किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के कृषि विपणन सुधारों के विरोध का जो आह्वान किया था, उसे मिला सीमित प्रतिसाद इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अधिकांश किसानों को ये सुधार रास आए हैं। बल्कि जून में मंडी के बाहर माल बेचने की इजाजत मिलने के बाद से अब तक मंडियों में कारोबार 40 फीसदी तक कम हो चुका है। इन सुधारों का विरोध मोटे तौर पर इसलिए हो रहा है क्योंकि राजनीतिक संबद्धता वाले किसान संगठनों की ओर से किसानों पर इनके प्रभाव के बारे में गलत जानकारी प्रसारित की जा रही है। उनकी ओर से यह गलत जानकारी दी जा रही है कि सरकार का यह कदम न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था समाप्त करने की दिशा में उठाया गया है और यह देश में कृषि कार्यों के कॉर्पोरेटीकरण की राह खोलने का प्रयास है। आश्चर्य नहीं कि यह विरोध पंजाब, हरियाणा तथा कुछ अन्य राज्यों में सीमित रहा है जहां गेहूं और चावल जैसी ज्यादातर उपज सरकारी एजेंसियों द्वारा पहले से तय कीमत पर खरीदी जाती है।
ये सुधार काफी समय से लंबित थे और इन्हें गत 5 जून को तीन अध्यादेशों के माध्यम से पेश किया गया था। अब इन्हें कानूनी स्वरूप देने के लिए संसद में पेश किया गया है। इन सुधारों का लक्ष्य किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाना है और वे जहां और जिसे चाहें बेहतर दाम पर उपज बेच सकते हैं।
कृषि जिंस को मंडी के बाहर बेचने की इजाजत देकर कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया है। एपीएमसी मंडियों की प्रतिस्पर्धा के लिए निजी मंडियों की भी इजाजत दी गई है। इसके अतिरिक्त केंद्र और राज्य सरकारों की कृषि जिंसों के स्टॉक भंडारित करने और उनके आवागमन को प्रतिबंधित करने के अधिकार को भी कम किया गया है। ऐसा अनिवार्य जिंस अधिनियम 1955 में संशोधन करके किया गया है। इसके अलावा उत्पादकों और अंतिम उपभोक्ता के बीच बेहतर लिंक कायम करने वाली अनुबंधित कृषि को भी कानूनी स्वरूप दिया गया है ताकि किसानों के हितों की रक्षा हो सके।
बहरहाल, इन सुधारों को लेकर फैलाई जा रही भ्रांति दूर करना केंद्र सरकार का काम है। इन सुधारों के बारे में किसानों तक सही जानकारी पहुंचाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के भविष्य को लेकर जो असहजता है वह कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की एक रिपोर्ट से उपजी है जिसमें कहा गया है कि इसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना चाहिए। हालांकि सरकार ने तत्काल यह नहीं कहा कि वह ऐसा नहीं कर रही लेकिन सच यही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली चलाने और खाद्य संरक्षा कानून के तहत अपने दायित्त्व पूरे करने के लिए सरकार को अनाज खरीदना ही होगा। इसी तरह अनुबंधित कृषि, कॉर्पाेरेट कृषि से किस प्रकार अलग है यह भी स्पष्ट नहीं किया गया। नया कानून केवल साझा सहमति वाले अनुबंधों को इजाजत देता है।
बहरहाल तथ्य यह है कि ये सुधार फसल कटाई के समय कीमतों में आने वाली अचानक गिरावट को स्वत: रोक नहीं सकते जबकि किसानों की दिक्कतों में यह अहम है। सरकार की प्रमुख मूल्य और आय समर्थन योजना प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा) जिसकी घोषणा 2018 के बजट में की गई थी, उसमें भी कुछ खास प्रगति नहीं हुई है। इस योजना के तहत तीन मूल्य समर्थन प्रणालियों को आगे बढ़ाया गया-सीधी खरीद के माध्यम से मूल्य समर्थन, मूल्य अंतर की क्षतिपूर्ति और निजी पक्षों द्वारा खरीद और भंडारण। ये व्यवस्थाएं भी देश के अधिकांश हिस्सों में कागज पर रह गई हैं। संसद पर इन सुधारों पर होने वाली बहस सही मौका है कि इन्हें स्पष्ट किया जाए। परंतु स्पष्टीकरण और जागरूकता अभियान सदन के बाहर भी चलाना होगा।
