भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने देश के निजी बैंकों के स्वामित्व दिशानिर्देशों और कॉरपोरेट ढांचे पर अपने आंतरिक कार्यदल की रिपोर्ट पिछले पखवाड़े जारी कर दी। इस रिपोर्ट पर चर्चा जोर-शोर से हो रही है, जिसमें सिफारिश की गई है कि ‘बड़ी कंपनियों या औद्योगिक घरानों को बैंकों के प्रवर्तक के रूप में मंजूरी दी जा सकती है…।’ आंतरिक कार्यदल ने यह भी सिफारिश की कि कॉरपोरेट घराने के स्वामित्व वाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) समेत अच्छी चल रहीं एनबीएफसी बैंक लाइसेंस प्राप्त कर सकती हैं। कार्यदल ने यह भी सिफारिश की कि भुगतान बैंकों को तीन साल के परिचालन के बाद लघु वित्त बैंकों में तब्दील किया जा सकता है।
इससे पहले आरबीआई ने शहरी सहकारी बैंकों (यूसीबी) को लघु वित्त बैंकों में बदलने की मंजूरी दी थी और वित्त वर्ष 2021 के केंद्रीय बजट में भी यूसीबी का पूरा नियंत्रण आरबीआई के हाथ में दे दिया गया। फिर अगस्त से मीडिया खबरों में कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार कुछ सबसे छोटे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) का निजीकरण करेगी। केंद्र सरकार की पीएसबी के साथ नासमझी भरी छेड़छाड़ जारी है। एक अहम और स्पष्ट कदम के तहत आरबीआई ने सिंगापुर के डीबीएस को उस कुप्रबंधित लक्ष्मी विलास बैंक के अधिग्रहण की मंजूरी दे दी, जो उपयुक्त प्रस्ताव हासिल करने में नाकाम रहा है।
साफ तौर पर गवर्नर शक्तिकांत दास की अगुआई में आरबीआई बैंकिंग सुधारों पर तेजी से आगे बढ़ रहा है, जो उसकी आम तौर पर सुस्त रफ्तार से बिल्कुल विपरीत है। इनके क्या नतीजे आ रहे हैं? इन उपायों में से ज्यादातर कैसे फलदायी साबित होने की संभावना है? क्या बड़े कारोबारी घरानों के बैंकों को अधिग्रहीत करने और उनका दुरुपयोग करने की चिंताएं वाजिब हैं? सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल (हालांकि इस पर बहुत कम चर्चा है) यह है कि क्या इससे जमाकर्ताओं के लिए बैंकिंग सेवाओं की गुणवत्ता और लागत में कोई बदलाव आएगा?
1. बहुत जल्द कुछ नहीं
नई शुरुआत करने वालों के लिए अगर पिछली समयसीमा कोई संकेतक है तो नीतिगत बदलाव बहुत जल्द होने की संभावना नहीं है। नए बैंकों पर एक विमर्श-पत्र वर्ष 2010 में जारी किया गया था, लेकिन प्रारूप दिशानिर्देश 2011 में जारी किए गए और अंतिम दिशानिर्देश 2013 में आए। इसके बाद नए नियमों के तहत केवल दो नए बैंकों को लाइसेंस दिए गए। वह भी 2015 में यानी विमर्श पत्र के पांच साल बाद। आंतरिक कार्यदल की पिछले पखवाड़े जारी रिपोर्ट भी ऐसे एक विमर्श पत्र से अधिक कुछ नहीं है। वर्ष 2013 तक नए बैंक लाइसेंस वर्ष 2001 के दिशानिर्देशों के तहत जारी किए गए। ऐसे में वर्ष 2001 से 2010 के बीच कितने नए बैंकों को मंजूरी दी गई? केवल दो-येस बैंक और कोटक महिंद्रा बैंक। निस्संदेह वर्ष 2014 के बाद आरबीआई ने एक दर्जन बैंक शुरू करने की मंजूरी दी है। वे दो प्रकार के थे- भुगतान बैंक (जो अनुमान के मुताबिक असफल रहे) और लघु वित्त बैंक जो सामूहिक रूप से भी बैंकिंग सेवाओं की प्रतिस्पर्धा एवं गुणवत्ता में मुश्किल से ही कोई अंतर ला पाए हैं। वर्ष 2001 से 2015 के बीच केवल दो बैंकों को लाइसेंस दिए जाने की वजह प्रतिस्पर्धा को दूर रखने के लिए मौजूदा बड़े बैंकों की लॉबी है। माना कि अगले दो-तीन साल में छह नए बैंकों को लाइसेंस दिए जाते हैं तो क्या हमें कुछ बदलाव नजर आएगा?
2. लागत एवं गुणवत्ता
इससे भी बड़ा बिंदु यह है कि और बैंकों को लाइसेंस देने, बैंकिंग में कारोबारी घरानों को मंजूरी, बैंकों की विभिन्न श्रेणियों को मंजूरी, नियंत्रण योग्य हिस्सेदारी की सीमा की बहस मुख्य रूप से तकनीकी मुद्दों को लेकर है। ये विषय मीडिया में चर्चा का केंद्र बिंदु इसलिए बने रहते हैं क्योंकि पत्रकार उन उद्यमियों और नीति-निर्माताओं से ही संकेत लेते हैं, जिनके लिए ये मामले ही अहम हैं। इन मामलों में से किसी का भी उन लोगों से क्या संबंध है, जो (करोड़ों जमाकर्ता एवं ऋणी) इससे दूर हैं और जिनके पैसे या कर्ज पर बैंकिंग कारोबार आधारित है?
क्या कारोबारी घरानों को बैंकिंग में मंजूरी दी जानी चाहिए या प्रवर्तकों की नियंत्रण हिस्सेदारी कितनी होनी चाहिए, ऐसे मुद्दे केवल ऐसे ढांचे या प्रारूप हैं, जिनके जरिये बैंकिंग सेवा दी जाती है। नीतियों की वास्तविक परीक्षा यह है कि क्या उनसे तुलनात्मक रूप से कम लागत पर बैंकिंग सेवाओं में सुधार के जरिये ग्राहक अनुभव में सुधार आता है क्योंकि बैंकों को तकनीक एवं पैमाने का फायदा मिलता है। इसी पर सभी आर्थिक प्रगति टिकी होती हैं। जनता के परिवहन के साधन, मनोरंजन, दैनिक उपभोग की वस्तुएं, इलेक्ट्रॉनिक्स, वाहन जैसे क्षेत्रों में बीते दशकों में उपभोक्ताओं को तुलनात्मक लागत में लगातार कमी और बेहतर गुणवत्ता के उत्पादों एवं सेवाओं के रूप में प्रतिस्पर्धा एवं पैमाने के जरिये लाभ मिला है। ऐसा वित्तीय बाजारों में कम नजर आता है। वित्तीय उपभोक्ताओं की सबसे आम शिकायतें जटिल प्रक्रिया, जटिल उत्पाद, ऊंचा शुल्क और उत्पादों की भ्रामक बिक्री हैं, जिनमें वादे या उम्मीद के मुताबिक लाभ नहीं मिलता है। इससे भी बदतर चीज यह है कि जब वे ठगे जाते हैं तो निवारण प्रक्रिया निराशाजनक है और उपभोक्ता के ही खिलाफ होती है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है? ये क्षेत्र सबसे ज्यादा नियंत्रित हैं और फिर भी (या संभवतया इसलिए) ग्राहकों को प्रतिस्पर्धा, तकनीक या पैमाने के साथ लागत में कमी या सेवाओं में सुधार का पूरा फायदा नहीं मिल पाता है। यह नीति की सबसे बड़ी खामी है।
वर्ष 2014 में पी जे नायक समिति की रिपोर्ट में बैंक बोर्डों में प्रशासन से संबंधित मुद्दों की चर्चा की गई थी। हालांकि समिति का उपभोक्ता मुद्दों से कोई ताल्लुक नहीं था। लेकिन रिपोर्ट में भ्रामक बिक्री पर एक खंड था। इसमें कहा गया, ‘नए निजी बैंकों का थर्ड पार्टी उत्पादों, विशेष रूप से बीमा और म्युुचुअल फंड के वितरण में दबदबा कायम हो गया है। विशेष रूप से जीवन बीमा वितरण का प्राप्त फीस में एक बड़ा हिस्सा है, लेकिन इससे भ्रामक बिक्री को लेकर आलोचना भी बढ़ी है। भारत में वित्तीय उत्पादों के लिए उन उपभोक्ता संरक्षण कानूनों का अभाव है, जिनसे ग्राहकों की शिकायत का जल्द समाधान हो सके। समिति ने यह माना कि यह मुद्दा इतना गंभीर है कि बैंक बोर्डों को थर्ड पार्टी उत्पादों के वितरण में ग्राहक सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए। मगर कुछ नहीं हुआ क्योंकि ऐसी भ्रामक बिक्री ने शुद्ध मुनाफे के स्तर पर लाभ दिया और नीति-निर्माताओं को भी कोई परेशानी नहीं थी। क्या आरबीआई ऐसे किसी कार्यदल का गठन करेगा, जो यह थाह ले कि क्या प्रतिस्पर्धा से कम लागत पर बेहतर उत्पाद या सेवाएं मिल पा रही हैं? वह वास्तविक प्रगति साबित होगी।