मजबूत कारोबार के लिए ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के संदर्भ में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने आस्ति वर्गीकरण नियमों में संशोधन के लिए बैंकों के साथ अपने संवाद पर सफाई दी है।
मौजूदा आर्थिक दशाओं में एक बड़ी चिंता यह है कि नीतिगत ब्याज दरों में कटौती और प्रणाली में और अधिक नकदी जारी करने के बावजूद कर्ज श्रृंखला की अंतिम कड़ी पर खड़े लोगों को कोई फायदा नहीं मिल सका है।
और अगर कंपनियों तथा उपभोक्ताओं तक कर्ज पहुंच ही नहीं रहा है तो भला इसका उपयोग वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के लिए कौन करेगा। ऐसे में अर्थव्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आने जा रहा है। लेकिन मौजूदा दशाओं में बैंकों के पास सतर्क और रूढ़िवादी होने की वजह है। उद्योग बिक्री और मार्जिन में भारी कमी झेल रहे हैं और ऋण की अदायगी नहीं कर पाने का जोखिम बढ़ा है।
भुगतान की अदायगी नहीं होने पर बैंकों को अपनी आय से उसके लिए प्रावधान करना पड़ता है, और इसका असर बैंक के अपने वित्तीय प्रदर्शन पर पड़ता है। यह समस्या खासतौर से सितंबर, 2008 के बाद से अधिक तेज हो गई है, जब अत्यधिक सख्त नकदी दशाओं ने बड़ी संख्या में उद्योगों को पटरी से उतार दिया।
एक व्यावहारिक शिकायत यह है कि अगर प्रस्तावित भुगतान पूरा नहीं हो पाता है तो ऋण के पुनर्भुगतान को संदेहपूर्ण या घटिया परिसंपत्ति की श्रेणी में डाल दिया जाता है। इसके चलते बैंक को कर्ज पर रोक लगानी पड़ती है और अनुमानित नुकसान के लिए खुद को तैयार करना पड़ता है।
इस दौरान नकदी के संकट की गंभीरता को देखते हुए, बड़ी संख्या में ऐसे कारोबार जो अच्छी हालत में थे, उन्हें भी नुकसान उठाना पड़ा। इस कारण सूक्ष्म आर्थिक स्तर पर हालात और बिगड़ गए और इस वजह से मौद्रिक उपायों का असर कम रहा है।
दिसंबर के बाद से नीतिगत घोषणाओं में, रिजर्व बैंक ने ऐसे कारोबार को ऋण का प्रवाह सुनिश्चित करने की कोशिश की है। इसके लिए उद्योगों को अपने ऋणों को पुनर्गठित करने की अनुमति दी। यह कोशिश जोखिम रहित नहीं थी। ऋण को पुनर्गठित करके इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती है कि भविष्य में देनदारियों को पूरा कर लिया जाएगा।
कारोबारी माहौल के मद्देनजर संभव है कि कई कर्जदार ऋण की अदायगी न कर सकें। समस्या को केवल आगे बढ़ा दिया गया है, उसका समाधान नहीं किया गया है। निश्चित तौर से इसका कोई दोष मुक्त समाधान नहीं है, लेकिन रिजर्व बैंक ने एक व्यावहारिक बीच का रास्ता अपनाया है।
केंद्रीय बैंक ने स्पष्ट किया है कि परिसंपत्तियों को तब तक पुनर्गठित नहीं किया जा सकता है जबकि कर्जदार और ऋणदाता दोनों ही पुनर्गठन योजना पर सहमत न हों। इससे ऋण का उचित प्रवाह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। बैंकिंग की बात करें तो नुकसान से बचने का दबाव कम हुआ है, और इस कारण ऋण देने की बैंकों की इच्छा बढ़ी है।
जिनके खाते सितंबर के अंत तक सही तरह से चल रहे थे सिर्फ उन्हीं को उधारी के लिए योग्य ठहराने के लिए जारी दिशानिर्देशों से जोखिम घटा है। मानकों में स्थायी बदलाव के साथ दीर्घावधि में प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का जोखिम भी जुड़ा रहता है। मौद्रिक नीति और बैंकिंग कामकाज अब एक दूसरे के साथ और अधिक जुड़ सकते हैं, जो आर्थिक सुधार के केंद्र में है।
