भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के एक आयोजन में केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की एक टिप्पणी काफी चर्चा में है। गोयल की टिप्पणी से संकेत निकलता है कि उनके विचार में कुछ भारतीय कंपनियां देश हित को ध्यान में रखकर काम नहीं कर रही हैं। उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री की ऐसी टिप्पणी के तात्कालिक संदर्भ और कारण को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए और कारोबारी पूंजी के साथ सरकार के रिश्तों को लेकर भी व्यापक बहस होनी चाहिए। पहली बात करें तो गोयल ने खासतौर पर टाटा समूह की कंपनियों का उल्लेख किया। खबरों के मुताबिक उन्होंने कहा समूह ने ई-कॉमर्स के लिए बनाए गए नियमों पर आपत्ति जताई। केंद्र सरकार का कहना है कि ये नियम उपभोक्ताओं के अनुरूप हैं।
ऐसा लगता है कि वह विदेशी स्वामित्व वाली ई-कॉमर्स कंपनियों एमेजॉन तथा फ्लिपकार्ट की नाराजगी को स्वीकार करने को तैयार थी लेकिन टाटा तथा संगठित खुदरा के अन्य घरेलू कारोबारियों मसलन रिलायंस रिटेल की ओर से भी आपत्तियां आईं। टाटा और रिलायंस जैसे समूहों को डर है कि ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर व्यापक प्रतिबंध उन्हें साझेदार समूहों मसलन स्टारबक्स (टाटा के साथ) और अरमानी, ब्लूबेरी तथा माक्र्स ऐंड स्पेंसर (रिलायंस के साझेदार) के साथ करीबी सहयोग से रोक सकता है। मंत्री का विचार शायद यह है कि ऐसी शिकायतें पर्याप्त राष्ट्रवादी नहीं हैं और यह कुछ उस तरह का व्यवहार है जहां संगठित खुदरा कारोबारी नियमन से बचने की राह तलाशना चाहते हैं।
एक ऐसी नीति जिससे संगठित खुदरा क्षेत्र का कोई बड़ा कारोबारी प्रसन्न नहीं है, उसके बचाव के लिए व्यापक बौद्धिकता की जरूरत है। अब तक यह मुहैया नहीं हुआ है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि नए ई-कॉमर्स नियम उपभोक्ताओं को फायदा ही पहुंचाएंगे क्योंकि उन्हें कई ई-कॉमर्स कंपनियों से भारी भरकम छूट मिलती है। शायद सरकार की वास्तविक प्रेरणा असंगठित खुदरा क्षेत्र का बचाव करना है जो कुछ क्षेत्रों में मजबूत राजनीतिक और चुनावी ताकत हैं। परंतु यदि ऐसा है तो यह बात स्पष्ट रूप से कही जानी चाहिए। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश में ई-कॉमर्स के नियमन अव्यवस्थित, असंगत और संरक्षणवादी हैं। नए नियमों का मूल्यांकन अतीत की गलतियों तथा भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। संभावना तो यही है कि उनमें कमी निकलेगी। ऐसे बचाव की अनुपस्थिति में राज्य की नियामकीय शाखा की गलती है, न कि कंपनियों की।
यहां व्यापक प्रश्न यह है कि इससे सरकार और निजी क्षेत्र के रिश्तों के बारे में क्या पता चलता है। अतीत में केंद्रीय मंत्री समेत सरकार के वरिष्ठ लोग उद्योग जगत को धमका चुके हैं कि वह पर्याप्त निवेश नहीं कर रहा। गोयल ने गत वर्ष स्वयं एक चर्चित बयान में एमेजॉन से कहा था कि उसका एक अरब डॉलर निवेश का वादा भारत पर कोई अहसान नहीं था। इसके विपरीत प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कहा कि उद्योग जगत और सरकार के बीच बढ़ता विश्वास एक उपलब्धि है। देसी या विदेशी निवेशकों को धमकाने से विश्वास नहीं मजबूत होगा। नियमन सिद्धांतों पर आधारित होने चाहिए और उनके लिए आर्थिक सिद्धांत प्रयोग में लाए जाने चाहिए। स्पष्ट है कि सरकार को लगता है कि उद्योग जगत वफादार नहीं है जबकि उद्योग जगत को लगता है कि सरकार प्रताडि़त करती है। इस खाई को पाटना होगा। यह निजी क्षेत्र के भय का ही उदाहरण है कि मंत्री के भाषण की ओर ध्यान आकृष्टï होने पर उसे हटा दिया गया। यह इसके सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, न ही यह निवेश और औद्योगिक वृद्धि को आगे ले जाने की दृष्टि से उचित है। देश का हित निवेश और वृद्धि बहाल करने में है।