हाल के वर्षों में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग मॉनसून का पूर्वानुमान लगाने में काफी हद तक विफल रहा है। इस वर्ष उसकी गलती लगभग हास्यास्पद है। उसने 30 मई के बुलेटिन में अनुमान जताया था कि मॉनसून 31 मई को केरल में दस्तक देगा। बाद में उसने संशोधित अनुमान में कहा कि मॉनसून 3 जून को आएगा। इसके बाद मॉनसून तेजी से पश्चिम बंगाल समेत दक्षिण-पूर्व में फैला लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और अन्य इलाकों में वह अब तक नहीं पहुंचा है। जबकि मौसम विज्ञान विभाग ने अपने मूल अनुमान में कहा था कि मॉनसून 15 जून तक दिल्ली पहुंचेगा। यह पूर्वानुमान 13 जून को लगाया गया था यानी कोई बहुत लंबा पूर्वानुमान भी नहीं था। उसके बाद विभाग ने बार-बार दिल्ली में मॉनसून आने की बात कही लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी। यह मानने की कोई वजह नहीं है कि मॉनसून देर से आने पर कमजोर ही रहेगा लेकिन यह भी सही है कि कुछ क्षेत्र, खासकर कृषि क्षेत्र को मॉनसून में देरी की चेतावनी समय रहते मिल जानी चाहिए।
यह सही है कि मौसम का पूर्वानुमान एक जटिल प्रक्रिया है और इसमें गलतियां हो सकती हैं। परंतु बीते छह सप्ताह में जिस तरह की गलतियां देखने को मिली हैं उनका एक सिलसिला है जो गहरी दिक्कतों की ओर संकेत करता है। या तो अनुमान अत्यधिक सुनिश्चित तरीके से जताए जा रहे हैं या फिर इनके मॉडल की नए सिरे से जांच करने की आवश्यकता है। संसद की विज्ञान संबंधी स्थायी समिति ने हाल ही में इशारा किया कि मौसम विज्ञान विभाग के अनुमानों की विफलता खासतौर पर समस्या बन गई है क्योंकि अचानक आने वाली बाढ़ जैसी अतिरंजित मौसम की घटनाओं से बचना जरूरी हो चुका है। गत सप्ताहांत हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटना के बाद अचानक तेज बाढ़ की घटनाएं घटीं। चूंकि जलवायु परिवर्तन के गहरे होने के साथ ही अतिरंजित मौसम का प्रबंधन करना और मुश्किल होता जाएगा। ऐसे में मौसम विज्ञान विभाग को सुधार करना होगा या कम से कम अपने मॉडल पर खुलकर विचार करना होगा।
मौसम का पूर्वानुमान जताने वाले निजी संस्थान मसलन स्काईमेट, अर्थ नेटवक्र्स और आईबीएम वेदर आदि ने भी हालिया वर्षों में मौसम विज्ञान विभाग से अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है। हालांकि स्काईमेट के मॉडल का प्रदर्शन बीते कुछ वर्षों में अच्छा रहा है। कम से कम एक राज्य सरकार यानी केरल ने इस वर्ष मॉनसून के सामूहिक पूर्वानुमान के लिए निजी सेवा प्रदाता का रुख किया। व्यापक प्रश्न यही है कि आखिर सरकार से किसानों और उद्योग तक विभिन्न उपयोगकर्ता किसी एक सरकारी एजेंसी पर निर्भर रहने के बजाय विभिन्न सूचित मॉडलों से प्राप्त जानकारी का किस हद तक इस्तेमाल कर सकते हैं।
पूर्वानुमान लगाने वाले वैध निजी संस्थानों की पहुंच व्यापक प्रासंगिक आंकड़ों तक होनी चाहिए, भले ही उन्हें सरकारी एजेंसियों ने जुटाया हो। ऐसा करने पर ही उनका पूर्वानुमान व्यापक जनता तक पहुंच सकेगा। तकनीकी तौर पर देखें तो हाल के वर्षों में ऐसा ही हुआ है और कुछ सरकारी एजेंसियों मसलन नीति आयोग आदि ने निजी मौसम मॉडलिंग कंपनियों को शोध में साझेदार बनाया है। परंतु भारतीय मौसम विज्ञान विभाग यह मानकर चल रहा है कि वह मौसम संबंधी पूर्वानुमानों के लिए केंद्रीय एजेंसी बना रहेगा जबकि निजी कंपनियां सेवा प्रदाता या वेंडर बनी रहेंगी। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की बार-बार की नाकामी को देखते हुए यह सही नहीं है। यदि मॉनसून के पूर्वानुमान को लेकर इस वर्ष की नाकामी जैसी हास्यास्पद स्थिति बनती है तो पूर्वानुमान को लेकर विभिन्न मॉडलों का व्यापक सेट आवश्यक हो जाएगा। ताकि इस बार जैसे हालात दोहराए न जाएं।
