पिछले दो दशक में इक्विटी ने बेहद बुरा रिटर्न दिया है, हालांकि अब यह निवेश का आकर्षक विकल्प बन सकता है। बता रहे हैं आकाश प्रकाश
हम सभी को हमेशा से बताया गया है कि लंबी अवधि के लिहाज से इक्विटी में निवेश करना हर किसी के लिए सबसे बढ़िया विकल्प है। इसके जरिए कार्पोरेट क्षेत्र के विकास और उसकी गतिशीलता का फायदा उठाया जा सकता है और आर्थिक विकास में भागीदार बनने का सबसे बढ़िया जरिया इक्विटी ही है।
निवेश की इस विधा का प्रचलित मंत्र है ‘खरीदो और होल्ड करो’। इसे हमेशा से दीर्घावधि में संपत्ति सृजन का सबसे अच्छा तरीका माना गया है। हालांकि अगर पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों पर गौर करे तो कोई भी ‘खरीदो और होल्ड करो’ की इस निवेश विधा पर संदेह व्यक्त कर सकता है, सवाल उठा सकता है।
आज एमएससीआई ग्लोबल इक्विटी इंडेक्स (दिसंबर 2008 के अंत में) अपने 1997 के आंकड़े से अधिक नहीं है, और अगर इसमें महंगाई के असर को भी जोड़ लिया जाए तो आश्चर्यजनक तौर पर ये मौजूदा सूचंकाक 1973 के स्तर पर जा पहुंचता है।
अगर इस पर गंभीरता से विचार करें तो हम पाते हैं कि यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि वैश्विक इक्विटी बाजार में पिछले 35 वर्षों के दौरान कोई भी बढ़ोतरी हुई ही नहीं है।
ऊपर जो आंकड़े दिए गए हैं वे केवल वैश्विक इक्विटी के प्रतिफल को दर्शाते हैं और इसमें लाभांश को नहीं जोड़ा गया है (लाभांश से इतर केवल पूंजी में वृद्धि को ध्यान में रखा गया है)।
इन आंकड़ों के आधार पर पिछले कई दशकों के दौरान इक्विटी का प्रदर्शन लचर रहा है। यदि हम कुल प्रतिफल पर गौर करें- जिसमें लाभांश और पूंजीगत वृद्धि (यह माना गया है कि सभी लाभांश को दोबारा निवेश कर दिया गया है) शामिल है- तब इक्विटी का प्रदर्शन थोड़ा बेहतर हो जाता है, हालांकि 1990 के बाद से इसका प्रदर्शन फिर भी लचर ही बना रहता है।
अगर कुल इक्विटी प्रतिफल की तुलना बांड और नकद से की जाए तो कुछ चौकाने वाले परिणाम सामने आते हैं। निवेशकों को 1970 के बाद से विभिन्न सरकारी बांडों में निवेश करने पर इक्विटी के मुकाबले कहीं बेहतर प्रतिफल मिले हैं।
इतना ही नहीं 1987 के बाद से तुलना करें तो इक्विटी में निवेश करने के बजाए अपने पास नकदी रखना अधिक फायदेमंद रहा है। जोखिम समायोजन के आधार पर और भी बुरे परिणाम निकल कर सामने आते हैं।
निश्चित तौर से वैश्विक सरकारी बांडों ने कम जोखिम पर अधिक प्रतिफल दिया है, यहां शून्य जोखिम वाली नकद निष्पादन इक्विटियों को शामिल नहीं किया गया है।
इससे किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए डरावने परिणाम हो सकते हैं जो दीर्घावधि के लिए वैश्विक इक्विटी में निवेश करने में विश्वास रखता हो और ‘खरीदों और होल्ड करो’ की धैर्यपूर्ण रणनीति को अपनाता हो।
यदि आपने बाजार के उतार-चढ़ावों पर गौर किया होता और सही समय पर बाजार में प्रवेश करते तथा बाहर निकल जाते,या किसी खास देश और शेयरों में निवेश करते, तो आप कहीं बेहतर प्रतिफल हासिल कर सकते थे। लेकिन, दीर्घावधि के लिए ज्यादातर निवेशकों ने अधिक धैर्यवान नजरिए को अपनाया।
ये तुलनात्मक आंकड़े एमएससीआई ग्लोबल इक्विटी इंडेक्स के हैं और किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ज्यादातर सक्रिय प्रबंधक दरअसल संबंधित सूंचकांक की चाल को समझने में नाकाम रहे हैं और इसलिए अगर आप इक्विटी परिसंपत्तियों के वैश्विक पूल का प्रबंधन करने के लिए किसी प्रबंधक को नियोजित करते हैं तो इस बात की संभावना अधिक है कि उपरोक्त आंकड़ों के मुकाबले अधिक बुरे परिणाम सामने आएं।
यह आश्चर्यजनक है कि इस बारे में कवरेज और पिछले दशक के दौरान ग्लोबल इक्विटी द्वारा दिए गए बुरे प्रतिफल पर बहस देखने को नहीं मिली है। अब इस विश्वास की बुनियाद दरक गई है कि दीर्घावधि के दौरान बचत को निवेश करने का सबसे अच्छा जरिया इक्विटी है।
पिछले एक दशक के दौरान बाजार में दो बार आए मंदी के आलम के आधार पर ही निवेशकों को इक्विटी में परिसंपत्तियों के आवंटन के औचित्य पर सवाल उठाने चाहिए। हम मानते हैं कि निवेशकों के मोहभंग का जोखिम भी बना हुआ है और बाजार में उनके द्वारा इक्विटी में निवेश घट सकता है।
इस तरह के व्यवहार के कारण कम से कम लघु अवधि में इक्विटी बाजार में एक सीलिंग लग जाएगी। निवेशकों का रुझान घटने के कारण ऐसा होगा। रियल मनी दीर्घावधि निवेशकों द्वारा अपनाई गई ज्यादातर परिसंपत्ति आवंटन नीतियां भी अब निश्चित तौर से सवालों के घेरे में आएंगी। ये नीतियां इस खाके पर आधारित हैं कि दीर्घावधि में निश्चित तौर से इक्विटी उच्चतम प्रतिफल देती हैं।
ऐसे लोगों, चाहे वे फाउंडेशन हो, पारिवारिक कार्यालय हो या फिर सॉवेरन वेल्थ फंड हों, उनके द्वारा दीर्घावधि के दौरान इक्विटी में किए जाने वाले आवंटन पर सवाल तो उठेंगे ही। इनमें से ज्यादातर ने इक्विटी में 50 प्रतिशत से अधिक निवेश कर रखा है और इस संख्या पर निश्चित तौर से बहस होनी चाहिए।
इस कारण पिछले साल निवेशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। उन्हें किसी भी हालत में निश्चित तौर से जोखिम में कटौती करनी चाहिए। मुझे भरोसा नहीं है कि इन संस्थानों के पास इस तरह के उतार-चढ़ाव का मुकाबला करने के लिए समुचित प्रणाली थी और खासतौर से ऐसे तूफान में जैसा कि हमने 2008 में देखा है।
क्या हम इन मजबूत हाथों द्वारा पुनर्संतुलन की स्थिति को देखेंगे? यदि हम ऐसा कर सके, यह एक वास्तविक समस्या होगी, क्योंकि पूरे परिदृश्य में कोई भी दूसरा मजबूत हाथ नहीं होगा, जो इन प्रवाहों को सोख सके।
इस बुरे प्रदर्शन ने इस ओर भी हमारा ध्यान खींचा है कि इक्विटी द्वारा मिलने वाले प्रतिफल को तर्कसंगत बनाने के लिए लाभांश का महत्व लगातार बना हुआ है। पिछले 50 वर्षों के दौरान पहली बार लाभांश प्रतिफल बांड प्रतिफल के मुकाबले (एक छोटी अवधि के दौरान) बढ़ गया है।
इससे इस धारण को बल मिलता है कि निवेशक अब पूंजीगत बढ़त के मुकाबले लाभांश भुगतान की सुरक्षा को अधिक तरजीह दे रहे हैं। उपरोक्त बिंदु उन जोखिमों की ओर इशारा करते हैं जो निवेशकों द्वारा यह सवाल पूछने से पैदा हो सकते हैं कि आखिर इक्विटी में दीर्घावधि के लिए निवेश बनाए रखने से अधिकतम प्रतिफल कैसे हासिल किया जा सकता है।
हालांकि, पिछले दो दशक के दौरान इक्विटी का बदतर प्रदर्शन हमें यह संकेत भी दे सकता है कि दीर्घावधि में निवेश का आकर्षक विकल्प क्या है? यह सवाल इक्विटी बनाम सरकारी बांड और नकद से जुड़ा हुआ है।
सरकारी प्रतिभूतियों की कीमत काफी अधिक लगती है और ब्याज दरें अब तक के निम्नतम स्तर पर हैं। दुनिया हमेशा के लिए एक अपस्फीतिकारी दशा में नहीं रह सकती है।
चूंकि दुनिया भर के केन्द्रीय बैंक लंबे समय तक लघु अवधि की उधारी दरों को शून्य प्रतिशत के स्तर पर नहीं रख सकते हैं, इसलिए कुछ समय के बाद प्रतिफल और ब्याज दरें भी सामान्य स्तर पर आएंगी।
सुरक्षा के लिए इन परिसंपत्तियों की बोली लगाई जा रही है और तुलनात्मक रूप से इक्विटी इतनी सस्ती कभी भी नहीं रही है। यहां तक कि निरपेक्ष मूल्यांकन के आधार पर, ग्राहम और डॉड पीई तथा तोबिन के क्यू जैसे मानक भी संकेत देते हैं कि इक्विटी पिछले दो दशक के दौरान सबसे सस्ते स्तर पर है।
ये सभी मूल्यांकन दीर्घकालीन औसत के आधार पर हैं, लेकिन बाजार में अभी 15 प्रतिशत की गिरावट और जरूरी है ताकि बाजार मूल्यांकन के निम्नतम स्तर पर पहुंच सके। इक्विटी पिछले दो वर्षों के निम्नतम स्तर पर हैं और उन्होंने एक बार फिर निवेशकों पर ‘खरीदों और होल्ड करो’ नजरिया अपनाने का दबाव बढ़ाया है।
हालांकि निवेशक अगर इक्विटी में दीर्घावधि के लिए निवेश के लिए सही समय के बारे में सवाल करेंगे तो निश्चित तौर से हम उस वक्त के बेहद करीब हैं, जहां दीर्घावधि में अच्छे प्रतिफल की चाह से इक्विटी में प्रवेश किया जा सकता है।