भारत में हाल के दो घटनाक्रम के बाद केंद्रीय बैंकों के कामकाज में नियम-कायदों की महत्ता पर ध्यान देने की जरूरत पैदा हो गई है। वर्ष 2016 में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) कानूनी रूप से महंगाई को लक्षित करने वाला केंद्रीय बैंक बन गया। मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) एक निर्धारित समयानुसार नीतिगत घोषणाएं करती है। मगर विगत 4 मई को एमपीसी ने निर्धारित समय से पहले बैठक बुलाई और नीतिगत दर में 40 आधार अंकों की वृद्धि कर दी। बाजार इससे पूरी तरह सहम गया और 10 वर्ष की अवधि के सरकारी बॉन्ड पर प्रतिफल उछल गया। आखिर आरबीआई ने ऐसा क्यों किया? कई लोगों का मानना है कि 8 अप्रैल को एमपीसी की हुई बैठक और 4 मई को अचानक बुलाई गई बैठक के बीच महंगाई के परिदृश्य में कोई खासा बदलाव नहीं आया था।
एक संभावना मुद्रा विनिमय दर से जुड़ी है। पिछले एक वर्ष के दौरान अमेरिकी मुद्रा डॉलर 8 प्रतिशत मजबूत हुआ है। अगर दूसरी चीजें स्थिर रखी जाएं तो इसका मतलब है कि रुपये में सामान्य कमजोरी करीब 8 प्रतिशत रहनी चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि आरबीआई रुपये में आई गिरावट से लड़ रहा है और अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा दरों में बढ़ोतरी पर प्रतिक्रिया दे रहा है। अगर मेरे नजरिये से देखें तो फिलहाल रुपया मजबूत करने का प्रयास बुद्धिमानी भरा कदम नहीं है। मगर इस आलेख के निहितार्थ हम आरबीआई के कदमों के कानूनी एवं संवैधानिक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करेंगे। संसद ने आरबीआई को महंगाई नियंत्रित करने का अधिकार दिया है, न कि सारा ध्यान मुद्रा स्थिरता सुनिश्चित करने पर लगाने के लिए कहा है। महंगाई लक्ष्य से इतर काम करना आरबीआई अधिनियम से मेल नहीं खाता है।
दूसरी घटना नैसडैक में सूचीबद्ध एक क्रिप्टो एक्सचेंज के संस्थापक एवं मुख्य कार्याधिकारी का वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि आरबीआई के ‘अनौपचारिक’ दबाव के कारण उन्होंने अपने प्लेटफॉर्म पर यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) प्रणाली हटा दी है।
कंपनी ने पहले कहा था कि वह भारत में एक ऐसा मंच तैयार करेगी जिसके जरिये निवेशक यूपीआई के इस्तेमाल से रकम प्राप्त कर या भेज पाएंगे। यूपीआई प्रणाली में यह किसी कारोबारी प्रतिष्ठान का वाजिब अधिकार है। अगर मैं कोई वस्तु बेचता हूं तो ग्राहकों को यूपीआई से भुगतान का विकल्प दे सकता हूं। भुगतान का माध्यम क्या है यह आरबीआई या किसी के लिए भी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए।
भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) एक प्रेस विज्ञप्ति लेकर आया और सभी भारतीय बैंकों ने उस एक्सचेंज के साथ कारोबार करने से मना कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि 100 देशों में 10 करोड़ उपयोगकर्ता वाली और सालाना 1 लाख करोड़ डॉलर से अधिक कारोबार करने वाली यह कंपनी अपनी कारोबारी योजना से पीछे हट गई।
वर्तमान भारतीय वित्तीय नियामकीय ढांचे में आरबीआई के पास एनपीसीएल और सभी बैंकों से अधिक अधिकार हैं। आरबीआई की सहमति या बिना असहमति के बैंकों का यह कदम उच्चतम न्यायालय के उस आदेश का उल्लंघन है जिसमें क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध को दरकिनार कर दिया गया था। देश की संसद ने उपभोक्ता के हितों की रक्षा एवं वित्तीय स्थिरता के लिए सांविधिक नियामकीय प्राधिकरण (एसआरए) नाम से एजेंसियां तैयार की हैं। इन एजेंसियों को नियमानुसार निष्पक्ष एवं पारदर्शी तरीके से अपने दायित्व के निर्वाह के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्रता की जरूरत है। मगर ‘सामान्य एवं पूर्ण स्वतंत्रता’ का विचार बचकाना है। संवैधानिक लोकतंत्र में प्रत्येक एजेंसी पर नियंत्रण और उसके साथ संतुलन स्थापित करने की जरूरत होती है। सरकार के सभी संगठनों में संवैधानिक मर्यादा और कानून का अनुपालन अवश्य होना चाहिए। अगर एक बड़ी स्वतंत्रता की भी जरूरत है तो भी संवैधानिक लोकतंत्र में कानून का उल्लंघन नहीं हो सकता।
केंद्रीय बैंक एक तरह की वित्तीय संस्था है। इसका मुख्य दायित्व मूल्य स्थिरता बरकरार रखना है। हम ऐसे केंद्रीय बैंक का ढांचा कैसे तैयार कर सकते हैं जो कानून की बुनियाद और उद्देश्य पूरा करने के लिए आवश्यक स्वतंत्रता से लैस हो? भारत में नीति निर्धारकों ने कई वर्षों तक इन प्रश्नों पर विचार किया है जिसके बाद वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) ने त्रि-आयामी सुझाव दिए। पहला आयाम सभी एसआरए के निर्णय लेने संबंधी प्रक्रिया से जुड़ा है। भारत में एसआरए की अपनी उपयोगिता है क्योंकि आरबीआई को भुगतान एवं बैंकिंग उद्योग के निमयन की भूमिका सौंपी गई है। जब गैर-निर्वाचित अधिकारी कानून लिखने लगते हैं कि तो लोकतांत्रिक वैधता का प्रश्न खड़ा हो जाता है। तकनीकी विशेषज्ञता में इसका समाधान छुपा है। तकनीकी विशेषज्ञता से आशय है कि विशेषज्ञों का एक समूह समाधान सुझाता है। इससे ‘प्रशासनिक राज्य’, अधिकारियों के शासन से जुड़ी समस्या दूर होती है और एजेंसी द्वारा कानून में वैधता निर्धारित होती है।
दूसरा आयाम जांच, अभियोजन और दंड से संबंधित है। ये सभी कार्य कार्यपालिका के दायरे में आते हैं। यहां राजनीतिक स्वतंत्रता की जरूरत पेश आती है। राजनीतिक आकाओं को अपने विरोधियों को मनमाना दंड देने या उन्हें धमकाने की स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए। इसके लिए एक तय प्रक्रिया होनी चाहिए और संसदीय कानून में इसका प्रावधान भी है। इस प्रावधान में अधिकारों का बंटवारा कर दिया गया है और जांच से जुड़े अधिकार भी परिभाषित एवं सीमित किए गए हैं। अभियोजन से जुड़े निर्णय में जरूरी बातों का अनुपालन करना होता है और मामले की सुनवाई भी साफ-सुथरे तरीके से होती है। किसी तरह के निर्णय के पीछे ठोस आधार होना चाहिए और सजा अपराध की गंभीरता के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए।
तीसरा आयाम मौद्रिक नीति से जुड़ा है। मौद्रिक नीति अर्थव्यवस्था में लघु ब्याज दर के नियंत्रण के माध्यम के रूप में परिभाषित की गई है। यहां राजनीतिक स्वतंत्रता की एक भूमिका होती है। राजनीतिक आकाओं को लिए चुनाव से ठीक पहले ब्याज दर कम करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए। दर संबंधी निर्णय लेने के लिए अधिकांश विकसित देशों में एक स्वतंत्र विशेषज्ञ मौद्रिक नीति समिति संरचना की व्यवस्था की गई है। इसके साथ ही आरबीआई के अधिकारों से जुड़े प्रश्न भी हैं। आरबीआई एक्सचेंज चलाने से लेकर केंद्र एवं राज्य सरकारों के लिए निवेश बैंकिंग सहित कई भूमिका निभा रहा है। इन तमाम उत्तरदायित्वों से कई गतिरोध एवं विधि से जुड़े अंतर्विरोध के मामले सामने आ जाते हैं। महंगाई लक्ष्य साधने और स्वतंत्र एमपीसी की शुरुआत भारत के इतिहास में कुछ अच्छी पहल कही जा सकती हैं। वर्ष 1934 से लेकर आरबीआई अधिनियम की प्रस्तावना में आरबीआई को एक अस्थायी व्यवस्था माना गया था। मगर 2016 में ये शब्द प्रभावी ढंग से हटा लिए गए। पहली बार आरबीआई एक अस्थायी उपाय नहीं रह गया जिसके पास कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। यह महंगाई पर ध्यान केंद्रित करने वाला एक केंद्रीय बैंक बन गया था।
हाल में दरों में अचानक वृद्धि और एक वैश्विक एक्सचेंज पर ‘अनौपचारिक’ पाबंदी लगने से जुड़े घटनाक्रम हमें कुछ और जरूरी सुधारों की जरूरत की तरफ इशारा करते हैं। हमें आगे बढऩे की जरूरत है और आरबीआई में सुधार के बाकी लक्ष्य को भी पूरा करने की जरूरत है।
(लेखक सीपीआर में मानद प्राध्यापक हैं)
