देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना को लेकर होने वाले विवाद समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। महामारी और उससे जुड़े लॉकडाउन के कारण रोजगार, मांग और उत्पादन को जो क्षति पहुंची है उसने इस बहस को दोबारा केंद्र में ला दिया है कि क्या जीडीपी के आंकड़े जमीनी हकीकत को सही ढंग से प्रदर्शित करते हैं? खासतौर पर असंगठित क्षेत्र के मामले में? पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन तथा भारत में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व प्रतिनिधि जोश फेलमैन की एक हालिया प्रस्तुति ने भी इस बहस पर नए सिरे से जोर दिया है। दोनों लेखकों ने जोर देकर कहा है कि जीडीपी में महामारी के पहले वाले वर्ष यानी 2019-20 में ही गिरावट आ चुकी थी। उन्होंने दलील दी कि विभिन्न संकेतकों मसलन औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, खपत, आयात, कर राजस्व और बैंक ऋण आदि के आधार पर देखा जा रहा है कि भारत की वृद्धि एक तरह से ढह सी गई है। जब इन संकेतकों की तुलना जीडीपी वृद्धि की पिछली अवधियों से की गई तो अंतर एकदम स्पष्ट नजर आया। सुब्रमण्यन और फेलमैन ने कहा कि इस स्थिति में समग्र जीडीपी आंकड़ों में भी अंतर नजर आना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि सभी का यही नजरिया हो। इस समाचार पत्र से बात करते हुए पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव सेन ने संकेत दिया कि ‘नया’ जीडीपी आकलन विश्व के बेहतरीन व्यवहार पर आधारित है और इसमें जीडीपी की तस्वीर वास्तविक भौतिक उत्पादन वृद्धि का अंकेक्षण करने के बजाय मूल्यवद्र्धित आकलन पर आधारित होती है। इसमें दो राय नहीं कि यह तरीका न केवल जीडीपी आकलन के लिए ज्यादा उचित है बल्कि यह भी सही है कि नई जीडीपी शृंखला का निर्माण इसी बात को ध्यान में रखकर किया गया था। डॉ. सेन कहते हैं कि संभव है कि महंगे वाहनों के उत्पादन से जुड़े मूल्य में इजाफे के कारण मूल्यवद्र्धन में इजाफा हुआ हो जबकि वास्तविक भौतिक उत्पादन में कमी आई हो। ऐसा आय के वितरण में बदलाव और असमानता में बढ़ोतरी की वजह से भी हो सकता है। यह भी सही है कि अगर मामला मूल्यवद्र्धन में इजाफे का है तो यह कुछ अन्य संकेतकों में भी प्रभावी ढंग से नजर आना चाहिए। मिसाल के तौर पर समग्र कारोबारी आय के मामले में भी यह दिखना चाहिए। जो लोग सुब्रमण्यन-फेलमैन की बात से असहमत हैं वे भी इन संकेतकों की पहचान नहीं कर पाए हैं।
यहां व्यापक बिंदु यह है कि भारत अपने सबसे अधिक जरूरी आंकड़ों की शृंखला को लेकर ऐसे बुनियादी सवालों को लंबा नहीं खिंचने दे सकता है। समस्या का एक हिस्सा यह भी है कि जीडीपी के आंकड़ों को लेकर जो सवाल सदिच्छा से पूछे जाते हैं उन पर भी चर्चा सही सूचना के अभाव में होती है। मसलन किन चीजों का सर्वेक्षण किया जाता है, किन चीजों को शामिल किया जाता है, क्या अनुमान लगाया जाता है और किन चीजों को बाहर रखा जाता है? इन संकेतकों को एक साथ कैसे रखा जाता है, और क्या अपस्फीतिकारक समुचित हैं? ज्यादा आंकड़े सामने आने पर संशोधन की व्यवस्थित प्रक्रिया क्या है? अर्थव्यवस्था के असंगठित हिस्से का आकलन कैसे होता है? इन सवालों को हल करने के लिए राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ही प्रमुख मंत्रालय है। वही इस मामले में प्रभावी कदम उठा सकता है। आंकड़ों में विश्वास बहाल करना एक अनिवार्य कदम है। ऐसा करके ही महामारी के बाद के समय की उचित आर्थिक नीति बन सकेगी। जीडीपी अनुमान के स्रोतों और तरीकों के व्यापक अध्ययन का पिछला प्रकाशन 2012 में किया गया था यानी उसे एक दशक बीत चुके हैं। ऐसे में 2022 में ऐसे आंकड़ों का प्रकाशन होना चाहिए ताकि कुछ सवालों को विराम दिया जा सके।
