भारतीय कंपनियों के कुछ प्रवर्तक कभी चकित करना नहीं छोड़ते। हाल ही में अपील पंचाट द्वारा राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) के उस आदेश को स्थगित कर दिया गया जिसमेंं उसने दीवान हाउसिंग फाइनैंस लिमिटेड (डीएचएफएल) के कर्जदारों को निर्देशित किया था कि वे कंपनी के प्रवर्तक कपिल वधावन की पेशकश पर विचार करें। वधावन एक और ऐसे भारतीय प्रवर्तक हैं जिन्होंने अपने समूह की एक कंपनी की ऋणशोधन निस्तारण प्रक्रिया को धक्का पहुंचाने की कोशिश की।
जयप्रकाश एसोसिएट्स के कार्यकारी अध्यक्ष मनोज गौड़ ने जेपी इन्फ्राटेक के कर्जदाताओं की समिति को लिखा कि वह मकान खरीदने वालों के हित में कंपनी का पूरा बकाया चुकता करने का प्रस्ताव रख रहे हैं। उन्होंने यह पत्र तब लिखा जब कंपनी की ऋणशोधन प्रक्रिया अंतिम चरण में है। अपने पत्र में गौड़ ने कहा कि प्रवर्तकों की पेशकश की अनदेखी करके हेयरकट (ऋण लेने के लिए उल्लिखित मूल्य और वर्तमान बाजार मूल्य का अंतर) को स्वीकार करना गैरसमझदारी भरा था और इससे गलत नजीर पेश हुई।
यह अच्छी बात है कि अब गौड़ का दिल 20,000 मकान खरीदने वालों के लिए पसीज रहा है लेकिन दिक्कत यह है कि उनकी आत्मा को जागने में चार वर्ष का समय लग गया। अब गौड़ जिन मकान खरीदने वालों के हितों का बचाव करना चाहते हैं वे शायद अब उस बिल्डर की बोली का समर्थन न करें जिसने निर्माण में देरी की और जो उनकी समस्याओं की मूल वजह है।
गौड़ ने अपने पत्र में जो दलील दी हैं वे उन सभी लोगों को जानी पहचानी लगेंगी जिन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा नियुक्त प्रशासकों के समक्ष वधावन की प्रस्तुति देखी होगी। बल्कि दोनों का समय भी एक सा है। वधावन धनशोधन और फंड की हेराफेरी के मामले में जेल मेंं हैं और उन्होंने भी यह पेशकश तब की जब डीएचएफलए की बोली प्रक्रिया अंतिम चरण में थी।
वधावन ने 90,000 करोड़ रुपये का बकाया चुकाने की पेशकश की लेकिन प्रश्न यह है कि यदि उनके पास जेल में होने पर भी इतना पैसा है तो उन्होंने पहले क्यों नहीं चुकाया? इससे भी अधिक चिढ़ पैदा करने वाली बात यह है कि उन्होंने जिन 10 परिसंपत्तियों के विक्रय की बात कही है उनमें से कई की प्रवर्तन निदेशालय जांच कर रहा है। जाहिर है उसने अपराध का हिस्सा होने के चलते उन्हें पहले ही धनशोधन निरोधक अधिनियम (पीएमएलए) के अधीन जब्त कर रखा है।
यह बात समझ से परे है कि एनसीएलटी ने इन बातों की अनदेखी करते हुए डीएचएफएल के कर्जदारों से वधावन की पेशकश पर विचार करने को कैसे कहा। क्योंकि एनसीएलटी का इरादा ऐसा तो नहीं रहा होगा कि वह अन्य प्रवर्तकों को अपने कारोबार को निस्तारण की सस्ती पेशकश के जरिये दोबारा हथियाने का रास्ता दिखाये।
अतीत में कुछ अन्य प्रयास भी किए गए लेकिन वे सभी नाकाम रहे क्योंकि ऐसे प्रवर्तकों और बैंकरों के बीच आपसी विश्वास की कमी थी। वीडियोकॉन के वेणुगोपाल धूत, भूषण स्टील के संजय सिंघल और एस्सार के रुइया परिवार ने भी निस्तारण के अंतिम चरण में ऐसे ही प्रयास किए जिन्हें बैंकरों ने अपनी कंपनियों पर दोबारा काबिज होने की मूर्खतापूर्ण कोशिश करार दिया।
एस्सार स्टील के पूर्व प्रवर्तक रुइया परिवार ने ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) की धारा 12ए के तहत अंतिम समय में 54,389 करोड़ रुपये की पेशकश की थी। यदि कंपनी सभी कर्जदाताओं की राशि चुकाने को तैयार होती और 90 फीसदी कर्जदाता सहमत होते तो कंपनी दिवालिया प्रक्रिया से बच सकती थी। परंतु यह कथित उदार पेशकश भी निस्तारण प्रक्रिया के अंतिम दौर में की गई थी। बैंक पहले ही दो पेशकश पर मतदान शुरू कर चुके थे। एनसीएलटी के अहमदाबाद पीठ ने रुइया की आशाओं पर पानी फेरते हुए कहा कि प्रवर्तकों को अपना बकाया चुकाने का कोई बुनियादी अधिकार नहीं है और ऐसी योजना को तभी सुना जा सकता है जब कर्जदाताओं की मंजूरी हो। भूषण स्टील के सिंघल के अलावा ऐसी राह चुनने वाले एक अन्य प्रवर्तक थे धूत जिन्होंने अपने वीडियोकॉन समूह की 15 कंपनियों के पर ऋणशोधन प्रक्रिया समाप्त करने के लिए 31,289 करोड़ रुपये चुकाने की पेशकश की थी। रास्ता जाना पहचाना था: वह परिसंपत्तियों की बिक्री से राशि जुटाते। धूत ने यह दावा भी किया कि उनके पास समूह का खोया हुआ गौरव लौटाने की एक ठोस योजना भी है। जाहिर है कर्जदाताओं ने इस प्रस्ताव को नकार दिया।
ज्यादातर प्रवर्तकों ने इंतजार करने की रणनीति अपनाई थी। उन्हें लगा कि ऋणशोधन प्रक्रिया में देरी करने और अंतिम समय में बोली लगाने से उन्हें अपनी कंपनी सस्ती कीमत पर वापस मिल जाएंगी। सीधा सवाल यह है कि अगर प्रवर्तकों के पास हजारों करोड़ रुपये का कर्ज चुकाने के वित्तीय साधन मौजूद थे तो उन्हें यह काम पहले ही कर लेना था। उनका इरादा साफ था: भ्रम फैलाना और दिवालिया कारोबार पर काबिज रहने का हरसंभव प्रयास करना। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम मानक स्थापित कर दिया था- इसके तहत यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अगर जो व्यक्ति समस्या के मूल में हो वह उसके निवारण का हिस्सा न बन सके।
एक पहलू यह भी है कि अगर प्रवर्तक जानता है कि वह बैंक का कर्ज न चुकाकर अपनी कंपनी को दिवालिया अदालत में सस्ती दर पर और घटे हुए कर्ज के साथ खरीद सकता है तो उसके पास कंपनी को डुबाने की पर्याप्त वजह होगी। एनसीएलटी को वधावन मामले में विचित्र निर्णय देने के पहले यह बात बेहतर ढंग से समझनी चाहिए थी।
