चीन के लोगों को एक श्राप मिला हुआ है, वह यह कि ‘जहां आप सही हों, वहां भी आप मुकदमे के पचड़े में पड़ जाएं!’
विभिन्न कानूनों में इस हकीकत को स्वीकार किया गया है कि ऐसे कई मुकदमे होते हैं जो महज बदला लेने के इरादे और तंग करने के वास्ते दाखिल किए जाते हैं और इनसे वास्तविक न्यायिक कामकाज की गति मंद पड़ जाती है।
दीवानी प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) में तीन ऐसे प्रावधान हैं जो इन दृष्टांतों से संबंध रखते हैं। इनके तहत ऐसे मुकदमे दायर करने वालों पर अदालती खर्च (लागत) या जुर्माना लगाया जा सकता है। हालांकि अदालत में दांव लगाने की मंशा, बदला लेने की भावना या विरोधी पक्ष को तंग करने की प्रवृत्ति पर दंड के नतीजों का खास फर्क नहीं पड़ता है।
इसकी एक वजह यह है कि अदालती खर्च वसूलने की बाबत कानून में अदालत को सीमित अधिकार दिए गए हैं और सामान्यत: इसे 3000 रुपये की सीमा में बांध दिया गया है। इसलिए इस महीने की शुरुआत में उच्चतम न्यायालय ने इस समस्या की समीक्षा करने और इसका हल खोजने की सिफारिश विधि आयोग से की है। अदालतें पहले से ही ऐसे मामलों से जूझती रही हैं और सबसे पहले उन्हें तुच्छ याचिकाकर्ता से छुटकारा पाना होगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय की अपील के बाद इस तरह का सुझाव सामने आया था। उच्च न्यायालय अशोक कुमार मित्तल बनाम राम कुमार गुप्ता के मामले में दोनों पक्षकारों के अजीब रवैये से काफी नाराज था। नाराजगी भी इतनी कि वह अदालती खर्च वसूलने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र से भी बाहर चला गया।
निचली अदालत और उच्च न्यायालय दोनों ने ही पाया कि याचिकाकर्ताओं ने किसी अनुबंध की बिक्री के संबंध में ‘साफ-सुथरे अंदाज’ में याचिका पेश नहीं की। उच्च न्यायालय ने पाया कि विपक्षी पार्टी का व्यवहार भी बोर्ड से अलग नहीं था। दोनों ने झूठी शपथ ली थी, लिहाजा वे सजा के भागी बनने लायक थे।
याचिका के भार से लदे होने की पृष्ठभूमि में उच्च न्यायालय ने फैसला किया कि सजा की बजाय याचिकाकर्ता और विरोधी पक्षकार दोनों से भारी अदालती खर्च वसूला जाना चाहिए और यह रकम न्यायिक आधारभूत संरचना पर खर्च करने वाली सरकार को दी जानी चाहिए।
जब दोनों पक्षकार को एक-एक लाख रुपये दिल्ली उच्च न्यायालय की कानूनी सेवा समिति को सौंपने को कहा गया तो एक पक्ष उच्चतम न्यायालय पहुंच गया, लेकिन वह बेकार रहा। पिछले हफ्ते मद्रास उच्च न्यायालय ने भी ऐसे ही एक मामले में याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का दंड लगाया।
इन्हीं संदर्भों में उच्चतम न्यायालय ने विधि आयोग को सिफारिशें भेजी थी। इसमें कहा गया है – दीवानी मामलों में बतौर अदालती खर्च वसूलने की प्रक्रिया पूरी तरह असंतोषजनक है और यह तंग करने के उद्देश्य से दायर याचिका या फिर अभिमान या लालच के वशीभूत होकर दायर याचिका ‘समय खरीदने’ का कौशल बन गया है।
ऐसे में अदालती खर्च के संबंध में वास्तविक तरीका अपनाया जाना वक्त की जरूरत है। इस संबंध में क्या हमें पश्चिमी मॉडल अपनाना चाहिए, इस पर बहस की आवश्यकता है, लिहाजा भारत के कानूनी आयोग को इस पर शीघ्रता से ध्यान देना चाहिए।
मुकदमे में जुआरियों को रोक पाने में न्यायालय असहाय नजर आता है। समय-समय पर और बार-बार उच्चतम न्यायालय ने इसे रेखांकित किया है। सेलम एडवोकेट्स बार एसोसिएशन बनाम भारत सरकार (2005) के मामले में इसने बदला लेने वाले या फिर तंग करने वाली याचिका को रोकने के लिए अदालत द्वारा असली लागत (अदालती खर्च) से कम वसूले जाने को सामान्य नियम बनाए जाने की इच्छा जताई थी।
हालांकि सीपीसी इस बाबत अदालती अधिकार को सीमित कर देता है। सेक्शन 95 कुछ निश्चित मामले में 50 हजार रुपये की सीमा लगाता है जबकि सेक्शन 35-ए इसे 3000 रुपये पर सीमित कर देता है। व्यवहार में न्यायालय मामूली लागत आरोपित करता है और यहां तक कि विभिन्न पक्षकारों से अपनी लागत खुद वहन करने को कहता है। इस वजह से विपक्षी पार्टियों को सिर्फ तंग करने की खातिर अदालत में घसीटने के प्रति वे हतोत्साहित हो जाते हैं।
एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों से कहा था कि गैरजिम्मेदार कानूनी मुकदमे की सफाई के प्रति उन्हें सक्रिय रहना चाहिए। इस मामले में टी. अरविंदम बनाम सत्यपाल (1977) में पिता और पुत्र ने अपने मकानमालिक के खिलाफ सीरीज में कानूनी कार्यवाही शुरू की थी।
यह अभियान इतना कड़वा था कि कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने अपने फैसले में लिखा था कि इस मामले को खारिज करने से पहले उनकी रातों की नींद उड़ गई थी। जब उच्चतम न्यायालय में अपील की गई तो न्यायालय ने इस तरह के मुकदमे को रोकने के लिए कुछ सुझाव दिए थे।
उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि ऐसे मुकदमों के लिए न्यायाधीशों को निश्चित रूप से अपने दरवाजे बंद कर लेने चाहिए और वकीलों को भी इन क्लाइंट को पूरी तरह खंगाल लेना चाहिए। जनहित याचिका दायर करने वालों के प्रति न्यायालय उदार रहा है, पर वहां इसका कोई अंश भी नहीं दिखता।
हालांकि कुछ मामलों में भारी अदालती खर्च आरोपित किए गए हैं और कम से कम एक मामले में तो उच्च न्यायालय ने दोबारा जनहित याचिका दायर करने की बाबत याचिकाकर्ता पर पाबंदी लगा दी थी। याचिका दायर करने वालों पर अदालती खर्च आरोपित करने के संबंध में अदालत किसी नियम से नहीं बंधी हुई है।
हालांकि समान और सोच विचार कर बनाए गए कानून के अभाव में मुकदमा दायर करने वाले बाध्यकारी लोग कानून का दुरुपयोग करना बंद नहीं करेंगे। वर्तमान फैसले में कुछ सिफारिशें सामने आई है ताकि न्यायालय का वक्त बर्बाद न हो। ऐसे में क्या इन सिफारिशों पर एक बार फिर धूल की परत चढ़ जाएगी जैसा कि उच्चतम न्यायालय की पूर्व सिफारिश के साथ हुआ था।
