पिछले पूरे सप्ताह राज ठाकरे अखबारों की सुर्खियों पर छाए रहे- पहले जेट एयरवेज के साथ बातचीत को लेकर जब कंपनी ने 1900 लोगों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया और फिर बिहार व उत्तर प्रदेश से आए उन नवयुवकों पर हमला करने के लिए जो रेल में नौकरी के लिए इम्तिहान देने मुंबई गए थे।
राज ठाकरे जल्दी में हैं। राजनीति को फूंक-फूंक कर चुस्कियों में नहीं, उसे गर्म-गर्म पीने की प्यास है उनमें। समय का अभाव भी है- बहुत कुछ करना है और समय कम है।इसलिए इस तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप उनकी राजनीति में पूर्ण रूप से तर्कसंगत है।
शिव सेना में वह नेतृत्व का अभाव देख रहे हैं। पार्टी एक ऐसे नेता की तलाश कर रही है जो सिर्फ कहे नहीं, करे भी। वह जल्दी में हैं, अपने आप को समर्थ मानते हैं, महत्वाकांक्षी हैं और लंबी सोच की शक्ति रखते हैं- अत: राज ठाकरे एक ऐसे युवा नेता हैं जो कानून और संविधान के उल्लंघन के बल पर अपनी राजनीति कर रहे हैं।
ठाकरे शिव सेना से अलग तब हुए जब उन्हें लगने लगा कि उनके लिए संगठन में कोई जगह नहीं रह गई थी। पहली बार 2005 में बाला साहेब ठाकरे ने इन अफवाहों का खंडन किया कि राज ठाकरे शिव सेना छोड़ कर जा रहे हैं। बाल ठाकरे ने 2005 में कहा था, ‘मराठी मानुस और हिंदू इस बात को कतई तवज्जो नहीं देंगे कि शिव सेना के नाम पर कोई नए मंदिरों की स्थापना कर रहा है’।
लेकिन 2005 में ही संसद सदस्य और विधायक संजय निरूपम शिव सेना से निकल कर बाहर आ गए। उसी साल विधान सभा के उपचुनाव में मालवान विधान सभा की सीट से शिव सेना के एक और सरदार, नारायण राणे ने चुनाव लड़ा- लेकिन इस बार कांग्रेस के टिकट पर।
राणे ने यह साबित कर दिया कि शिव सेना कोंकण में नहीं के बराबर रह गई थी- उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी की जमानत जब्त करवा दी और शिव सेना बगलें झांकने लगी। इस पृष्ठभूमि में जब राज ठाकरे को लगा कि उनका शिव सेना में आदर नहीं हो रहा था तो उन्होंने भी छोड़ने की ठानी।
उस समय यदि वे और नारायण राणे साथ मिलकर अपनी मित्रता को लिमिटेड पार्टनरशिप में बदल देते तो शायद दोनों फायदे में रहते। लेकिन दो मायने में एक तलवार कहां रह सकती है? राणे कांग्रेस में चले गए और मंत्री पद स्वीकार कर लिया- साथ अपने आधा दर्जन चेलों को भी ले गए। इससे कांग्रेस राष्ट्रवादी कांग्रेस गठबंधन में कांग्रेस का पलड़ा भारी हो गया।
लेकिन राणे ने अगर यह सोचा था कि मंत्री पद से अधिक कुछ मिलेगा तो वे गलतफहमी में थे। कांग्रेस के साथ उनके मतभेद गहरे होते चले गए और अब यह स्पष्ट नहीं है कि वे अपने आप को कांग्रेस का सदस्य मानते भी हैं या नहीं।
राज ठाकरे ने दूसरा रास्ता नापा। यह था दुर्गम लेकिन खतरा उठाने का प्रीमियम होता ही है। उन्होंने एक नई पार्टी की स्थापना की-महाराष्ट्र नवनिर्माण समिति- इस विश्वास के साथ कि उध्दव बाला साहेब ठाकरे के बाद शिव सेना को संभाल नहीं पाएंगे और उस समय जब शिव सेना के कार्यकर्ता तितर-बितर होंगे तो पहचाना हुआ चेहरा ढूंढेगे।
और फिर कांग्रेस -राकांपा की भी मदद करेंगे क्योंकि वह भी चाहेंगे कि बाला साहेब के परिवार में खलबली मचे। राज ठाकरे ने सोचा कि 1960 में शिव सेना को लेकर जो कांग्रेस की रणनीति थी, वही महाराष्ट्र नवनिर्माण समिति को लेकर 2008 में होगी।
लेकिन 2008, 1960 का दशक नहीं है और राज ठाकरे बाला साहेब नहीं है। अत: यह सब उतनी सहजता से नहीं हो पाया जितनी राज ने कल्पना की थी। 1960 में शिवसेना आक्रामक लोगों का दल था जिनका इस्तेमाल कांग्रेस ने वामपंथी और समाजवादी ट्रेड यूनियनों को तोड़ने में किया।
विचारधारा का चोगा पहन कर यह दल पहले वामपंथियों के खिलाफ और फिर सारे उत्तर भारतीयों के खिलाफ आंदोलन में जुट गया। किस मुंबईवासी को याद नहीं होगा वह हिंसा का नंगा नाच ‘आमची मुंबई’ नारे की आड़ में।
शिव सेना का यह दौर ज्यादा नहीं चला। आमची मुंबई से नारा बदल गया, ‘असली हिंदू कौन है’ शिव सेना का नया नारा हो गया 1980 और 1990 के दशकों में। इससे भारतीय जनता पार्टी के कंधे पर चढ़ कर लालकृष्ण आडवाणी द्वारा रथ यात्राओं का फायदा सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं सारे देश में मिलने की संभावना थी।
लालच सामने था। दोनों हाथों से शिव सेना ने इसे थाम लिया। अब घटना चक्र पूरा हो गया है। राज ठाकरे उस शिव सैनिक की खोज में हैं जो मुंबई और महाराष्ट्र अस्मिता को पहचान कर सेना को अपने मूल रूप में दुबारा ढाल सके। और उधर शिवसेना के कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं कि वे कहां जाए-उध्दव ठाकरे के नए भारतीय हिंदू-भारतीय शिव सैनिक के दिवास्वप्न को ग्रहण करें या वापस वहीं जाए जहां वे खुश है और जहां अपने आप को आत्मीय महसूस करता है।
इतना तो स्पष्ट है कि शिव सेना छोड़ने के तीन साल में राज का राजनीतिक कार्यक्षेत्र बहुत बढ़ गया है। आज आप भले ही उसे पसंद न करें लेकिन उसे अनदेखा नहीं कर सकते।
महाराष्ट्र की राजनीति पर इसका क्या असर पड़ेगा यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन यदि नारायण राणे और राज ठाकरे के बीच अनकही भागीदारी भी हो गई तो यह शिव सेना और कांग्रेस दोनों के लिए सिरदर्द बन सकती है। कांग्रेस जो भी कदम राज ठाकरे के खिलाफ लेती है उससे राज और मशहूर हो जाते हैं। जेल जाना उनकी सेहत सुधारता है।