्रह में खास सुधार नहीं आएगा। विनिवेश पर सरकार के दावे पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए संदिग्ध ही हैं। राजकोषीय कमजोरी का सिलसिला आगे भी जारी रहने और इसमें बदलाव के लिए कोई विचार या रणनीति नहीं होने से मध्यम-अवधि में राजकोषीय घाटे का उठान पथ ऊंचा रहना अपरिहार्य ही है। और वित्त आयोग ने भी कुछ ऐसी बात ही कही है।
यह रिपोर्ट राजकोषीय ढांचे में सुधार के कुछ अच्छे सुझाव भी देती है। सरकार 30 वर्षों से अधिक समय से राजकोषीय ढांचे में छिटपुट बदलाव ही कर पाई है। वर्षों तक निर्णय-निर्माण में तदर्थ रुख अपनाने और संरचनात्मक राजकोषीय कमजोरी का सामना नहीं करने का नतीजा वित्त मंत्रालय की कम कार्यकारी एवं विश्लेषणात्मक क्षमता के रूप में निकला है जो कि अब भी प्रशासकीय मिजाज वाला ही है। इसे स्वीकार करने और इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से यथासंभव निपटने वाली रिपोर्ट तैयार करने के लिए आयोग की प्रशंसा की जानी चाहिए।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
