पिछले दो सप्ताह के दौरान विदेशी मुद्राओं के मुकाबले रुपये की कीमत भारी दबाव में आ गई है और एक बार तो विनिमय दर 52 रुपये प्रति डॉलर के स्तर को पार कर चुकी है।
एक तरह से, डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा की कीमत में आई गिरावट की वजह रुपये की कमजोरी के अलावा कुछ और भी है, क्योंकि इस दौरान दुनिया की प्रमुख मुद्राओं (पाउंड, यूरो और येन) के मुकाबले डॉलर की कीमतों में तेजी का रुख देखने को मिला है।
इसके अलावा कोरियाई वोन, इंडोनेशियाई रुपिहा और दूसरी छोटी मुद्राओं के मुकाबले भी डॉलर ने तेजी दर्ज की है। आरईईआर सूचकांक के लिहाज से बात करें तो मेरा अनुमान है कि मौजूदा स्तर की तुलना 1998-99 के औसत से की जा सकती है।
ऐतिहासिक रूप से बात करें तो चालू वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के दौरान चालू खाता पिछली तीन तिमाहियों के मुकाबले काफी मजबूत रहा है। यहां तक कि इस साल सीमा शुल्क मंजूरी के आधार पर वस्तु व्यापार घाटा सिकुड़ने लगा है। इसके लिए कच्चे तेल की कीमतों में आई भारी गिरावट को धन्यवाद देना चाहिए।
पूरे साल की बात करें तो भुगतान संतुलन के आधार पर, यह करीब 110 अरब डॉलर से 115 अरब डॉलर के बीच रह सकता है। दूसरी तरफ चौथी तिमाही के दौरान छिपे हुए अधिशेष भी घट सकते हैं। इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि आईटी क्षेत्र की उड़ान पर लगाम लग गई है और बड़ी संख्या में भारतीय लोग तेल-बहुल खाड़ी देशों से लौट रहे हैं।
इस कारण विदेश से धन की आवक पर असर पड़ेगा। बहरहाल, वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान भी चालू खाते के काफी हद तक नकारात्मक बने रहने के आसार हैं। मैं चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही के दौरान पूंजी प्रवाह के बहाल होने की उम्मीद कर रहा था। हालांकि अब इसकी कम ही उम्मीद बची है क्योंकि वैश्विक वित्तीय बाजार अभी तक सामान्य नहीं हो सके हैं। और भारत के मद्देनजर कुछ विशेष कारण तो काम कर ही रहे हैं, जाहिर है, उनका भी असर पड़ रहा है।
रिपोर्ट बताती हैं कि वैश्विक बाजार के हालात और घरेलू मोर्चे पर सत्यम तथा सुभिक्षा जैसी समस्यों के पैदा होने के कारण चालू वित्त वर्ष के दौरान भी निजी इक्विटी का प्रवाह घट सकता है। वर्ष 2008 के दौरान ऐसे करीब 10 अरब डॉलर के सौदे हुए थे। ऐसे में बेहद बुरे हालात राजकोष के स्तर पर होंगे।
रिपोर्ट बताती हैं कि राजकोषीय घाटा बजट पूर्वानुमानों के मुकाबले कहीं अधिक रहेगा। इसकी दो वजहें हैं। पहली, बजट के बाद की गई कर छूट की घोषणा और दूसरी, राजस्व के अनुमान काफी बढ़ाचढ़ा कर पेश किए गए हैं।
ये भयभीत करने वाले आंकड़े हैं और इशारा करते हैं कि वर्ष 2009-10 के दौरान कुल सरकारी उधारी (कुल प्रतिदान और एमएसएस उधारी को बदलले से) करीब-करीब 4,00,000 करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है- बैंक जमाओं में संभावित वृद्धि (चालू वित्त वर्ष के दौरान 6,50,000 करोड़ रुपये) की तुलना में यह एक विचलित कर देने वाली राशि है।
चालू वित्त वर्ष के दौरान विकास के आंकड़े आर्थिक सलाहकार परिषद और केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा जनवरी में जारी किए गए अनुमानों के मुकाबले और कम रह सकते हैं। लेकिन केंद्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन में संशोधन के चलते पड़े एक बारगी असर के कारण तीसरी तिमाही की विकास दर 4.2 प्रतिशत हो गई हो पर हाल में दरों में की गई कटौती से पूरे परिदृश्य में कोई खास बदलाव नजर आता दिख नहीं रहा है।
अगस्त, 2008 में शीर्ष पर पहुंचने के बाद महंगाई तेजी से घटी है, लेकिन बैंकों की ऋण वृद्धि की रफ्तार अक्टूबर के 30 प्रतिशत से घटकर 13 फरवरी को 20 प्रतिशत ही रह गई है। कम विकास दर, भीषम राजकोषीय घाटे और राजनीतिक अनिश्चितता के माहौल में निवेशक मुश्किल से ही आकर्षित हो पाएंगे।
एक बार फिर विनिमय बाजार में मांग और आपूर्ति की मौजूदा दशाओं पर लौटते हैं। आप यह जानकार आश्चर्य कर सकते हैं कि रुपये पर बने मौजूदा दबाव की आंशिक वजह यह भी है कि लोग अपनी बचत देश के बाहर भेज रहे हैं।
मेरे विचार से तो यह कहना अधिक सही होगा कि मौजूदा हालात स्पष्ट तौर से पूंजी खाते की पूर्ण परिवर्तनीयता से जुड़े जोखिमों पर जोर दे रहे हैं। मुक्त अर्थव्यवस्था पर भरोसा जताने वाले लेख के जरिए हम आर्थिक दुष्चक्र को आसानी से समझ सकते हैं।
अर्थव्यवस्था के सामने कठिनाइयां हैं, रुपये में गिरावट का दबाव बना हुआ है, निवासी और गैर-निवासी अपनी जमाएं बाहर भेज रहे हैं और इस कारण विनिमय दर पर और गिरावट का दबाव बना हुआ है। ऐसे दुष्चक्र में केन्द्रीय बैंक के लिए इन रुझानों को बदलना काफी मुश्किल होता है, फिर चाहे परिस्थितियां सबसे बेहतर ही क्यों न हों।
जरा सोचिए क्या होगा अगर देशवासी अपनी करीब एक लाख करोड़ रुपये (20 अरब डॉलर) की घरेलू बचत को विदेशी मुद्रा में परिवर्तित कर लें! जाहिर तौर पर इससे रुपये को तगड़ा झटका लगेगा और उस पर गिरावट के लिए और दबाव बन जाएगा। इसके साथ ही बैंकिंग बाजार में नकदी का नया संकट भी पैदा हो जाएगा।
ये कारण अगर एक बार प्रभावी हो गए तो उन्हें रोक पाना काफी मुश्किल होगा। अगर यह ‘पूर्ण परिवर्तनीयता’ का एक जोखिम है, तो केंद्रीय और पूर्वी यूरोप के कई देश एक दूसरी ही समस्या से जूझ रहे हैं। यूरो को अपनाने की तैयारी में इन देशों ने अपने पूंजी खातों को उदार बनाया।
बड़ी संख्या में लोगों ने (आवास कर्ज के लिए) और कारोबारियों ने घरेलू मुद्रा की ब्याज दर के मुकाबले कम ब्याज दर पर यूरो उधार लिया। मौजूदा संकट के तहत जब पूंजी तेजी से बाहर जाने लगी तो उनकी मुद्राएं औंधे मुंह गिर पड़ीं। ऐसे में कई देश हड़बड़ी में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, पुनर्गठन तथा विकास के लिए यूरोपीय बैंक और यूरोपीय संघ की दूसरी एजेंसियों के पास कुल 24 अरब यूरो का भुगतान संतुलन पैकेज हासिल करने के लिए पहुंचे।
उदार पूंजी खातों के कारण आइसलैंड को भी संकट का समाना करना पड़ा। आइसलैंड के बैंकों में बड़ी संख्या में ब्रिटिश लोगों ने धन जमा कर रखा है। एक उदार पूंजी खाता उतना फायदेमंद नहीं है जितना कि लगता है (या लग रहा था)। लेकिन इन सब के अलावा एक बात यह है कि अगले वित्त मंत्री के पास मुकाबले के लिए एक मुश्किल एजेंडा होगा।
