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  लेख  अदूरदर्शिता की वजह से ही पैदा हुईं दिक्कतें
लेख

अदूरदर्शिता की वजह से ही पैदा हुईं दिक्कतें

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 27, 2008 9:31 PM IST
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इस साल की शुरुआत में मैंने केंद्रीय बजट को अदूरदर्शी करार दिया था। मैं एक बार फिर से बताती हूं कि मैंने ऐसा क्यों कहा था।


बजट में इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया था कि दुनिया के सामने नई चुनौतियां आने लगी हैं और उन सब का आपस में कोई न कोई संबंध है, सभी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

पहला, खाद्यान्न की कीमतें बढ़ना, दूसरा कच्चे तेल की कीमतों में लगी आग, तीसरा जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल असर जो खासतौर पर फसल उत्पादन पर देखने को मिल रहा है। फसल उत्पादन में कमी की वजह पानी की कमी और अनिश्चित बारिश है। और चौथा, अमेरिका जनित वैश्विक मंदी की आशंका।

खैर तब से लेकर अब तक इस मंदी के थपेड़े रह रह कर हमारे चेहरों पर पड़ते रहे हैं, कभी कंपनियों को नुकसान पहुंचा कर और कभी बैंकों के धराशायी होने से। सरकार भी इन्हें दिवालिया होने से बचाने के लिए अरबों डॉलर की सहायता पैकेज मुहैया कराने में जुटी है।

अदूरदर्शिता से सिर्फ भारत ही ग्रस्त नहीं है बल्कि यह यह एक वैश्विक मर्ज है। हमें जितना झटका इस संकट और इसकी विशालता से नहीं लगा है उससे कहीं अधिक झटका हमें इस बात से लगा है कि ऐसे समय में वित्तीय और राजनीतिक प्रबंधकों की प्रतिक्रियाएं कैसी रही हैं।

याद रहे कि ये वे लोग हैं जिन्होंने एक सा अध्ययन किया है, जो एक सी बात करते हैं और जिन्होंने एक जैसे काम किए हैं। उन सभी को पता है कि आम लोग जब तक यह समझ पाएंगे कि मंदी आई है, उससे पहले इनके पास इस मंदी से निपटने और उबरने का रास्ता होगा। यानी सवाल आपके मन में कौंधा नहीं कि उसके पहले इनके पास जवाब तैयार होगा।

आज की तारीख में वे कौन से कदम उठाएं, भले ही इसे लेकर वे स्पष्ट न हों पर उनका घमंड अब भी चूर नहीं हुआ है। पहले उन्होंने कहा, ‘घबराएं नहीं, इस मंदी का असर हम पर नहीं पड़ेगा।’ और अब वे कह रहे हैं, ‘घबराएं नहीं ये सकंट जल्द ही दूर हो जाएगा।’

सच्चाई तो यह है कि उन्हें पता ही नहीं कि क्या हो रहा है। वे यह मानने से भी इनकार करते रहे हैं कि जिस तरह विकास के क्रम में हम एक दूसरे देशों से जुड़े हैं, ठीक उसी तरह आर्थिक संकट में भी वे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम वही जानते हैं और उसी हिसाब से काम करते हैं जो हमें सिखाया गया है और हमें सिखाया गया है कि चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों हमें उपभोग की नीति पर टिके रहना चाहिए।

कुछ ऐसा ही मंदी के संदंर्भ में भी है कि हम उपभोग के रास्ते ही मंदी से बाहर निकल सकते हैं। मौजूदा दौर का मंत्र है, ‘घबराएं नहीं, केवल उपभोग करें।’ और अगर हम उपभोग नहीं कर सकते तो भी हमें चिंतित नहीं होना चाहिए।

वित्तीय प्रणाली यह सुनिश्चित करने में जुटी है कि लोगों को मकान, कार, वॉशिंग मशीन या फिर जिन चीजों की उन्हें ख्वाहिश हो उन्हें खरीदने के लिए उन्हें सस्ती दरों पर ऋण मिलता हो। यहां यह ध्यान देने लायक है कि जिन चीजों की उन्हें ख्वाहिश है, वे चीजें नहीं जिनकी उन्हें जरूरत है।

आखिरकार हमारे उपभोग करने से ही विकास सूचकांक में एक बार फिर से चमक दिख सकती है और दुनिया में खुशी लौट सकती है। हालांकि हम यह कोशिश नहीं करते कि उत्पादों के दाम कम हो सकें ताकि उन्हें खरीदना लोगों के लिए मुमकिन हो। साथ ही हम धन बांटने में भी यकीन नहीं रखते ताकि विकास का लाभ ज्यादा लोगों तक पहुंच सके।

विकास को बढ़ावा देने का एक दूसरा तरीका यह हो सकता है कि उत्पादों को तैयार करने के खर्च में सब्सिडी दी जाए। इसे टाटा की नैनो परियोजना से आसानी से समझा जा सकता है। इस परियोजना के लिए कंपनी को सस्ती दर पर जमीनें, लगभग ब्याज मुक्त दर पर पानी और बिजली की व्यवस्था आदि।

यह सब इसलिए किया गया ताकि कार का उत्पादन कम खर्च पर हो सके, एक ऐसी कार का निर्माण कम खर्च पर हो सके जो लाखों ऐसे लोगों के कार खरीदने के सपने को पूरी कर सकती है जो अब तक अधिक दाम की वजह से दोपहिया वाहनों पर ही सफर करने के लिए मजबूर थे। हालांकि इसी अर्थव्यवस्था का एक दूसरा रूप यह भी है कि यहां उत्पाद को तो नहीं पर उपभोग को सब्सिडी जरूर प्रदान की जाती है।

अमीर देशों में फसलों की पैदावार कुछ अलग तरीके से ही होती है जहां किसानों को भारी सब्सिडी दी जाती है ताकि वे सस्ते खाद्यान्न पैदा कर सकें और इस तरह उनका उपभोग बढ़े। इस उपभोग को बढ़ाने की कोशिश उसी दुनिया में की जाती है जहां मोटापा एक गंभीर बीमारी बन कर उभरा है।

वहीं यह भी एक सच्चाई है कि इसी उपभोग जनित आर्थिक विकास की वजह से दुनिया को जलवायु परिवर्तन का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। पर मुद्दा अब भी यही है कि : क्या हम इन संबंधों, इन जुड़ावों को समझने लगे हैं?

जवाब साफ है नहीं। मौजूदा संकट के गङ्ढे से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है, हम अब तक जो करते आए हैं उसे ही और अधिक करते रहें। अमेरिका ने जब वित्तीय प्रणाली के लिए 700 अरब डॉलर के वित्तीय पैकेज की घोषणा की थी तो अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे गरीब मजदूरों के हित में बताया।

बुश ने कहा, ‘बैंकों को नकदी की जरूरत थी ताकि वे ऋण मुहैया करा सकें और आम अमेरिकी भी अपने लिए कार खरीद सके। अगर इसे दूसरे शब्दों में कहें तो मांग बनी रहने से फैक्टरी में काम कर रहे मजदूरों का रोजगार नहीं छिनेगा।’ सरल सी अर्थव्यवस्था का सरल सा तर्क: अर्थव्यवस्था की रफ्तार बनाए रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा खरीद करें। भले ही इसकी कीमत हमें कितने ही बैंकों की तिलांजलि देकर क्यों न चुकानी पड़े। पर हम इस बारे में बात नहीं करेंगे।

ऐसा करने पर हमें विकास की बुनियादी समझ बदलनी होगी। आर्थिक विकास को मापने के तरीके में भी बदलाव करना पड़ेगा। हमें सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सूचकांक से आगे बढ़कर सोचना पड़ेगा। पर लगता नहीं कि फिलहाल हम बदलेंगे।

दुनिया अब भी उन्हीं के हाथों में है, जिन्होंने हमें इस संकट में ढकेला है। उनकी सीमित दूरदर्शिता की वजह से ही हम यहां तक पहुंचे हैं। इसे दूरदर्शिता का अभाव ही कहेंगे कि विमान कंपनियों को पहले यह लगने लगा था कि वे रेलवे से भी सस्ते टिकटें उपलब्ध करा सकते हैं। इसलिए फिलहाल बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। मौजूदा वित्तीय संकट से तो हम उबर सकते हैं पर असल तूफान तो अभी बाकी है।

problems created due to untransparency
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