पिछले एक दशक के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से एक आदर्श नियोक्ता बनने के लिए कहा है।
अदालत ने उदारीकरण की बयार बहने से पहले खासतौर से यह बात कही। लेकिन ठेका मजदूरी एक ऐसा क्षेत्र है जहां सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) को आदर्श की भूमिका निभाने में खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।
निजी कंपनियां आमतौर पर विभिन्न तरकीबों के सहारे आउटसोर्सिंग की नीति को अपनाकर इससे बच निकलती हैं। लेकिन पीएसयू के पास बच निकलने के ऐसे रास्ते मौजूद नहीं हैं क्योंकि संविधान की निगाह में उन्हें ‘राज्य’ ही माना जाता है और अदालत सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों से बेहतर श्रमिक प्रथाओं की अपेक्षा करती है।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कर्मचारियों या प्रतिष्ठानों द्वारा ठेका मजदूरी की स्थिति को लेकर दायर की गई याचिकाओं की अलग से एक साथ सुनवाई करने का फैसला किया है। हालांकि संविधान पीठ द्वारा 2001 में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) के फैसले से कई सवाल उठे हैं क्योंकि इस फैसले को सही से समझा नहीं जा सका, और इस कारण बड़ी संख्या में अपील की गईं।
ठेका मजदूर (नियमन और उन्मूलन) कानून के प्रावधानों के संदर्भ में मजदूरों को लेकर भ्रम की स्थिति को सर्वोच्च न्यायालय में आए दो मामलों औद्योगिक विवाद कानून और सेल के फैसले के जरिए समझा जा सकता है। पहले मामला श्रमिक संघ बनाम इंडिया ऑयल है। यूनियन मुंबई स्थित कैंटीन के कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व कर रही थी।
उन्होंने आरोप लगाया कि निगम और कैंटीन के ठेकेदार के बीच करार गलत ढंग से किया गया है और उन्हें बहाल करने की मांग को औद्योगिक अधिकरण में भेजना चाहिए। बंबई उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से उनके अनुरोध पर विचार करने के लिए कहा।
लेकिन सरकार ने इस आधार पर अनुरोध को अस्वीकार कर दिया कि ‘कर्मचारियों को निगम के प्रबंधन द्वारा नियुक्त नहीं किया गया था बल्कि उन्हें वैध और कानूनी ढंग से ठेका पाने वाले एक ठेकेदार द्वारा काम दिया गया था।’
इसे मजदूरों ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन याचिका खारिज कर दी गई। इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। न्यायालय ने सरकार से अपने फैसले पर फिर से विचार करने के लिए कहा। इस मामले में महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या कर्मचारी ठेका मजदूर थे या नहीं।
इस सवाल का फैसला अधिकरण द्वारा किया जाना चाहिए। हालांकि सरकार ने अधिकरण का हवाला दिए बगैर खुद ही इस सवाल का जवाब दे दिया। ऐसा करना गैरकानूनी था। अगर कोई ऐसा विवाद है जिसे औद्योगिक विवाद कानून की धारा 10 (1) के तहत अधिकरण के पास भेजना चाहिए और सरकार ऐसा करने से इनकार करती है तो अदालत सरकार को हवाला देने का निर्देश दे सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने चार ऐसी स्थितियां सूचीबद्ध की हैं जब अदालत सरकार को संदर्भ लेने के लिए आदेश दे सकती है:
1. जब सरकार अप्रासंगिक और असंगत आधार बताती है।
2. जब वह विवाद के पहलुओं को लेकर पहले ही नतीजे पर पहुंच जाती है।
3. इनकार गलत इरादे के साथ किया गया हो, और
4. जब सरकार सुलह अधिकारी की रिपोर्ट को नजरअंदाज करती हो।
सेल के मामले में गलतफहमी पैदा करने वाले फैसले के बावजूद ठेका मजदूरों के पास कम से कम तीन रास्ते हैं, और इंडियन ऑयल के फैसले में इनका उल्लेख किया गया है। इसमें कहा गया है कि जब श्रमिकों का मामला यह हो कि ठेका ही फर्जी था, तब वे इस बात की मांग कर सकते हैं कि उन्हें सीधे प्रधान नियोजक का कर्मचारी घोषित किया जाए।
दूसरी बात यह है कि अगर विवाद असफल होता है और यह पाया जाता है कि ठेका वैध था तो वे अभी भी सरकार से अनुरोध कर सकते हैं कि उनके प्रतिनिधित्व पर ठेका मजदूर उन्मूलन के तहत विचार किया जाए।
तीसरी बात, अगर मजदूर जोरदार ढंग से इस बात को रखते हैं कि प्रधान नियोक्ता और ठेकेदार के बीच करार सिर्फ एक छलावा था ताकि उन्हें श्रम कानूनों के लाभ से वंचित रखा जा सके, तो वे औद्योगिक विवाद कानून के तहत राहत की मांग कर सकते हैं।
करीब दो दशक पुराने एक दूसरे फैसले आईएएएआई बनाम इंटरनैशनल एयर कार्गो वकर्स यूनियन में मद्रास उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में 7 दौर की सुनवाई के बाद मजदूर अपना केस हार गए थे। इन वर्षों के दौरान ठेकेदार बदल गए और दशाएं भी परिवर्तित हो चुकी थीं।
हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि (क) आईएएआई और कार्गो हैंडलिंग के काम में लगी सोसाइटी के बीच हुआ समझौता ‘न तो फर्जी है, न नाममात्र का है और न ही एक छलावा है’ और ठेका मजदूर सीधे तौर पर आईएएआई के कर्मचारी नहीं थे।
(ख) औद्योगिक विवाद कानून का उल्लंघन नहीं हुआ है। (ग) ठेका मजदूर कानून की धारा 10 के तहत अधिसूचना के बगैर हवाई अड्डे पर ठेका मजदूरों को नियुक्त नहीं किया जा सकता है, ऐसे में कर्मचारी नियुक्ति का दावा नहीं कर सकते हैं।
इन पेचीदा कानूनी व्याख्याओं से एक निष्कर्ष यह निकलता है कि करार मजदूर व्यावहारिक तौर पर अदालत का रुख कर सकते हैं। केवल ऐसे मजदूर संघ जो वित्तीय और संगठनात्मक रूप से मजबूत हैं वे एक दशक से अधिक समय तक मुकदमा लड़ सकती हैं जबकि उनके सदस्यों को भुखमरी का सामना करना पड़ेगा।
अगर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के मामले में ऐसे हालात हैं तो निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के हौसलों का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
